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शनिवार, 1 अगस्त 2020

समीक्षा ; सुधियों की देहरी पर

चित्र में ये शामिल हो सकता है: वह टेक्स्ट जिसमें 'दोहा-संग्रह सुधियों की देहरी पर तारकेश्वरी तरु तरु 'सुधि'' लिखा हैसमीक्षा ;
सुधियों की देहरी पर - दोहों की अँजुरी
समीक्षाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: सुधियों की देहरी पर, दोहा संग्रह, तारकेश्वरी तरु 'सुधि', प्रथम संस्करण २०१९, आई.एस.बी.एन. ९७८९३८८४७१४८०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन दिल्ली,दोहाकार संपर्क : ९८२९३८९४२६, ईमेल tarkeshvariy@gmail.com]
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दोहा के उद्यान में, मुकुलित पुष्प अशेष
तारकेश्वरी तरु 'सुधि', परिमल लिए विशेष
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प्रथम सुमन अंजुरी लिए, आई पूजन ईश
गुणिजन दें आशीष हों, इस पर सदय सतीश
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दोहा द्विपदी दूहरा, छंद पुरातन ख़ास
जीवन की हर छवि-छटा, बिम्बित लेकर हास
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तेरह-ग्यारह कल बिना, दोहा बने न मीत
गुरु-लघु रखें पदांत हो, लय की हरदम जीत
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लिए व्यंजना बन सके, दोहा सबका मित्र
'सलिल' लक्षणा खींच दे, शब्द-शब्द में चित्र
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शब्द शक्ति की कर सके, दोहा हँस जयकार
अलंकार सज्जित छटा, मोहक जग बलिहार
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'सुधि' गृहणी शिक्षिका भी, भार्या-माता साथ
कलम लिए दोहा रचे, जाने कितने हाथ
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एक समय बहु काम कर, बता रही निज शक्ति
छंद-राज दोहा रुचे, अनुपम है अनुरक्ति
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सुर वंदन की प्रथा का, किया विनत निर्वाह
गणपति-शारद मातु का, शुभाशीष ले चाह
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करे विसंगति उजागर, सुधरे तनिक समाज
पाखंडों का हो नहीं, मानव-मन पर राज
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"अंदर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और।
किस पर करें यकीन अब, अजब आज का दौर।।" पृष्ठ १७
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नातों में बाकी नहीं, अपनापन-विश्वास
सत्य न 'तरु' को सुहाता, मन पाता है त्रास
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"आता कोई भी नहीं, बुरे वक़्त में पास।
रंग दिखाएँ लोग वे, जो बनते हैं खास।।" पृष्ठ २०
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'तरु' को अपने देश पर, है सचमुच अभिमान
दोहा साक्षी दे रहा, कर-कर महिमा-गान
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उन्नत भाषा सनाकृति, मूल्य सोच परिवेश।
इनसे ही है विश्व गुरु अपना भारत देश।। पृष्ठ २२
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अलंकार संपन्नता दोहों का वैशिष्ट्य
रूपक उपमा कथ्य से, कर पाते नैकट्य
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उपवन में विचरण करे, मन-हिरणा उन्मुक्त।
ख्वाहिश बनी बहेलिया, करती माया मुक्त।। पृष्ठ २३
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समता नहीं समाज में, क्यों? अनबूझ सवाल
सबको सम अवसर मिलें, होंगे दूर बवाल
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ऊँच-नीच औ' जन्म पर, क्यों टिक गया विवाद।
करिए मन-मस्तिष्क को समता से आबाद।। पृष्ठ २४
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कन्या भ्रूण न हननिए, वह जग जननी जान
दोहा दे संदेश यह, कहे कर कन्या का मान
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करो न हत्या गर्भ में, बेटी तेरा वंश।
रखना है अस्तित्व में उसे किसी का वंश।। पृष्ठ २७
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त्रुटि हो उसे सुधारिए, छिपा न करिए भूल
रोगों का उपचार हो, सार्थक यही उसूल
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करती हूँ मैं गलतियाँ, होती मुझसे भूल।
गिरकर उठ जाना सदा मेरा रहा उसूल।। पृष्ठ २८
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साँस न जब तक टूटती, सीखें सबक सदैव
खुद को ज्ञानी समझना, करिए दूर कुटैव
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किसी मोड़ पर तुम नहीं, करो सीखना बंद।
जीवन को परवाज़ ही, देता ज्ञान स्वछंद ।। पृष्ठ ३०
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पंछी चूजे पालते, बढ़ होते वे दूर
मनुज न चाहे दूर हों, सहते हो मजबूर
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खून-पसीना एक कर, बच्चे किए जवान।
बसे मगर परदेस में, घर करके वीरान ।। पृष्ठ ३३
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घर की रौनक बेटियाँ, वे घर का सम्मान।
उन्हें कलंकित मत करो, 'देना' सीखो मान।। पृष्ठ ३५
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'देना' सीखो मान या, 'करना' सीखो मान?
जो 'देते' हो 'दूर' वह, 'करते' 'पास' निदान
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गली-गली में खोलकर, अंग्रेजी स्कूल । पृष्ठ ३५
नौ मात्रिक दूजा चरण, फिर न करें यह भूल
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कर्म आपका आपको, दे जाए सम्मान।
ऐसे क्रिया कलाप से, खींचो सबका ध्यान।। पृष्ठ २६
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सम्मानित है 'आप' पर, 'खींचो' आज्ञायुक्त।
मेल न कर्ता-क्रिया में, शब्द चुनें उपयुक्त।।
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आनेवाले वक़्त का, उसे न था कुछ भान।
जल में उत्तरी नाव फिर, लड़ी संग तूफ़ान ।। पृष्ठ १९
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'नाव' नहीं 'नाविक' लड़े, यहाँ तथ्य का दोष
'चेतन' लड़ता 'जड़' नहीं, लें सुधार बिन रोष
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अब बेटी के वास्ते, हुआ जागरूक देश। पृष्ठ १७
कल बारह-बारह यहाँ, गलती यहाँ विशेष
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खुद को करो समर्थ यह, है उपयुक्त निदान
बनें बेटियाँ शक्तिमय, भारत की पहचान
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चलो ध्यान से बेटियों, कदम-कदम पर गिद्ध।
तुम भी रखकर हौसला, करो स्वयं को सिद्ध ।। पृष्ठ ३६
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'कर्म योग' का उचित है, देना शुभ संदेश
'भाग्य वाद' की जय कहें, क्यों हम साम्य न लेश
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जिसका जितना है लिखा, देंगे दीनानाथ। पृष्ठ ४०
सत्य यही तो कर्म क्यों, कभी करेगा हाथ?
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जिस घर भी पैदा हुई, खुशियाँ बसीं अपार।
बेटी से ही सृष्टि को, मिलता है विस्तार।। पृष्ठ ४०
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अर्ध सत्य ही है यहाँ, बेटे से भी वंश
बढ़ता- संतति में रहे, मात-पिता का अंश
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बेटी से सपने जुड़े, वो है मेरी जान।
जुडी उसे से भावना, वही सुखों की खान ।। पृष्ठ ६६
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अतिरेकी है सोच यह, एकाकी है कथ्य
बेटे-बेटी सम लगें, मात-पिता को- तथ्य
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रगड़-रगड़ कर धो लिए, तन के वस्त्र मलीन।
मन का कैसे साफ़ हो, गंदा जो कालीन ।। पृष्ठ ८०
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बात सही तन-मन रखें, दोनों ही हम साफ़
वरना कभी करें नहीं, प्रभु जी हमको माफ़
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शब्द न कोई भी रहे, दोहे में बिन अर्थ
तब सार्थकता बढ़े हो, दोहाकार समर्थ
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भाषा शैली सहज है, शब्द चयन अनुकूल
पहली कृति में क्षम्य हैं, यत्र-तत्र कुछ भूल
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'तरु' में है संभावना, दोहा ज्यों हो सिद्ध
अधिक सारगर्भित बने, भाव रहें आबिद्ध
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दोहा-'तरु' में खिल सकें, सुरभित पुष्प अनेक
'सलिल' सींच दें 'सुधि' सहित, रख 'संजीव' विवेक
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'तारकेश्वरी' ने किया, सार्थक सृजन प्रयास
बहुत बधाई है उन्हें, सिद्धि बहुत है पास
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अगला दोहा संकलन, शीघ्र छपे आशीष
दोहा-संसद मिल कहे, दोहाकार मनीष ४९
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होती है मुश्किल बहुत, कहना सच्ची बात।
बुरी बनूँ सच बोलकर, लेकिन करूँ न घात।। ।। पृष्ठ ९५
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यही समीक्षक-धर्म है, यथाशक्ति निर्वाह
करे 'सलिल' मत रूठ 'सुधि', बहुत ढेर सी 'वाह'
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समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान,
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ७९९९५५९६१८
ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com

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