कृति चर्चा:
शिखर पर जिजीविषा : कैंसरजयी की संघर्ष कथा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: शिखर पर जिजीविषा, आई एस बी एन ९७८-८१-९३९९२६-६-१, संस्मरण, कुमार मनीष अरविन्द, प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २२.५ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १८४, मूल्य २५०/-, अंतिका प्रकाशन गाज़ियाबाद, रचनाकार संपर्क ३०१ आश्रेया, साईं विहार अपार्टमेंट, अशोक आश्रम डिबडीह, राँची ८३४००२ झारखंड]
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माटी से माटी मिली, उपजी माटी देह।
माटी में माटी मिले, बाँट सभी को स्नेह।।
मनन-चिंतन के स्तर पर देह को माटी कह देना बहुत आसान है किन्तु यही माटी की देह जब दरकती है, चटकती है तब अच्छे-अच्छों के छक्के छूट जाते हैं। सामान्य मनुष्य जीवन को सुख-दुःख की धूप-छाँव में हँस-रोकर इस आशा में व्यतीत कर लेता है कि इसके बाद 'अच्छे दिन आएँगे किंतु जब 'अच्छे दिन' आने का भरोसा ही न रहे तो छोटी सी तकलीफ भी बड़ी लगने लगती है। रहीम कहते हैं-
रहिमन विपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।
अत्यधिक शारीरिक श्रम के कारण १९९४ में 'प्लुरल इफ्यूजन', सड़क दुर्घटनाओं में १९९४, १९९६ व २००० में लंबे समय तक शैयाशायी होने के कारण जानता हूँ कि तुलसी बाबा ठीक ही कह गए हैं -
'धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परिखहहिं चारी'
इन सभी विपदा कालों में मेरी जीवनसंगिनी प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा चट्टान की तरह मेरे और यम के बीच खड़ी रहीं। विषम स्थिति तब आई जब साधना कर्क (कैंसर) रोग की चपेट में आईं और मुझे पैरों तले से जमीन खिसकती लगी। तब समझ सका कि अबला से अधिक सबल कोई नहीं होता और खुद को सबल माननेवाला कितना अधिक निर्बल होता है। परमपिता को कोटि-कोटि धन्यवाद कि येन-केन-प्रकारेण शल्यक्रिया, कीमो- थिरेपी और रेडियोथिरैपी की त्रासद पीड़ा झेलने के बाद साधना को नवजीवन मिला। जब साधना चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से गुजराती होतीं, तब मेरी कलम और जेब में पड़े कागज़ मेरे सम्बल होते। ईश्वर से साधना को निरोग करने की प्रार्थना करता मैं कातरता से बचने के लिए कागज-कलम की शरण में जाता और गीत, मुक्तिका, मुक्तक या कविता मेरे एकांतिक प्रतीक्षा पलों की साक्षी देती।
समीक्ष्य कृति की चर्चा आरंभ करने के पहले यह पृष्ठ भूमि इसलिए कि यह पुस्तक भी कर्क रोग की विभीषिका से जूझते इंसान के अविजित मनोबल और अकथनीय पीड़ा की भाव कथा है। अंतर मात्र यह कि यह रचना रोगी के संगी ने नहीं रोगी ने स्वयं की है यह पद्य नहीं गद्य में है। इन कारणों से कथ्य पूरी तरह तथ्य परक बन पड़ा है। रोगी भारतीय वन सेवा का सजग, कर्मठ अधिकारी है इसलिए वह विषम परिस्थिति का आकलन कर मनोबल को दृढ़ रखने और रोग तथा चिकित्सा की प्रक्रिया व प्रभावों को बेहतर तरीके से समझ सका। कर्क रोग से संघर्ष की यह व्यथा-कथा वस्तुत: मनोबल और जिजीविषा की जय कथा है। रोग शरीर से बाहर, पूर्व की भिड़ंतें, कीमो, रांची में स्वास्थ्य लाभ और बैडमिंटन कोर्ट में वापसी शीर्षक चार अध्यायों तथा योग की भूमिका, कैंसर मेरी समझ में व कवितायें शीर्षक तीन परिशिष्टों में लेखक कुमार मनीष अरविन्द ने बेबाक और प्रवाहपूर्ण भाषा शैली में मानवीय जिजीविषा की पराक्रम कथा कही है।
श्री केदार कानन ने ठीक ही लिखा है "शिखर पर जिजीविषा को पढ़ते हुए आप सिहारेंगे, व्यथित होंगे, आप पीड़ान्तक क्षण को भोगेंगे, कहीं आँखें डबडबा जाएँगी, कहीं आप रुक जाएँगे, क्षणभर के लिए स्तब्ध हो जाएँगे, कहीं दुःख की गहरी अभेद्य और अंधेरी सुरंग में भटकेंगे यह सब होता रहेगा परन्तु आप पुस्तक पढ़ना बंद नहीं कर पाएँगे।" यह सब हुआ मेरे साथ भी। डाल्टनगंज में अखिल भारतीय साहित्य समागम में सहभागिता करते समय उपहार में मिली यह पुस्तक लौटते समय शक्तिपुंज एक्सप्रेस के वातानुकूलित डब्बे में सवेरा होते ही पढ़ना आरंभ किया तो समाप्त किये बिना छोड़ ही नहीं सका।
क्या?, क्यों?, कहाँ?, कैसे? जैसे सवाल मन को मथते रहे और झूले की पेंग की तरह आशा-निराशा के पल आते-जाते रहे। कहीं नायिका के करुण गीत, कहीं जीवटी नायक की जय कथा, कहीं अनपेक्षित बाधा, कहीं अयाचित सहायता, कहीं प्रार्थना, कहीं संभावना, कहीं रुकती श्वास, कहीं जगती आस क्या नहीं है इस संस्मरण कथा में। जिन्हें 'आह से उपजा होगा गान' पर विश्वास न होता हो वे शब्द-शब्द में संकल्प और संघर्ष की जय-जयकार करती इस गद्य कृति को पढ़ें जिसमें पंक्ति-पंक्ति में गद्य गीत की तरह प्रवाह और भाव सलिला की प्रतीति होती है। यह सत्य है की पीड़ा के पलों में अनूठा साहित्य रचना जाता है। स्वराज्य द्वीप की काल कोठरियों में एकांत के पलों में असह्य पीड़ा भोगते अदम्य साहसी क्रांतिधर्मियों की रचनाएँ जिन्होंने पढ़ी हैं, वे भली भांति जानते हैं कि सुख और शांति में रचे साहित्य में आनुभूतिक सघनता और भाव प्रवणता का घनत्व कम हो जाता है।
दशकों बाद इस कृति ने अंतर्मन को झकझोर दिया है। निबिड़ अन्धकार में चट्टानों से टकराती डूबती नौका के नाविक द्वारा किसी ध्रुव तारे को टकटकी लगाकर ताकते हुए किनारे तक लाने की अविश्वनीय साहस-कथा की तरह यह कृति भी चिरस्मरणीय है। प्रति वर्ष लगभग २०० से अधिक पुस्तकें पढ़ने और शताधिक पुस्तकों पर भूमिका व समीक्षा देने के बाद उन्हें याद रखना कठिन होता जाता है किन्तु इस पुस्तक ने मुश्किल यह खड़ी कर दी है कि इसे भुलाना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। पुस्तक चर्चा अधूरी रहेगी यदि राजश्री जी के अहर्निश समर्पण, जिम्मी की अवरुद्ध श्वासों, अक्षय पल्लव के पत्र, तन्नू (आस्था) के कर्म योग माँ-पापा की आस्था और मेदांता के चिकित्सकों की कुशलता का संकेत न किया जाए। इन सब के बारे में लिख तो सकता हूँ पर बेहतर होगी कि आप खुद पढ़ें और जानें।
हिंदी वांग्मय में संस्मरण साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा और पढ़ा गया है। दूरभाष, चलभाष, मुखपोथी (फेसबुक), वाट्स ऐप आदि के क्षणजीवी आभासी काल में जब खतो-किताबत ही डीएम तोड़ रही है तब संस्मरण लिखने और पढ़ने का अवकाश ही किसे है। ऐसी सोच को गलत सिद्ध करते है यह जीवनपयोगी पुस्तक। होना तो यह चाहिए कि हर असाध्य रोग चिकित्सालय में यह पुस्तक रोगियों और स्वजनों के हाथों में रहे और संकट काल में उनका मनोबल और जिजीविषा बढ़ाती रहे। कुमार मनीष अरविन्द कृत इस कृति का बशीर अहमद द्वारा निर्मित आवरण चित्र वह सब अभिव्यक्त कर सका है जिसके लिए इस कृति के रचना हुई है।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४।
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