षडऋतु-दर्शन
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संजीव 'सलिल'
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षडऋतु में नित नव सज-धजकर,
कुदरत मुकुलित मनसिज-जित है.
मुदितकमल सी, विमल-अमल नव,
सुरभित मलयज नित प्रवहित है.
नभ से धरा निहार-हारकर,
दिनकर थकित, 'सलिल' विस्मित है.
'प्रकृति-पुरुष' सुषमा अविजित है.
***
षडऋतु का मनहर व्यापार.
कमल सी शोभा अपरम्पार.
रूप अनूप देखकर मौन-
हुआ है विधि-हरि-हर करतार.
शाकुंतल सुषमा सुकुमार.
प्रकृति पुलक ले बन्दनवार.
शशिवदनी-शशिधर हैं मौन-
नाग शांत, भूले फुंकार.
भूपर रीझा गगन निहार.
निशा, उषा, संध्या हैं मौन-
शत कवित्त रच रहा बयार.
वीणापाणी लिये सितार.
गुनें-सुनें अनहद गुंजार.
रमा-शक्ति ध्यानस्थित मौन-
चकित लखें लीला-सहकार.
शिशिर
स्वागत शिशिर ओस-पाले के बाँधे बंदनवार
वसुधा स्वागत करे, खेत में उपजे अन्न अपार.
धुंध हटाता है जैसे रवि, हो हर विपदा दूर-
नये वर्ष-क्रिसमस पर सबको खुशियाँ मिलें हजार..
बसंत
आम्र-बौर, मादक महुआ सज्जित वसुधा-गुलनार,
रूप निहारें गगन, चंद्र, रवि, उषा-निशा बलिहार.
गौरा-बौरा रति-रतिपति सम, कसे हुए भुजपाश-
ग्रीष्म
संध्या-उषा, निशा को शशि संग देख सूर्य अंगार.
विरह-व्यथा से तप्त धरा ने छोड़ी रंग-फुहार.
झूम-झूम फागें-कबीर गा, मन ने तजा गुबार-
चुटकी भर सेंदुर ने जोड़े जन्म-जन्म के तार..
वर्षा
दमक दामिनी, गरज मेघ ने, पाया-खोया प्यार,
रिमझिम से आरम्भ किन्तु था अंत मूसलाधार.
बब्बा आसमान बैरागी, शांत देखते खेल-
शरद
चन्द्र-चन्द्रिका अमिय लुटाकर, करते हैं सत्कार,
बाँटा-पाया, जोड़-गँवाया, कोरी ही है चादर-
काया-माया-छाया का तज मोह, वरो सहकार..
हेमन्त
खुशियों के पल नगद नहीं तो दे-दे दैव उधार.
गदराई है फसल, हाय मुरझाई मेरी प्रीत-
नियति-नटी दे भेज उन्हें, हो मौसम सदा बहार..
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बिन नागा सूरज उगे सुबह ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
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अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
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संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
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ढाई आखर पढ़े बिन पढ़े, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिटे, बचे हम ही हम, जब-जब खेले बैत..
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जीत हार में, हार जीत में, पायी हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो सके, सबकी अबकी साल..
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5 टिप्पणियां:
आ हा हा हा हा हा - एक साथ सभी ऋतुओं का दर्शन करवा दिया आपकी कविता ने आचार्य जी, पढ़कर मन आनंदित हो गया ! इस सारगर्भित रचना के लिए दिल से साधुवाद !
मन के आनंद को शब्दों में समेटना अभी तो संभव नही 'सलिल ' जी.
प्रकृति के पल पल ,मौसम मौसम बदलते रूप- श्रिगार को बड़े ही मनोहारी ढंग से प्रस्तुत किया है आपने..धन्यवाद :)
bahut khubsurat man bhawan
षडऋतु में नित नव सज-धजकर,
कुदरत मुकुलित मनसिज-जित है.
इतने सारे लघु वर्ण............ भई वाह|
सच ही तो है कि तजुर्बे का पर्याय नहीं|
Aapke dwara rachit kavita padh kar kakcha 9-10 ki wo kavitaye yaad aa gai jinki rachna desh ke agraz kaviyo athwa kavitriyo ne kiya hai.Muzhe aapki kavita unse kisi mayne mein kam nahi lagi,maaf kijiyega main tulna nahi karna cjahata, balki aapki kavita padhne ke uprant barbas ye soch mere man mein aayi|
Bahut Bahut Dhanyabad,
Bijay Pathak
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