''नियति न्यास''
१. कवि-मनीषी
साधना संकल्प करने को उजागर
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.
अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी.
*
२. पथ-प्रदर्शक
मूल्य के आख्यानकों को कंठगत कर
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.
कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.
पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक.
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३. उपेक्षा
वसंत की तीव्र तरल
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.
नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.
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४. कुण्ठा
अस्पताल के पीछे
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.
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५. शोध
अनेक शोधों के अश्चत
शोध-मिश्रण निर्मित
मैं एक विटाप्लेक्स.
चाँदी के चमकते
चिप्पडों में बंद
केमिस्ट की शाला के
शेल्फ प् र्पदी
उत्सुक जानने को
अपनी एक्सपायरी डेट.
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६. शिष्टता के मानदंड
गीतांजलि एक्सप्रेस
रिजर्वेशन
बर्थ रिजर्वेशन
सुपर चार्ज
बॉम्बे कांग्रेस
मिशन-मीट
क्रिसमस इन बॉम्बे
एक्स्ट्रा कोच
फोर्टी टु फिफ्टी
एलोटमेंट
कम्पार्टमेंट में.
मिस्टर घोष एंड पार्टी-
यस, दिस इज माई सीट.
नो, दैट इज माइन.
भाग-दौड़
टी.टी.ई. समवेत उद्घोष
'चलिए! समय हो गया
सीट छोड़ दीजिये.
खेद, जड़ता,
आक्रोश, स्वार्थपरता
अव्यवस्थितचित्तता,
बस, ये ही रहे
आज की शिष्टता के मान दंड....
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७. उपक्रम
वर्णमाला से वृक्ष
शिशिर में सिमटे
हिम की मार से
और खर-शर-विद्ध पत्र
विदा ले रहे तरु से.
भय से भयातुर वृक्ष
मौन ऋषि से खड़े
जानने को उत्सुक
और पाने को वर
खड़े खोल रहे शतमुख.
मधु संचार से पा रहे
कोमल मसृण कोंपलें
वसंत की, मत्त ग्रीष्म
ऊर्जा से ये पादप
पाने को जीवन्तता
नई वसुधा बसाने को.
बस यही क्रम
जो चलाता
इस जीवन को-
रजनी-दिवस, साँझ और प्रात
ग्रीष्म-वर्षा, शीत-वसंत
अवसाद-आल्हाद
मृत्यु और जीवन.
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८. काव्य प्रलाप
विद्या मन्दिर मेंआसनगत मित्र से उत्तर मिला-
अद्यतन परिप्रेक्ष्य में
काव्य बंग भोगी का-
अंक गणित, ज्यामिति,
त्रिकोण अथवा और कुछ.
गोपन उद्घोष क्लांत
भोजन-वस्त्र-आवास
काव्य-सृष्टि गौड
और मूल प्रश्न-
जीवन -यापन
जटिल से जटिलतर
की भावे चालानों जावे नीजे-नीजे संसार
एइ जीवनेर बड़ भाग्य
एइ जिजीविषार गभीर प्रश्न
एइ जीवनेर आलाप
एइ जन मानुषेर प्रलाप.
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९. विक्षिप्तता
अलीपुर के
मुद्राभवन का सिंहद्वार
डायमण्ड हार्बर का जनपथ -
विक्षिप्तता का आवास.
विक्षिप्तता- नाम से लक्ष्मी
डायमण्ड की दीपिका
सरकारी कारिंदे ने
अपहृत कर उसकी भूमि
कर दिया थ निर्वासित
वही आज बनी है- विक्षिप्तता.
उसके पति-नारायण का
छः मॉस पूर्व अपहरण.
विक्षिप्तता की, विभ्रम की
चरमावस्था;
हाय! हाय!
एक करुण
कथा के साथ
विक्षिप्तता का
बस-प्रवेश.
कुछ क्षण पश्चात्
टिकिट! टिकिट!
हाय! नारायण कहाँ आई?
चल हट, महावीर तल्ला.
हाय! हाय!
महावीर महाबली हनुमान,
त्रेता की सीता के उद्धारक!
आज कलि के नर-नारायण
अपहृत, निरुद्देश्य.
वे थे शेषशायी
ये हैं पथशायी.
सहस्त्र दलस्थ थे वे
पर्ण-पथशायी ये.
बली महावीर-
तुमसे आशाएं अनेक
कारण- तुम्हारी अपेक्षा
नर-नारायण श्री राम ने की,
क्योंकि तुम
नर नहीं वानर थे-
कितने सजग आस्थावान
कृतज्ञ, स्वामिभक्त, विश्वासपात्र
जिनकी छाया से
आज का मानव अति दूर-
वंचित-प्रवंचित
प्रताड़ित-उपेक्षित.
चतुर्दिक
वाह! वाह! के घोर
अट्टहास,
पर मध्य में हाय! हाय! के
असहाय स्वर की
अबाध अनुगूँज.
मात्र नब्बे घटिकाओं के
करुण क्रंदन पश्चात्
नारायण की खोज में
विक्षिप्त लक्ष्मी भी अपहृत.
एक सज्जन के
आग्रह पर दैनिकी की अनुगूँज-
एका अर्ध वयसा
मध्योच्च गौरी
नामोच्चार लक्ष्मीति अभिहिता
त्रिदिवस पूर्वे अपहृता
संधान-
बली महावीर
मिसिंग परसंस स्क्वेड,
भवानी भवन, कोलकाता.
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१०. गंतव्य
कर्कश ध्वांक्ष नील
धूमिल आकाश
सप्तमी के शिरस्थ
कृष्णपक्षीय
चन्द्रमा का तिरोधान.
छ्या के कंकाल दो
खड़कती खिडकियों पर
प्रत्यूष के तिमिर पुत्र
प्रातः मध्यान्ह गोधूली में
निमज्जित
अट्टहास गर्जन को प्रस्तुत
प्रकृति के प्रांगण में.
प्रेतात्मा, काल अथवा मृत्यु!
वृक से विकराल
तीव्रता से तीव्र
अंडज, पिंडज
ऊष्म्ज, स्थावर
या जंगम के अबाध पे=राशन.
युग्म कंकाल अदृश्य
नगर के निर्विवाद
कोलाहल के सडांध से.
निद्रा स्वप्न शनैः-शनैः
गंतव्य की ओर
कवि का लोक
आलोकित-
सुरभित नवलोक तुमुल
हास और कृन्दनयुक्त,
पर काल कि विभीषिका
मात्र एक प्रश्न से आक्रांत
सदय मत्स्य न्याय
नीर-क्षीर-विवेक
प्रेमालिंगन
नपुन्सन पुंसन वा.
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११. संचय कीट
धरती की कोख को
चीरकर तुम्हारा वह
छोटा सा सृष्टि-बीज
दर्शन को उत्सुक
बलवती इच्छा-आकांक्षा से
उल्लास लिए पनपा
पल्लवित-पुष्पित हुए
फल के भार से तुम
सदा झुकते रहे.
आदान-प्रदान का रहस्य जान
अनवरत कर्ण-हरिश्चंद्र जैसे
फल-दान करते रहे,
पर दैव योग से
वर्षा, ग्रीष्म, शीत की विषमता
वा संचय प्रवृत्ति-आग्रह की
अपेक्षा की तुमने.
अपने कृपणता बरती-
फलों पर स्वायत्तता
की मुहर लगा दी.
तब उन्हीं फलों के
कीटाणुओं ने शरीर में
प्रवेश कर तुम्हारी
नित्यता समाप्त कर दी.
अतः, पूर्व जन्म में
यह न भूलोगे कि
ग्रहण वा संचय का
अर्थ है कल्याणार्थ
अनवरत उपयुक्त दान
वरन संचय के
दुर्भेद्य कीटाणु
तुम्हारे व्यष्टि ही नहीं
अपितु सारी सृष्टि का
संहार कर बसायेंगे
नई वसुंधरा
करने को नई सृष्टि
विश्व का नव निर्माण
जगत की अबाधता की
स्थापना को जिसमें स्पष्ट
मात्र स्थिर-स्थापित
चिरंतन नैसर्गिक रहस्य.
ग्रहण वा संचय का
अर्थ है कल्याणार्थ
अनवरत उपयुक्त दान,
वरन संचय के
दुर्भेद्य कीटाणु
तुम्हारे व्यष्टि ही नहीं
अपितु सारी सृष्टि का
संहार कर बसायेंगे
नई वसुंधरा
करने को नई सृष्टि
विश्व का नव निर्माण
जगत की अबाधता की
स्थापना को जिसमें स्पष्ट
मात्र स्थिर-स्थापित
चिरन्तन नैसर्गिक रहस्य.
*****************************
१२. उन्मेष
अभाव के कोटर में साधन-विहीन
कालांतर से बैठा निरुद्देश्य जन
ढोता रहा अबाध
अतीत के रोदन प्रलाप
दुर्निवार काल कर्कशता-
जनित विषाद.
आशा के डिम्ब से
संतोष के रसायन प्रलेप
कर्म-साधना की ऊष्मा
और जिजीविषा की
शक्ति से संचालित
सरसे यह जीवन.
हरने को अवसाद
नव प्रात से सँजोया मन
खिले रस मिश्रित
उस मधुमय वसंत से
झंझावात शक्तिहीन सौरभ संपन्न मन
नाचे मयूंर उस मधुश्री की छाँव में.
जन-मन की शक्ति से
भागे भयजनित भीति
उठे वह वर्ग जो
पड़ा है शताब्दियों से.
समाज की कठोरता से
पीड़ित-प्रकंपित, प्रताड़ित-उपेक्षित
अभिशप्त-परित्यक्त.
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१३. चिर पिपासु
चिरन्तन सत्य के बीच
श्रांति के अवगुंठन के पीछे
चिर प्रतीक्षपन्न निस्तब्ध
निरखता उस मुकुलित पुष्प को
और परखता उस पत्र का
निष्करुण निपात
जिसमें नव किसलय के
स्मिति-हास की परिणति
तथा रोदन के आवृत्त प्रलाप.
निदर्शन-दर्शन के आलोक
विकचित-संकुचित
अन्वेषण-निमग्न
निरवधि विस्तीर्ण बाहुल्य में
उस सत्य के परिशीलन को.
निर्विवाद नियति नटी का
रक्षण प्रयत्न महार्णव मध्य
उत्ताल तरंग-आड़ोलित
उस पत्रस्थ पिपलिक का.
मैं एकाकी
विपन्न विक्षिप्त स्थिर
अन्वेक्षणरत
भयंकर जलप्राप्त के समक्ष
चिर पिपासु मौन-मूक
ऊर्ध्व-दृष्ट निहारता
अगणित असंख्य
तारक लोक, तारावलि
जिनके रहस्य
अधुनातन विज्ञानं के परे
सर्वथा अज्ञात
अस्थापित-अनन्वेषित.
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१५. विवेक
मेरा परिचय-
मैं विवेक
पर अब मैं कहाँ?
चल में, न अचल में,
न तल में, न अतल में,
या रसातल-पटल में.
मेरा आवास रहा
मानव के मन की
मात्र एक कोर में.
मन, चित्त-अहंकार की
साधना बन
सबको सचेतन की
अग्नि में तपाकर
स्फूर्त होता मुखर बन
वाणी के जोर से.
मानव से उपेक्षित
परित्यक्त मैं रहता.
कहाँ सूक्ष्म अभिजात्य
मेरा प्रवेश फिर कैसे
मनुज को मानव बनाये?
जब किरीट का अकली
परीक्षित से
मुक्तिबोध की
याचना करे;
पर मनुज का परीक्षित
कुत्सित हो दंभ साढ़े
मौन व्रत का
आव्हान करता मानव से.
फिर मेरा आवास
क्या पूछ रहे?
मानव की कुंठा से
मैं चिर प्रवासी विवेक
गृह-स्कन्ध स्वर्ण के
पैरों तले कभी का
कुचला, अंतिम साँसें
लेने को मात्र
जीता रहा.
मानव की जिजीविषा से
केवल सूक्ष्मता को
धारण किये वरन
में नहीं, कहीं भी नहीं
सब कुछ है पर
मेरा सर्वस्व पारदर्शी
कहीं कुछ में नहीं
न होने को जिसे
तुम देख रहे हो-
वह है विज्ञानं.
अब कोइ राम आये
विरति की सीता
और विवेक के जटायु को
दशमुख के
दमन-चक्र से बच्ये
जो दशरथ की
शुचिता की
पाखंड-सृष्टि करता.
सीता तो भूमिगत
श्रृद्धा-विश्वास जड़,
पर सहृदयता की
गरिमा का जटायु
चिन्न-पक्ष आज्हत
पड़ा मुक्ति के सुयोग की
प्रतीक्षा में, हे राम!
अमिन तुम्हारा कृपा-भाजन
विवेक.
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१६. विज्ञानं
मैं हूँ, केवल मैं
भू लोक से अन्तरिक्ष तक
मात्र मेरा प्रसार
पद तल भूगोल
कर-तल आकाश
यश के गीत
मन के भाव
युद्ध और शांति
काल और क्रांति
अस्त्र-शस्त्र छद्मवेश
विविध ब्रम्हास्त्र
अग्निशर प्रक्षेपक
शोणित का तर्पण
व्यथा विश्व की बढ़ाने को-
त्रास, भय, ह्रास
मुमूर्षा और विथकन.
पर दृष्टि-भेद से
ऋषि सा अवधूत
मेरी पताका कीर्ति
यत्र-तत्र-सर्वत्र
विविध तकनीकी प्राचुर्य-
अनु, ऊष्मा, औषध
प्रजनन, प्रत्यारोपण
भूगर्भ, अर्णव, अन्तरिक्ष
शिक्षा का माध्यम
गति-अनुगति का प्रेरक
केशर,गुलाब से
पुष्पित वसुधा तल
वायु के बिखरने को
सुरभि प्रसार
यही मेरे रचना विधान.
विश्व के नियामक
नए प्राण, नई स्फूर्ति
चेतना नव्या, कायाकल्प
भावगम्य, भव्य
अनादी पुरुष जर्जर
पर नव्या के
नूतन श्रृंगार से
वसुधा बसाने को
मैं हूँ, केवल मैं-
विज्ञान.
अक्षरशः सत्य
विज्ञानं देव और सुनें-
सुना उद्घोष स्वर
एक दिव्य वाणी का-
देवाधिदेव विज्ञानं
सक्षम प्रशांत-
बुद्धि के त्यौहार
देवलोक के चीत्कार,
क्षुब्ध खिन्न मलिन
और भय से भयातुर
हैं स्वर्ग के सम्राट.
मात्र केवल एक प्रश्न-
आशंका आपतन की.
यह क्या विज्ञान देव,
या कहें पिशाच देव,
कह लें धर्मराज या
यम कहें मन से?
वृत्ति सात्विक शमित
घोर तामस के तमिस्र में
सब कुछ सर्वत्र रहा
आश्रित विज्ञानं के.
मानव की महान यात्रा
लोक चंद्रलोक से
गतिमय मंगल की ओर.
देव दानव युद्ध में
कल और छल ले
नय और नीति से
दानव विजित पर
मानव-देव युद्धरत
घोर कलिकाल में.
सारे देव वर्ग के
रखे रह जायेंगे
कौतुक अपार वे
विजय होगी स्वप्न
पर मानव से मुक्ति
नहीं देवों के वश में.
नर-सुर संग्राम में
देवता पराजित हैं
अपराजेय मानव से.
फलतः, देव वर्ग आज
मानव का क्रीतदास
जीता सर्वहारा बन.
मनु-संतानों की इन्गिति पर
बना दारु योषित
फिर भी मन-वाणी से
भूरि-भूरि प्रस्तुत आशीष को.
घोर रावानात्व ने
पोषित मनुजत्व से
कर दी समाप्त मर्यादा
रामत्व की.
मुहुर्मुहुर अट्टहास-
निर्वासित त्रेता के राम
द्वापर राम निःशस्त्र
कलकीराम काल के रहे
कल्पित, उपेक्षित अज्ञात.
गीता के सुघोष
मूक स्वर में
विज्ञानं शमित
ऐसे सुने जाते
छोड़ धर्म-कर्म सारे
नीति नय अस्त्र-शस्त्र
हो प्रपन्न कर ग्रहण
प्रनत-पाल विज्ञान.
पाप-पुण्य मुक्त हों
अहि से अहल्या
पुष्प वृष्टि हो रही
दुन्दुभि के उच्च स्वर
सरगम के माध्यम से
शंकर के डमरू से
मात्र ये विवेक श्रुत
स्वस्ति देव! स्वस्ति
तवास्तु विज्ञानं देव!
कृष्णार्पण, कृष्णार्पण
**********************
१७. युव सेनानी
शक्तिधर देश कोई
शत्रु बन दल-बल
युद्ध की भयानक
विभीषिका ले उतरे
भूमि पर भयानक
दुकाल आ पसर जाए
अथवा विभीषक
प्रदूषण रोग आ धमके.
देश का अजस्र शक्ति
धारित युव सेनानी
हाथ पट हाथ धरे
बैठा रह जाएगा.
निर्भय रण दुन्दुभी से
वैरी दस्यु सम जान
अतुलित पराक्रम में
शीघ्र जुट जाएगा.
रुकने का नाम कभी
जान क्या सका है वह?,
लड़कर वैरी से
उसके छक्के
छुडाएगा.
छोड़ेगा अजस्र शक्ति का
वह अमोघ अस्त्र
भय से भयानक
कपाली बन जाएगा.
सारी शत्रु सेना का
दल-बल मान मर्दित कर
यश-ख्याति अर्जित
देश-भक्त कहलायेगा.
किंचित दशा में वह
असफल अपने को जान
जीवित मृतक बन
नाक न कटाएगा.
बनकर तूफ़ान मेघ
चिरचिरी की ज्वाला बन
सबको मिटाकर वह
आप मिट जाएगा,
यह्व स्वातंत्र्य-वेदिका पर
प्राण अर्पित कर
देही बिन देह हो
सदेह स्वर्ग जाएगा.
********************
१८. नियति-न्यास
जनन के व्यापार अगणित
क्यों मरण व्यापार?
संध्या सुषमा, अलख जीवन
हास प्रातः चिर अशाश्वत
जनन अगणित अंत फिर-फिर
रक्त नीलम, अश्रु-छादन
मरण के व्यापार
क्यों जनन व्यापार?
कहाँ हैं वे प्राण-व्यान,
अपान और उड़ान
कह सामान कहाँ रहे वे
राजहठ आक्रांत?
मलिन, दूषित, तृषित मन यों
पीड़, क्षुब्ध, मलीन
ऋषि-मनीष, महर्षि-योगी
भोग के ही सीम.
देव-दानव गर्जना का
घोर हाहाकार
रक्तपात निपात मानव
निहत-आहत साथ
नटी कृष्णा सुख-सुरभि से
लिए प्रत्याहार
दीन मानव शक्ति साधक
बन सबल समुदाय.
ले रही वह न्यास यों ही
नियति के उस पार
मन विशन्न तृषित क्षुधित
अधीर आठों याम.
नित नवीन प्रबुद्ध मानव
कर सप्रीत विकास
हेतु मन की लालसा
पर मात्र केवल ह्रास.
ऊर्ध्व गति का लास ले
मानव अनुक्षण धीर
बन रहा अनवरत साधक
निष्ठ विपुल प्रकृष्ट.
पर सदा बनकर पराजित
काल के यों हाथ
मृत्यु से कैसे बचे
निर्मुक्त हो निष्काम.
*************************
१९. अर्पिता
मेरे पति कि दूरी मुझसे बहुत दूर
पर वे हैं मेरे पास निकट छाया से.
जीवन दोनों का प्रवासमय
मैं केरल की हूँ प्रवासिनी कलकत्ता में
वे केरल के पर प्रवास उनका सुदूर
अति मध्यपूर्व में.
मन भर आता, गद-गद होता
आँखें भरतीं, आँसू ढलते
स्नेह छलक कर मोती बनते
नहीं चाहिए ऐसे मोती
बहुरूपी बन करें प्रवंचित
अमित स्नेह-श्रद्धा से अर्पित
प्रेम हमारा जन्म-जन्म का
सदा सनातन.
बदले जब भी जीर्ण कलेवर
बानी रहूँ मैं सदा पुजारिन
उनका मेरा जन्म-जन्म का
साथ सदा है और रहेगा
स्नेह और श्रद्धा से अर्पित,
सदा समर्पित
बनी रहूँ मैं सदा सुहागिन
सदा पुजारिन अपने पति की.
****************
२४. प्रस्तर खंड
हे कालदूत! तुम शिला-खण्ड
निरवधि असीम भीषण प्रचण्ड
चिरकाल निरंतर देवदूत
प्रसारित दिगंत के जड़ अखण्ड
पाताल मूल धृत भूमंडल
अम्बुधि आलोड़ित निर्भय बन.
शरचंड मरुत के वायुवेग
झंझा झकोर धर
मेघ मालिका के खरशर सह
शंतिदांस ए वृष्टि सुधा सम
कर अजस्र जल.
सागर कि उत्त ऊर्मी से
मर्दित घर्षित
जगती-विहास सागर-प्रलाप को
आत्मसात कर
सृष्टि नियति का ध्यान
कराते कर्मठतावश.
कहीं मेखला बन भू की
विकसित विशाल चट्टान सुदृढ़
जीवन-जल से, जीव-जन्तु से
गुल्म-वृक्ष से, विविधौषध से
करते तुम जग का पालन.
जाग्रत सुषुप्त तुम बने एक
तव एकाकी जीवन महान
करते तप-चर्या निशि-वासर
बन समय शिला के दूत काल.
****************************
3 टिप्पणियां:
राजीव रंजन प्रसाद …
प्रभावी रचनायें।
अनन्या …
भाषा प्रसंशनीय है। आज की कविता में एसी सधी हुई भाषा नहीं पढने को मिलती है।
प्रसाद गुण संपन्न इन रचनाओं का भाषा सौष्ठव, शब्द चयन, सटीक बिम्ब विधान नव रचनाकारों तथा स्थापितों दोनों के लिये विचारणीय और अनुकरणीय है.
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