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सोमवार, 13 दिसंबर 2010

प्रो सत्य सहाय श्रीवास्तव के प्रति श्रृद्धा-सुमन : संजीव 'सलिल'

प्रो सत्य सहाय श्रीवास्तव के प्रति श्रृद्धा-सुमन :
संजीव 'सलिल'
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षट्पदी
मौत ले जाती है काया, कार्य होते हैं अमर.
ज्यों की त्यों चादर राखी, निर्मल बुन्देली पूज्यवर!
हे कलम के धनी! शिक्षादान आजीवन किया-
हरा तम अज्ञानका, जब तक जला जीवन-दिया.
धरा छतीसगढ़ की ऋण से उऋण हो सकती नहीं.
'सलिल' सेवा-साधना होती अजर मिटती नहीं..
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चतुष्पदियाँ / मुक्तक
मन-किवाड़ पर दस्तक देता, सुधि का बंदनवार.
दीप जलाये स्मृतियों के, झिलमिल जग उजियार.
इस जग से तुम चले गये, मन से कैसे जाओगे?
धूप-छाँव में, सुख-दुःख में, सच याद बहुत आओगे..
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नहीं किताबी शिक्षक थे तुम, गुरुवत बाँटा ज्ञान.
शत कंकर तराशकर शंकर, गढ़े बिना अभिमान..
जीवन गीता, अनुभव रामायण के अनुपम पाठ-
श्वास-श्वास तुम रहे पढ़ाते, बन रस-निधि, रस-खान..
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सफल उसी का जीवन, जिसका होता सत्य-सहाय.
सत्य सहाय न हो पाये तो मानव हो निरुपाय..
जो होता निरुपाय उसीका जीवन निष्फल जान-
स्वप्न किये साकार अनेकों के, रच नव अध्याय..
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पुण्य फले तब ही जुड़ पाया, तुमसे स्नेहिल नाता.
तुममें वाचिक परंपरा को, मूर्तित होते पाया..
जटिल शुष्क नीरस विषयों को सरस बना समझाते-
दोष-हरण सद्गुण-प्रसार के थे अनुपम व्याख्याता..
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तुम गये तो शून्य सा मन हो गया है.
है जगत में किन्तु लगता खो गया है..
कभी लगता आँख में आँसू नहीं हैं-
कभी लगता व्यथित हो मन रो गया है..
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याद तुम्हारी गीत बन रही,
जीवन की नव रीत बन रही.
हार मान हर हार ग्रहण की-
श्वास-आस अब जीत बन रही..
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अश्रुधारा से तुम्हें तर्पण करेंगे.
हृदय के उद्गार शत अर्पण करेंगे..
आत्म पर जब भी 'सलिल' संदेह होगा-
सुधि तुम्हारी कसौटी-दर्पण करेंगे..
***** तुम थे तो घर-घर लगता था.
हर कण अपनापन पगता था..
पारस परस तुम्हारा पाकर-
सोया अंतर्मन जगता था..
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सुधियों के दोहे
सत्य सहाय सदा रहे, दो आशा-सहकार.
शांति-राज पुष्पा सके, सुषमा-कृष्ण निहार..
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कीर्ति-किरण हनुमान की, दीप्ति इंद्र शशि सोम.
चन्द्र इंदु सत्य सुधा, माया-मुकुलित ॐ..
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जब भी जीवन मिले कर सफल साधना हाथ.
सत-शिव सुंदर रचें पा, सत-चित-आनंद नाथ..
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सत्य-यज्ञ में हो सके, जीवन समिधा दैव.
औरों का कुछ भलाकर, सार्थक बने सदैव..
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कदम-कदम संघर्ष कर, सके लक्ष्य को जीत.
पूज्यपाद वर दीजिये, 'सलिल'-शत्रु हो मीत..
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महाकाल से भी किये, बरसों दो-दो हाथ.
निज इच्छा से भू तजी, गह सुरपुर का पाथ..
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लखी राम ने भी 'सलिल', कब आओ तुम, राह.
हमें दुखीकर तुम गये, पूरी करने चाह..
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शिरोधार्य रह मौन हम, विधि का करें विधान.
दिल रोये, चुप हों नयन, अधर करें यश-गान..
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सद्गुरु बिन सुर कर नहीं, पाये 'सलिल' निभाव.
बिन आवेदन चुन लिया, तुमको- मिटे अभाव..
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देह जलाने ले गये, वे जिनसे था नेह.
जिन्हें दिखाया गेह था, करते वही-गेह..
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आकुल-व्याकुल तन हुआ, मन है बहुत उदास.
सुरसरि को दीं अस्थियाँ, सुधियाँ अपने पास..
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आदम की औकात है, बस मुट्ठी भर राख.
पार गगन को भी करे, तुम जैसों की साख..
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नयन मूँदते ही दिखे, झलक तुम्हारी नित्य.
आँख खुले तो चतुर्दिक, मिलता जगत अनित्य..
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