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गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

कविता: मैत्रेयी / प्रति कविता: संजीव 'सलिल'

कविता:

 
मैत्रेयी
 maitreyi_anuroopa@yahoo.com 
*
फिर आज
लिखने लगी है यह कलम
कुछ शब्द...
कुछ नाकारा
कुछ अर्थहीन
कुछ ऊलजलूल
कुछ भटकते हुए
कुछ उलझते हुए
और कुछ ऐसे
जिनमें
सोचा था मैने
लिपटा होगा
मेरा अभिप्राय
और समझ सकोगे तुम
वह सब
जो लपेट नहीं पाये
यह शब्द
सदियाँ बीतने के बाद भी
ये अजनबी आकार
सोच रही हूँ
कलम से निकलने के बाद
मैं भी
क्यों नहीं पहचानती
इन्हें.
तुम्हारे पास
है क्या उत्तर ?
*
प्रति कविता:                                                                       

संजीव 'सलिल'
*
हाँ,
मुझे ज्ञात हैं
उन प्रश्नों के उत्तर,
जो
तुम्हारे लिये अबूझे हैं
या यूँ कहूँ कि
तुम्हारे अचेतन में होते हुए भी
तुम्हें नहीं सूझे हैं.
ऐसा होना
पूरी तरह स्वाभाविक है.

जब भी कोई
बनी बनायी लीक को
छोड़कर चलता है,
ज़माने की रीत-नीत को
तोड़कर पलता है ,
तो उसे सभ्यता के
तथाकथित ठेकेदार

कुछ नाकारा
कुछ अर्थहीन
कुछ ऊलजलूल
कुछ भटकते हुए
कुछ उलझते हुए
पाते और बताते हैं.

कलम से उतरे शब्द
सदियाँ बीतने के बाद भी
सदियों पहले के
मूल्यों और मानकों को
अंतिम सच मान बैठे हैं.
जो समय के साथ चलेगा
उसे ये शब्द
अजनबी ही लगेंगे.
शुक्र है कि तुम
इन्हें नहीं पहचानतीं.
*************

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