ग़ज़ल: एक परिचय
संजीव 'सलिल'
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ग़ज़ल - उर्दू का एक सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-रूप है जो मूलतः अरबी से आया है. ग़ज़ल स्त्रीलिंग शब्द है जिसकी व्याख्या है 'सुखन अज़ जनान गुफ्तन' अर्थात औरतों की बातें या ज़िक्र करना'. अरबी में ग़ज़ल की उत्पत्ति लघु प्रेमगीत 'तशीब' या 'कसीदे' से तथा फारसी में गज़ाला-चश्म (मृगनयनी) अर्थात महबूब / महबूबा से वार्तालाप से मान्य है. इसलिए 'नाज़ुक खयाली' (हृदय की कोमल भावनाएँ) ग़ज़ल का वैशिष्ट्य मानी गयीं. सूफियों ने महबूब ईश्वर को मानकर आध्यात्मिक दार्शनिक ग़ज़लें कहीं. कालांतर में क्रांति और सामाजिक वैषम्य भी ग़ज़लों का विषय बन गये. ग़ालिब ने इसे 'तंग गली' और 'कोल्हू का बैल' कहकर नापसंदगी ज़ाहिर की लेकिन उनकी ग़ज़लों ने ही उन्हें अमर कर दिया. उनकी श्रेष्ठ(?) रचनाएँ क्लिष्टता के कारण दीवानों (संकलनों) में ही रह गयीं.
ग़ज़ल के २ प्रकार मुसलसल ग़ज़ल (जिसके सभी शे'र एक-दूसरेसे संबद्ध हों) तथा गैर मुसलसल ग़ज़ल (जिसका हर शेर अपने आपमें स्वतंत्र और अलग विषय पर हो) हैं.
मिसरा = कविता की एक पंक्ति, एक काव्य-पद.
मुरस्सा ग़ज़ल = मानकों के अनुरूप पूरी तरह से अलंकृत ग़ज़ल को मुरस्सा ग़ज़ल कहते हैं.
मिसरा ऊला / मिसरा अव्वल = शे'र की पहली पंक्ति.
मिसरा सानी = शेर की दूसरी /अंतिम पंक्ति.
शे'र = शाब्दिक अर्थ जानना, जानी हुई बात, उर्दू कविता की प्राथमिक इकाई, दो मिसरों का युग्म, द्विपदी. बहुवचन अश'आर (उर्दू), शेरों (हिंदी). शे'र की दोनों पंक्तियों का हमवज्न / समान पदभार का होना ज़रूरी है. सुविधा के लिये कह सकते हैं कि दोनों की मात्राएँ (मात्रिक छंद में) अथवा अक्षर (वर्णिक छंद में) समान हों. सार यह कि कि दोनों पंक्तियों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान हो. शे'र को फर्द या बैत भी कहते हैं.
शायर = जाननेवाला, कवि.
बहर = छंद. आहंग (अवरोह) के लिहाज़ से शब्दों की आवाज़ों के आधार पर तय किये गये पैमाने 'बहर' कहे जाते हैं.
बैत = एकमात्र शे'र.
बैतबाजी = किसी विषय विशेष पर केन्द्रित शे'रों की अन्त्याक्षरी.
रदीफ़ / तुकांत = शेरों के दूसरे मिसरे में अंत में प्रयुक्त अपरिवर्तित शब्द या शब्द समूह, बहुवचन रदाइफ़ / पदांतों. ग़ज़ल में रदीफ़ होना वांछित तो है जरूरी नहीं अर्थात ग़ज़ल बेरदीफ भी हो सकती है. देखिये उदाहरण २.
काफिया / पदांत = शे'रों के दूसरे मिसरे में रदीफ़ से पहले प्रयुक्त एक जैसी आवाज़ के अंतिम शब्द / अक्षर / मात्रा. बहुवचन कवाफी / काफिये. ग़ज़ल में काफिये का होना अनिवार्य है, बिना काफिये की ग़ज़ल हो ही नहीं सकती.
वज्न = वजन / पदभार. अरबी-फ़ारसी बहर के आधार पर उर्दू काव्य में लय विशेष की प्रमुखता के साथ निश्चित मात्राओं के वर्ण समूह को वज्न कहते हैं. काव्य पंक्ति के अक्षरों को रुक्न (गण) की मात्राओं से मिलाकर बराबर करने को वज्न ठीक करना कहा जाता है. ग़ज़ल के सभी अश'आर हमवज्नी (एक छंद में) होना अनिवार्य है.
तक्तीअ / तकतीअ = छंद-विन्यास / शाब्दिक अर्थ टुकड़े करना. हिंदी में गण तथा उर्दू में रुक्न के आधार पर किया जाता है.
रुक्न (गण) = पूर्व निश्चित मात्रा-समूह. जैसे- फ़अल, फ़ाइल, फ़ईलुन, फ़ऊल आदि, हिंदी के जगण, मगन, तगण की तरह. बहुवचन अर्कान/अरकान.
उर्दू के छंद प्रायः मात्रिक हैं, उनमें एक गुरु (दीर्घ) के स्थान पर दो लघु आना जायज़ है. संस्कृत की तरह उर्दू में भी गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है किन्तु इसे सामान्यतः नहीं अपवाद स्वरूप ज़रूरी तथा उपयुक्त होने पर ही काम में लाना चाहिए ताकि अर्थ का अनर्थ न हो. देखिये उदाहरण ३.
उदाहरण:
१.
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम.
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई..
आखिरे-शब् के हमसफर 'फैज़' न जाने क्या हुए.
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई..
यहाँ 'गई' रदीफ़ है जबकि उसके थी पहले 'बदल' और 'निकल' कवाफी हैं.
गजल का पहला शे'र शायर अपनी मर्जी से रदीफ़-काफिया लेकर कहता है, बाद के शे'रों में यही बंधन हो जाता है. रदीफ़ को जैसा का तैसा उपयोग करना होता है जबकि काफिया के अंत को छोड़कर कुछ नियमों का पालन करते हुए प्रारंभ बदल सकता है. जैसे उक्त शेरों में 'बद' और 'निक'. जब काफिया न मिल सके तो इसे 'काफिया तंग होना' कहते हैं. काफिये-रदीफ़ के इस बंधन को 'ज़मीन' कहा जाता है. कभी-कभी कोई विचार केवल इसलिए छोड़ना होता है कि उसे समान ज़मीन में कहना सम्भव नहीं होता. अच्छा शायर उस विचार को किसी अन्य काफिये-रदीफ़ के साथ अन्य शे'र में कहता है. जो शायर वज्न या काफिये-रदीफ़ का ध्यान रखे बिना ठूससमठास करते हैं कमजोर शायर कहे जाते हैं.
२. बेरदीफ ग़ज़ल- हसन नईम की ग़ज़ल के इन शे'रों में सिर्फ काफिये (बड़े, लड़े, पड़े) हैं, रदीफ़ नहीं है.
यकसां थे सब निगाह में, छोटे हों या बड़े.
दिल ने कहा तो एक ज़माने हम लड़े..
ज़िन्दां की एक रात में इतना जलाल था
कितने ही आफताब बलंदी से गिर पड़े..
३.
गुलिस्तां में जाकर हरेक गुल को देखा.
न तेरी सी रंगत, न तेरी सी बू है..
बहर के अनुसार
गुलिस्तां में जाकर हर इक गुल को देखा.
न तेरी सि रंगत, न तेरी सि बू है..
मतला = ग़ज़ल का पहला शेर, मुखड़ा, आरम्भिका. इसके दोनों मिसरों में रदीफ़-काफिया या काफिया होता है. कभी-कभी एक से अधिक मतले हो सकते हैं जिन्हें क्रमशः मतला सानी, मतला सोम, मतला चहारम आदि कहते हैं. उस्ताद ज़ौक की एक ग़ज़ल में मय रदीफ़ १० मतले हैं.
हुस्ने-मतला = मतला या मतला-ऐ-सानी के बाद का शे'र हुस्ने-मतला कहते हैं.
दो गज़ला = किसी ग़ज़ल में मतला के शे'र १७ हों तथा उसके और फिर अन्य शे'र हों तो उसे दो गज़ला कहते हैं. इसी प्रकार 'सिह गज़ला, चहार-गज़ला भी होते हैं.
शाहबैत = ग़ज़ल के सबसे अच्छे शे'र को शाह्बैत या फर्द कहते हैं.
मकता / मक्ता = ग़ज़ल का अंतिम शे'र जिसमें 'शायर का 'तखल्लुस' (उपनाम) होना जरूरी है, अंतिका. मकटाविहीन ग़ज़ल को 'बेमकता ग़ज़ल' कहते हैं. देखिये उदाहरण १.
४. पहले कभी-कभी शायर मतले और मकते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग करते थे.
जो इस शोर से 'मेरे' रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा. -मतला
बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आँसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा. - मकता
ग़ज़ल में आम तौर पर विषम संख्या में ५ से ११ तक शेर होते हैं लेकिन फिराक गोरखपुरी ने १०० शे'रों तक की ग़ज़ल कही है. ग़ज़ल में जुफ्त (सम) संख्या में शे'र होने को एक काव्य-दोष कहा गया है. अब तो २०००, ३००० शेरों की गज़लें (?) भी कही जा रहीं हैं. आरम्भ में ग़ज़लों में एक मिसरा अरबी तथा दूसरा फारसी का होता था. ऐसी कुछ गज़लें अमीर खुसरो की भी हैं.
रेख्ती = ग़ज़ल का एक रूप जिसमें ख्यालात व ज़ज्बात औरतों की तरफ से, उन्हीं की रंगीन बेगमाती जुबान में हो.
दीवान = ग़ज़ल संग्रह.
ज़मीन = ग़ज़ल का बाह्य कलेवर अर्थात छंद, काफिया, रदीफ़.
तरह = मिसरे-तरह = वह मिसरा जिसके छंद, काफिये और रदीफ़ की ज़मीन पर मुशायरे के सभी शायर ग़ज़ल कहते हैं. तरह के आधार पर हुए मुशायरे को तरही मुशायरा कहते हैं.
गिरिह / गिरह = किसरे-तरह को मिसरा-ए-सानी बनाकर अपनी ओर से पहला मिसरा लगाना. यह शायर की कुशलता मानी जाती है.
तखल्लुस = उपनाम. कभी असली नाम का एक भाग, कभी बिलकुल अलग, प्रायः एक कभी-कभी एक से अधिक भी.
तारीख़ = किसी घटना पर लिखा गया ऐसा मिसरा जिसके अक्षरों के प्रतीक अंकों को (हर अक्षर का मान एक संख्या विशेष है) जोड़ने पर उस घटना की तिथि या साल निकल आये. इसके लिये शायर का जानकार और कुशल होना बहुत जरूरी है.
५. चकबस्त की मृत्यु पर उनके एक शायर मित्र ने शे'र कहा-
उनके मिसरे ही से तारीख़ है हमराहे-'अज़ा'
'मौत क्या है इन्हीं अजज़ा का परीशां होना.
अज़ा = ७८, दूसरा मिसरा = १२६६ योग = १३४४ हिज़री कैलेण्डर में चकबस्त का मृत्यु-वर्ष.
हज़ल = ग़ज़ल के वज़न पर मगर ठीक उल्टा. ग़ज़ल में भाव की प्रधानता और शालीनता प्रमुख हज़ल में भाव की न्यूनता और अश्लीलता की हद तक अशालीनता.
हजो = ग़ज़ल में कसीदाकारी (प्रशंसा) के स्थान पर निंदा या मजाक हो तो उसे 'हजो' कहते हैं.
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 13 दिसंबर 2010
ग़ज़ल: एक परिचय : संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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6 टिप्पणियां:
भई वाह!
मजा आ गया.
एक ही जगह पर इतनी सारी जानकारी मिल गई। आचार्य जी को कोटिशः धन्यवाद।
संजीव जी,
धन्यवाद,
संजीव वर्मा जी आपका जवाब नहीं इतना विस्तार से सब सरल तरीके से समझाया है,
तरही मुशायरा भी एक अच्छा कदम है हर कवी को, शायर को कुछ नया सिखने को मिल जाता है
महत्वपूर्ण जानकारी के लिए फिर से धन्यवाद
सुरिन्दर रत्ती
मुम्बई
इस लेख को पढ़ समझ लिया जाये तो जानकारी मुकम्मल हो जायेगी
,संपूर्ण ज्ञान !!!
इसे साझा करने के लिये सलिल जी को नमन है!!!
आचार्य सलिल जी!
बहुत बहुत आभार आपका जो इस चर्चा को पूर्णता की तरफ बढ़ाया|
भाई अरुण और डी. के. का भी आभार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए|
अब तसल्ली हो गयी कि प्रश्नों का उत्तर यहाँ मिल सकेगा सभी को|
सलिल जी का विशेष विशेष आभार इतने सुंदर और ज्ञान वर्धक आलेख के लिए| भाई योगराज जी मेरे से इत्तेफ़ाक रखेंगे कि क्यूँ इन जैसे व्यक्तियों की कमी खलती है किसी भी आयोजन में|
नवीन भाई जी, मैं आपकी बात से पूर्णतय: सहमत हूँ कि आचार्य सलिल जी की उपस्थिति सदैव हम सब में एक नई ऊर्जा का संचार करती है तथा इनकी अनुपस्थिति हम सब को बहुत खलती है !
अत्यंत ज्ञानवर्धक जानकारी ग़ज़ल के रूप स्वरूप भाव भंगिमा पर, साधुवाद ।
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