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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

गीत: जब - तब ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत :
गीत: जब - तब ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'
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जब अक्षर का अभिषेक किया,
तब कविता का दीदार मिला.
जब शब्दों की आराधना करी-
तब गीतों का स्वीकार मिला.
 

जब छंद बसाया निज उर में
तब भावों के दर्शन पाये.
जब पर पीड़ा अपनी समझी-
तब जीवन के स्वर मुस्काये.
 

जब वहम अहम् का दूर हुआ
तब अनुरागी मन सूर हुआ.
जब रत्ना ने ठोकर मारी
तब तुलसी जग का नूर हुआ.
 

जब खुद को बिसराया मैंने
तब ही जीवन मधु गान हुआ.
जब विष ले अमृत बाँट दिया
तब मन-मंदिर रसखान हुआ..
 

जब रसनिधि का सुख भोग किया,
तब 'सलिल' अकिंचन दीन हुआ.
जब जस की तस चादर रख दी-
तब हाथ जोड़ रसलीन हुआ..




जब खुद को गँवा दिया मैंने,

तब ही खुद को मैंने पाया.
जब खुदी न मुझको याद रही-
तब खुदा खुदी मुझ तक आया.. 
********************

6 टिप्‍पणियां:

mridul kirti ने कहा…

mridul kirti
जगत का अभिसार जड़तापूर्ण तो, अंत अंतस ज्ञान ही सुख-सार है.
जब या तब अब तीन कालों का यथा, बेध ही तो बोध का आगार है.

pratibha_saksena@yahoo.com ने कहा…

आ. सलिल जी ,
आपकी लेखनी को नमन करती हूँ !
- प्रतिभा

Manju Gupta ने कहा…

आप की लेखनी की मैं दीवानी हूँ .बहुत उत्कृष्ट रचनाएं हैं ..

M VERMA ने कहा…

M VERMA :

अभिषेक किया जब अक्षर का
तब कविता का दीदार हुआ
और भी
जब खुद को बिसराया मैने
तब ही जीवन मधुगान हुआ.
रसमय होने के लिये रसलीन होना जरूरी है
बिना खुद को बिसराये भला मधुलीन कैसे हुआ जा सकता है
रसयुक्त बाते
रसमय बना दिया

कविता रावत ने कहा…

कविता रावत :

अभिषेक किया जब अक्षर का
तब कविता का दीदार हुआ
जब छंद बसाया निज उर में
तब कविता के दर्शन पाए
........आचार्य जी! कितने सहजता से आप पते की बात कहा जाते हैं ....
भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु आभार

Divya Narmada ने कहा…

जब कविता का सन्देश मिला, तब ही कवि को संतोष हुआ.
शब्दाक्षर की शुभ संस्कृति का, दस दिश में अब जयघोष हुआ..