
संजीव 'सलिल'
दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार.
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार..
प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार.
तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार..
बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार.
बिन मन के तन को नहीं, कोई करे स्वीकार..
दोनों क्षणभंगुर मगर, करते प्रीत पुनीत.
होती देह विदेह तब, जब मिल गाते गीत..
सुर होता यदि बेसुरा, याकि भंग हो ताल.
एक-दूजे को दोष दें, दोनों पाल मलाल..
केवल तन से ही नहीं, हों आत्मिक सम्बन्ध.
केवल मन से ही नहीं, हों प्राणिक अनुबंध..
तन-मन हैं रथ-सारथी, दोनों का सहयोग.
नर-नारी ले सकें- हो, 'सलिल' सफल उद्योग..
पुण्य-पाप से परे है, प्रकृति का व्यापार.
हमने खुद ही रच लिया, मनचाहा आचार..
भावनाएँ होतीं प्रबल, कामनाएँ बलवान.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, रहते बस इंसान..
कर्म न किंचित नीच यदि, हो सहमति से मित्र.
लालच-भय करते इसे, दूषित औ' अपवित्र..
सिर्फ एक या कई से?, यह है लोकाचार.
उचित कभी अनुचित कभी, करिए 'सलिल' विचार..
अपनी-अपनी दृष्टि है, अपनी-अपनी सोच.
जड़ता संभव है नहीं, आवश्यक है लोच..
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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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