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गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

गीतिका: मीत तुम्हारी राह हेरता. ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत

मीत तुम्हारी राह हेरता...

संजीव 'सलिल'

*

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

सुधियों के उपवन में तुमने

वासंती शत सुमन खिलाये.

विकल अकेले प्राण देखकर-

भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये.

चाह जगा कर आह हुए गुम

मूँदे नयन दरश करते हम-

आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

मन बौराये, तन भरमाये..

मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

मन ही मन में तुम्हें टेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में

तुम्हें खोजकर हार गया हूँ.

बाहर खोजा, भीतर पाया-

खुद को तुम पर वार गया हूँ..

नेह नर्मदा के निनाद सा

अनहद नाद सुनाते हो तुम-

ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया!

पार न पाकर पार गया हूँ.

ताना-बाना बुने बुने कबीरा

किन्तु न घिरता, नहीं घेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*****************

दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट,कॉम

5 टिप्‍पणियां:

अरुणेश मिश्र ने कहा…

प्रशंसनीय।

Navin C. Chaturvedi ने कहा…

"नव गीत: मीत तुम्हारी ...":

simply beautiful:

गिरीश पंकज ने कहा…

\:" नव गीत: मीत तुम्हारी राह हेरता... ... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

hamesha ki tarah fir ek sundar, bhav-pravan geet parh kar man prafullit ho gaya.

Udan Tashtari … ने कहा…

वाह! बहुत सुन्दर गीत...हेरता शब्द का प्रयोग अद्भुत रहा!!

Dr. Smt. ajit gupta … ने कहा…

सलिल जी अच्‍छा गीत है।