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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

रासलीला : संजीव 'सलिल'

रासलीला :

संजीव 'सलिल'

*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.

झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.

कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.

अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.

नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.

खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.

कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.

सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.

चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.

अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.

भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.

कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?

पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?

कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?

क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?

कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.

जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?

ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?

थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?

अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?

कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?

कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?

कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.

भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?

द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?

कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?

अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.

नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.

आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.

अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.

कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.

मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.

रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.

रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.

रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.

रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.

रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.

रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..

रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.

राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
साधिका सब को नचातीं जाँचती थीं. 

'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

1 टिप्पणी:

M VERMA ने कहा…

गजब की रासलीला --- शब्दों की, भावों की
मरूस्थल में मधुमास देखा
वाह
M VERMA