दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
ख़बरदार कविता: सानिया-शोएब प्रकरण: संजीव 'सलिल'
छोड़ एक को दूसरे का थामा है हाथ.
शीश झुकायें या कहों तनिक झुकायें माथ..
कोई किसी से कम नहीं, ये क्या जानें प्रीत.
धन-प्रचार ही बन गया, इनकी जीवन-रीत..
निज सुविधा-सुख साध्य है, सोच न सकते शेष.
जिसे तजा उसकी व्यथा, अनुभव करें अशेष..
शक शंका संदेह से जहाँ हुई शुरुआत.
वहाँ व्यर्थ है खोजना, किसके क्या ज़ज्बात..
मिला प्रेस को मसाला, रोज उछाला खूब.
रेटिंग चेनल की बढ़ी, महबूबा-महबूब.
बात चटपटी हो रही, नित्य खुल रहे राज़.
जैसे पट्टी चीरकर बाहर झाँके खाज.
'सलिल' आज फिर से हुआ, केर-बेर का संग.
दो दिन का ही मेल है, फिर देखेंगे जंग..
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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6 टिप्पणियां:
sunny: good poem
NICE
सलिलजी,
अच्छे दोहों को आपने दोहा है।
सानिया और शोयेब का प्रकरण हास्यास्प्रद ही है।
आपने ठीक लिखा है-
कोई किसी से कम नहीं, ये क्या जानें प्रीत.
धन-प्रचार ही बन गया, इनकी जीवन-रीत..
शक शंका संदेह से जहाँ हुई शुरुआत.
वहाँ व्यर्थ है खोजना, किसके क्या ज़ज्बात..
सानिया किस मजबूरी में है , वही जाने । शायद सही शाट नहीं मार पाने या उस विषयक सही निर्णय न ले सकने के कारण वह हमेशा चढ़चढ़कर फिसलती रही है
इन दोहो में अवरोध था। शब्द आगे पीछे कर के मैं इनके साथ सुविधापूर्वक बह सका
मिला मसाला प्रेस को ,रोज उछाला खूब.
रेटिंग चेनल की बढ़ी, महबूबा-महबूब.
आशा है अन्यथा नहीं लेगे
रेवा का ख्याल रखते हुए कभी मेरे ब्लाग में भी दर्शन देंगे
बहुत बढ़िया
waah! क्या बात है, दिल खुश कर दिया
dhanyavad
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