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रविवार, 25 अप्रैल 2010

नवगीत: निधि नहीं जाती सँभाली...... --संजीव 'सलिल'

नव गीत:
संजीव 'सलिल'
*
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
छोड़ निज जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों सी चढ़ रही हैं.

चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..


तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*

भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?

जिस्म की कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
**********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

41 टिप्‍पणियां:

mcgupta44@gmail.com ने कहा…

सलिल जी,


निम्न विशेष सुंदर लगे--


चाह लेने की असीमित-

किन्तु देने की कंगाली.

पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,

निधि नहीं जाती सँभाली...


जिस्म की कीमत बहुत है.

रूह की है फटेहाली.

पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,

निधि नहीं जाती सँभाली...

--ख़लिश

Divya Narmada ने कहा…

bahut-bahut dhanyavad.

gautam_rajrishi@yahoo.co.in ने कहा…

आचार्य संजीव जी को नमन,
एक लाजवाब नव-गीत गुरूवर! अपनी तो हैसियत भी नहीं कि आपकी रचना पर कुछ टिप्पणी कर सकूँ। आज एक अंतराल के बाद आपसे पुनः संवाद स्थापित हो पा रहा है तो एक शक का निदान चाहता था।

"निधि नहीं जाती संभाली" के संदर्भ में आपकी टिप्पणी ने सहज ही बता दिया कि आचार्य फिर आचार्य ही हैं। किंतु एक शंका पैदा हुई तो सोचा कि इसी प्लेटफार्म पर निवारण हेतु रखा जाये। बोलचाल के दौरान व्याकरण के आधार पर भी हम यूं तो कहते ही हैं कि "इस पीढ़ी ने निधि को संभाले रखा है" या फिर यूं भी कि "एक पूरी पीढ़ी निधि संभाले हुये है"...ये दोनों वाक्य व्याकरण के हिसाब से सही हैं या नहीं?
तो जब "निधि नहीं जाती" से ही पूरे वाक्य का जेंडर स्पष्ट हो रहा है तो फिर "जाती" के साथ ही दुबारा "संभाली" रखना कितना जरूरी है?

सादर
-गौतम

Divya Narmada ने कहा…

आत्मीय!
मैं तो भाषा का सामान्य छात्र मात्र हूँ. ऐसी जिज्ञासाएँ सामने लाकर विद्वानों से मार्गदर्शन पाता हूँ. रूपया नहीं सम्हाला जाता... राशि नहीं सम्हाली जाती... रुपये को नहीं सम्हाला जाता... राशि को नहीं सम्हाला जाता.... हम दोनों एक ही बात कह रहे हैं कि ये चारों रूप सही हैं. क्रिया के लिंग परिवर्तन में कारक 'को' की भूमिका है.

पुनश्च: आपको नवगीत पसंद आया तो मेरा कवि कर्म सार्थक हो गया.

Shakuntala Bahadur ने कहा…

विश्व जब सोया पड़ा था , जागता था देश अपना,

ज्ञान वेदों का दिया तब,मिला सबको दिव्य सपना।
अवनि पर सबसे पुरानी,संस्कृति जानी गयी जो,
आज भूली जा रही है,देश में अपने वही क्यों ?
सभ्यता-संस्कृति विदेशी,वेष-भूषा सब निराले,
पीढ़ियाँ अक्षम हुयी हैं,निधि नहीं जाती सँभाले।।
** ** **
-शकुन्तला बहादुर

सतयुग,त्रेता,द्वापर में , विकसी इस युग में आयी,
गौरवान्वित हो पुरखों से,जग में सुकीर्ति भी पायी।
पश्चिम से आँधी आयी , पूरब में वो आ छायी ,
बदला सब कुछ इस युग में,पश्चिम की संस्कृति भायी।
निज भाषा,सुवेष,व्यंजन, संस्कृति आज भुला डाले।
पीढ़ियाँ अक्षम हुयी हैं , निधि नहीं जाती सँभाले ।।
** ** **

शकुन्तला बहादुर

सुधी मित्रजन! एक ही भाव को दो तरह से भिन्न शब्दों में कहने
के लिये क्षमा करें।लिख गया था तो भेज ही दिया।

--श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा…

पीढियाँ अक्षम हुयी हैं,निधि नहीं जाती संभाले

गुरु, मनीषी, ज्ञान परिपूरित, विचक्षण,
तम मिटा, लाये उजाले

होम कर सर्वस्व अपना,

घोर दुःख के, पयद टाले

जन्म जन्मान्तर संयोजित,
वह ज्ञान निधि धूमिल पड़ी है

पीढियाँ अक्षम हुयी हैं,

निधि नहीं जाती संभाले

है अपेक्षित तरुण ही,

इस देश के नायक बनेगे

शीश धर संस्कृत सनातन,
कलुष के सायक बनेगे

पर उन्हें जकड़े हुए हैं

पच्छिमी वो व्याल काले

पीढियां अक्षम हुईं हैं,

निधि नहीं जाती संभाले

पर मेरा विश्वास अविचल,

नित नये अंकुर उगें

मूल्य रग रग में समाहित

जो गये, सदियों से पाले

मत कहो तारुण्य है तपहीन, तेजस-क्षीण,

और भूले से कभी भी मत कहो

पीढियाँ अक्षम हुयी हैं

निधि नहीं जाती संभाले

भीष्म लेटे बाण शैया,

ज्ञान की गंगा बहाते

और अगणित पार्थ भू को

छेद, जलनिधि, अवनि लाते

पुरुषार्थ, शक्ति और धृति:

पीढियाँ कर के हवाले

पीढियाँ सक्षम अभी भी,

निधि रखेंगे हम संभाले

--श्रीप्रकाश शुक्ल

2010/4/13 Rakesh Khandelwal

gautam rajrishi ने कहा…

आज पहली बार अपनी कोई रचना यहाँ रख रहा हूँ आप सब दिग्गजों के समक्ष। राकेश जी द्वारा दी हुई पंक्ति के हवाले से। अनूप भार्गव जी का भी हुक्म था कि अपनी कोई रचना डालूँ यहाँ। लेकिन हिम्मत नहीं पड़ रही थी...फिर भी दुस्साहस कर रहा हूँ। वैसे भी इस हरी वर्दी ने "दुस्साहस" को दूसरी आदत बना डालने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है।

शब्द सारे खो गये हैं, है कलम किसके हवाले
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाते संभाले

मूक हैं, निःशब्द हैं
अक्षरों के काफ़िले
ढ़ूंढ़ती संवेदना
लेखनी के सिलसिले

पोथियों पर है घनेरे मकड़ियों के सब्ज जाले
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती संभाले

टिमटिमाती कौंधती
रौशनी इक दिख रही
फिर किताबों का समय
आयेगा इक दिन सही

ये तिमिर कब तक रहेगा, लौट आयेंगे उजाले
एक पीढ़ी होगी सक्षम, निधि रखेगी जो संभाले

शार्दुला ने कहा…

मकड़ियों के सब्ज जाले ? :)
टिमटिमाती और कौंधती रोशनी ? :)

एक पक्के शब्द और किताबों के प्रेमी की तरह लिखी है आपने कविता.
"ये तिमिर कब तक रहेगा, लौट आयेंगे उजाले" ! .... सत्य वचन महराज!

सस्नेह-शुभाशीष,
शार्दुला

महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश ने कहा…

पीढियाँ अक्षम हुई हैं, न निधि जाती संभाले

है अंधेरा, ज्ञान के सूखे पड़े हैं आज प्याले

राह पुरखों की कठिन थी किंतु मंज़िल भी मिली थी
आज की पीढी कहे क्यों हम सहें बिन बात छाले

सात्विक व्यवहार करना था बुज़ुर्गों ने सिखाया
आचरण अब तामसिक है, कर रहे हैं हाथ काले

पेट काटा, धन कमाया, सुख संजोए संतति को

धन लुटाते देख निगले बाप अब कैसे निवाले


पूर्वजों ने कर तपस्या, जो धरोहर थी कमाई
आज ठोकर पे युवक जाते उसे हँस कर उछाले

न इसे भाए है संस्कृत , संस्कृति हो गई विदेशी
इस नई पीढ़ी को अब कैसे ख़लिश कोई संभाले.

शार्दुला ने कहा…

आदरणीय ख़लिश जी,
"है अंधेरा, ज्ञान के सूखे पड़े हैं आज प्याले"--- सुन्दर!!
जाने क्यों ज्ञान के प्याले पढ़ते ही सुकरात की याद आ गई!
सादर शार्दुला

kamal ने कहा…

वह सभ्यता वह संस्कृति-युग ले रहा अंतिम उसाँसें
वेद पुराणों उपनिषदों की भाषायें अब कौन बाँचें
सत्यम, शिवम्, सुन्दरम का भाव विस्मृति के हवाले !
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !
दिग्भ्रमित मन को मसीहा आ कोई तम से निकाले !

गाँव फैले दूर तक, दुःख-दर्द सबका जानते
बहुमंजिलों वाले पड़ोसी को नहीं पहचानते

किस कसौटी पर खरी यह आधुनिकता उतरती
दीपक तले के अंधेरों में डूबती रहती उबरती
यक्ष प्रश्न बने हुए हैं ये अँधेरे ? या उजाले ?
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

shardula ने कहा…

आदरणीय कमल जी,
आप जब भी लिखते हैं..शिद्दत से लिखते हैं... बहुत सुन्दर कविता!

शार्दुला ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
बहुत, बहुत सुन्दर और सामयिक!
सादर शार्दुला

शार्दुला ने कहा…

आदरणीया शकुन्तला जी,

पहला बंद बहुत सुन्दर है !

सादर शार्दुला

बेनामी ने कहा…

अस्मिता के सत्व के अस्तित्व के सब प्रश्न टाले
घोर तम की पैरवी मैं काट कर फैंके उजाले
दंभ कुंठा का हलाहल रक्त में घुलने लगा है
पीढियां अक्षम हुयी हैं निधि नहीं जाती संभाले
मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द'

शार्दुला ने कहा…

आदरणीय मदन जी,

"दंभ कुंठा का हलाहल रक्त में घुलने लगा है"--- ओह!
विचारणीय सुन्दर रचना!

सादर शार्दुला

--श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा…

सलिल जी ,
सुन्दर रचना I निम्न पंक्तियाँ रुचिकर लगीं इ
पूर्वजों ने कर तपस्या, जो धरोहर थी कमाई
आज ठोकर पे युवक जाते उसे हँस कर उछाले
बधाई
सादर,
श्रीप्रकाश

बेनामी ने कहा…

achal verma
युग तो बदला ही करते हैं , कलियुग भी जाएगा |
हर बारह के बाद एक फिर से अवश्य आयेगा |
मौसम , जीवन, समय,राह, क्या रुक पाते हैं |
रात है केवल तबतक ,जबतक सूरज ना आयेगा |
हरयुग का है समय सुनिश्चित, हम तब क्यों घबराएं |
बादल हैं ,वर्षा भी होगी , हरियाली छाएगी |
ये सच है हर बार बरसते नहीं कभी ये बादल,
गरज गरज के ही ये बदली भी तो छांट जायेगी |
जो पहुचे हैं आज उंचाई पर , नीचे आयेंगे |
जो नीचे पहुंचे हैं खाई में, वे ऊपर जाएँगे |
यही प्रकृति का नियम बंधुओं,कभी रहे हम ज्ञानी,
लड़ने लगे जभी आपस में , बने महा अज्ञानी |
पर कुच्छ लोग यहाँ ऐसे हैं , अब भी समझ न पाते ,
उन्हें दिखाई बस देता, हैं पश्चिम में विज्ञानी |
जो अंधे हैं , आँख नहीं दे पाए उन्हें कोई भी ,
पर जो हैं जग गए जगत में , उनसबने ही मानी |
अब है बदल रहा जग , करवट लेने की ऋतू आई ,
अक्षम से सक्षम हो जाने की है हमने ठानी ||
निधियां भले गवांई हमने , वापस भी लायेंगे ,
करवट बदल रहा है अब युग , हम सब ने है जानी ||
Your's ,

Achal Verma

आनंदकृष्ण ने कहा…

anandkrishan@yahoo.com

waah waah...... chha gaye aap....

saadar-

आनंदकृष्ण, जबलपुर
मोबाइल : 09425800818
http://hindi-nikash.blogspot.com

महेश चन्द्र द्विवेदी ने कहा…

mcdewedy@gmail.com

साधुवाद शार्दुला जी. अति उपयुक्त शब्दावली सहित गेय कविता.

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

Rakesh Khandelwal दो रचनायें प्रेषित कर रहा हूँ.



१. पीढियाँ अक्षम हुईं हैं, निधि नहीं जाती संभाले



चाहे जितनी बार अपनी डुगडुगी को हम बजायें

चाहे कितनी बार हम आक्षेप रह रह कर लगायें

चाहे कितनी बार हम उंगली उठा संकेत देकर

दोष की गाथा भरी चादर यही लाकर उढ़ायें

पी रहे हैं आज पश्चिम के अँधेरे, आ उजाले

पीढियाँ अक्षम हुईं हैं, निधि नहीं जाती संभाले



जी रहे हैं सभ्यता का नाम ले जिस ज़िन्दगी को

साक्षी,स्मृतियों,श्रुति से जोड़ करके दिल्लगी को

कुमकुमों की रोशनी में काल के रथ को समेटे

मानते उपहास केवल आस्था को, बदगी को

और करके प्रीति के सम्बन्ध के घोषित दिवाले

पीढियाँ अक्षम हुईं हैं, निधि नहीं जाती संभाले



किन्तु निर्णय आज के से ही उगेगा सूर्य कल का

रोशनी बिखरायेगा नव,चीर अम्बर का धुंधलका

कर रहे हैं आज दृढ़ विश्वास की मेरे जड़ों को

दलदलों में से उभर कर फूल आयेगा कमल का

और झुठला जायेंगे यह सोच, कल मेरे जियाले

पीढियाँ अक्षम हुईं हैं निधि नहीं जाती संभाले



कल उड़े जो आस लेकर गुनगुनी कुछ धूप पायें

एक मुट्ठी छांह ले आकाश की सपने सजायें

लौट कर आने लगे पंछी वही अब उपवनों में

ले नये संकल्प मरुथल को सपन मधुवन बनायें

तो कहाँ संभव अधर से शब्द यह जायें निकाले

पीढियाँ अक्षम हुईं हैं, निधि नहीं जाती संभाले





पंथ से भटके हुए फिर पांव आये हैं डगर पर

शीश फिर झुकने लगे हैं आस्था की चौखटों पर

गूँजने फिर से लगीं हैं मंत्र की ध्वनियाँ स्वरों में

भावना के मूल्य आने लग गये सम्मुख उमड़ कर

आज संभव लग रहा, कल वाक्य यह नव अर्थ पा ले

पीढियाँ अक्षम हुईं हैं निधि नहीं जाती संभाले



-----------------------------------------------------------------------------------------

२. है अडिग विश्वास मैं उत्तीर्ण होता ही रहूँगा


लो परीक्षा चाहे जितनी तुम मेरे विश्वास की प्रिय
है अडिग विश्वास मैं उत्तीर्ण होता ही रहूँगा

अर्चना के दीप की लौ चाहे जितनी थरथराये
पंथ हर पग पर स्वयं ही सैंकड़ो झंझा उगाये
द्रष्टि के आकाश पर केवल उमड़ते हों बगूले
और चारों और केवल चक्र वायु सनासनाये

डगमगा कर राह भटके पंथ में मैं शैल-दृढ़ता
के नये कुछ बीज हर पग संग बोता ही रहूँगा

आस की हर इक कली पर पतझरी आ रोष बिखरे
होंठ की हर प्यास पर जलती हुई दोपहर निखरे
आचमन का नीर बाकी रह न पाए आंजुरी में
मन्त्र अधरों के कँवल छूते हुए दस बार सिहरे

अग्नि नभ से हो बरसती तो उसे आलाव कर के
मैं स्वयं तप कुन्दनों की भाँति होता ही रहूँगा

हो विलय जाएँ हथेली की सभी रेखाएं चाहे
एक पल के भी लिए खुल पायें न हो बंद द्वारे
पर्वतों के श्रंग से लेकर तलहटी सिन्धु की तक
शून्य में डूबी हुई निस्तब्धता सब कुछ सँवारे

मैं प्रफुल्लित अंकुरों की चिर निरंतर साधना ले
प्राण को निष्ठाओं में पल पल पिरोता ही रहूँगा

नाम ले परिवर्तनों का छायें कितने भी कुहासे
संस्कृतियों के शिविर में पल रहें हो अनमना से
पीढियां अक्षम न अपनी रत्नानिधियों को संभालें
ज्योति की किरणें बिछुड़ने सी लगें लगने विभा से

मैं भ्रमित आभास के हर बिम्ब का विध्वंस करके
इक नये विश्वास का संकल्प बोता ही रहूँगा

--

बेनामी ने कहा…

achal verma
पीढियां चलती रहीं हैं और चलती जायेंगी .
अक्षम होंगी ये कभी,गिर के सम्हल भी जायेंगी|
हमने इनके वास्ते क्या क्या किया , मत सोचिये
ये नियति की चाल है सब, वही सब सिखलाएगी

Divya Narmada ने कहा…

आ० अचल जी,
लगता है Font की समस्या हल न हुई और आप जो कहना चाहते थे पूरा न कर सके पर जितना भी आपने लिखा वह भविष्य की आशाओं को जगाता और विश्वास बढाता है कि समय में यह क्षमता हैं कि वह परिवेश को अपने अनुरूप
ढाल ले|सुन्दर आशावादी प्रस्तुति के लिये बधाई !

madanmohanarvind@gmail.com ने कहा…

शार्दूला जी,
मेरा मन तो पहली चार पंक्तियों में ही अटक गया.
अति सुन्दर.
मदन मोहन 'अरविन्द'

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय श्रीप्रकाश जी

बहुत सुन्दर शब्द समन्वय. सुन्दर कविता !

सादर प्रताप

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय खलिश जी
विसंगतियों पर सुन्दर प्रहार !
सादर
प्रताप

मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द' ने कहा…

Madan Mohan Sharma

अस्मिता के सत्व के अस्तित्व के सब प्रश्न टाले
घोर तम की पैरवी मैं काट कर फैंके उजाले
दंभ कुंठा का हलाहल रक्त में घुलने लगा है
पीढियां अक्षम हुयी हैं निधि नहीं जाती संभाले

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय मदन मोहन जी
सुन्दर बंद !
सादर प्रताप

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय गौतम जी
एक सुन्दर, संवेदनशील कविता !
सादर प्रताप

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी
सदा की तरह ही एक सुन्दर रचना !
सादर
प्रताप

कमल ने कहा…

sn Sharma

पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,निधि नहीं जाती सम्हाले

वह सभ्यता वह संस्कृति-युग ले रहा अंतिम उसाँसें
वेद पुराणों उपनिषदों की भाषायें अब कौन बाँचें
सत्यम, शिवम्, सुन्दरम का भाव विस्मृति के हवाले
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

गुरुजनों माता पिता के लिये आदर भाव कितना ?
पुण्य सलिला सुरसरि का शेष प्रभाव-बहाव कितना ?
मिट रही हैं दिव्य-शक्तियां खो रहे संस्कार पाले !
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

तानसेन व बैजू बावरे के राग गाता कौन अब
ढोल, मृदंग सितार या वीणा बजाता कौन अब
अब रही फुर्सत कहाँ वे राग छेड़े स्वर निकाले !
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं ,निधि नहीं जाती सम्हाले !

कवि कविता का स्वर्ण-काल था जो उसको भूला समाज
पन्त, प्रसाद, महादेवी का युग अब आता किसको याद
"रभरी दुःख की बदली" की पीर सम्हलती नहीं सम्हाले
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

व्यक्ति-वाद, उपभोक्तावाद और विश्व-बाजारवाद
इन सब पर कुंडली मार बैठा कैसा आतंकवाद
दिग्भ्रमित मन को मसीहा आ कोई तम से निकाले
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

आर्थिक प्रतिस्पर्धा सूचना प्राद्योगिकी की प्रखरता
कहीं गरीबी बेरोज़गारी पर उच्च वर्ग सम्पन्नता
सम्पति तो है अकूत फ़ैली सही बंटवारे के लाले
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले

गाँव फैले दूर तक ,दुःख दर्द सबका जानते
बहुमंजिलों वाले पड़ोसी को नहीं पहचानते
फूल वातावरण खोया गड़ रहे जो शूल पाले !
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

किस कसौटी पर खरी यह आधुनिकता उतरती
दीपक तले के अंधेरों में डूबती रहती उबरती
यक्ष प्रश्न बने हुए हैं ये अँधेरे ? या उजाले ?
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले !

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय कमल जी
बहुत ही सुन्दर काव्य सौष्ठव ! शब्द और भावों का सुन्दर समन्वय !
सादर
प्रताप

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीया शकुन्तला जी
बहुत सुन्दर !
सादर
प्रताप

ahutee@gmail.com ने कहा…

प्रिय राकेश,
आपकी तो दोनों ही रचनाएं एक से एक बढकर| अपनी पुरानी कविता फिर याद आ गई -
दहकते अंगार बरसाते रहो,
स्वर्ण हूँ तप कर स्वयं
एक दिन कुंदन बनूँगा
भस्म कर दो सृष्टि को तुम
प्राण हूँ मैं संचारित हो
पुनः नंदनवन बनूगा
ध्वंस पर निर्माण का संकल्प ले
मैं विजय अभियान के
सोपान पर चढ़ता रहूँगा
तमस से लड़ता रहूँगा !
आपने अपनी कविताओं में समस्या के दोनों पक्षों को बड़ी कुशलता से सँवारा है और आशावाद का सन्देश दिया है| मेरी शुभ कामनाएं!
कमल

shukla_abhinav@yahoo.com ने कहा…

ज्ञान के कारागृहों में दंभ के मुस्तैद ताले,
भवन की ऊँची छतों पर रूढ़ियों के सघन जाले,
देख कर विज्ञान की प्रगति विधि भी है अचंभित,
हो पुरातन या नवल जो व्यर्थ है, वो सब तिरोहित,
हम पताका हम ध्वजा हम स्वयं ही पहिये हैं रथ के,
दो दिशाओं में हैं गुंजित स्वर जगत में प्रगति पथ के,
पीढियां अक्षम हुयी हैं निधि नहीं जाती संभाले,
पीढियां सक्षम हुयी हैं नव निधि के हैं उजाले

madanmohanarvind@gmail.com ने कहा…

आदरणीय ख़लिश जी,
यह दर्द वही महसूस कर सकता है जिसकी संवेदनाएं अभी जीवित हों.
मदन मोहन 'अरविन्द'

pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

सर्वप्रथम आदरणीय राकेश जी और श्रीप्रकाश जी का आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिनके कारण मेरी सोई हुई लेखनी एक बार पुनः लिखने पर विवश हो गई.सभी की रचनाएँ बहुत ही सुन्दर लगीं. सबसे प्रोत्साहित होकर मैंने भी प्रयास किया -

"पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाते सँभाले"
बीतता हर युग सदा ही 'आज' पर आरोप डाले
श्रेष्ठ हर युग को लगी अपनी सुरा, अपना पियाला
है यही कारण कि कल ने श्रेष्ठता का दंभ पाला
आज ने झेली विगत की भर्त्सना तो सर्वदा ही
किन्तु फिर भी एक क्षण को ना रुका, वह ना थमा ही
रश्मि लेकर पूर्वजों से सतत ही बढ़ता रहा है
और नवयुग के लिए नव-सूर्य वह गढ़ता रहा है

जो मिला माणिक उसे, वह माल में उसने पिरोया
दुग्ध की धारा मिली जो, वह सदा माखन बिलोया
राख माथे पर चढ़े, उत्तम सदा होता नहीं है
है चिता की या हवन की, भेद करना ही सही है

श्रेष्ठ संस्कृति, संस्कारों को धरोहर मानकर
हृदय में पाला सदा अनमोल निधि वह जानकार
गूँजता उद्घोष अब भी नित्य ही देवालयों में
आरती की ज्योति जलती नित्य ही गंगा तटों पे

आज भी संतान लेकर चरण रज घर से निकलती
मात की ममता पिता के मान का सम्मान करती
आज भी हैं जन्म लेते लाल ऐसे इस धरा पे
दान कर देते स्वयं को राह में जो मनुजता के

समय की धारा कभी भी एक सी रहती नहीं है
नित्य परिवर्तन सदा से ही प्रकृति इस सृष्टि की है
सेतु गढ़ कल-आज-कल में पीढ़ियाँ बढ़ती रही हैं
श्रेष्ठ निधियों के जतन में सर्वदा सक्षम रही हैं

Amitabh Tripathi ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीया शकुन्तला जी,
अच्छी रचना शिल्प दृष्टि से और कत्थ्य की दृष्टि से भी।
अवनि पर सबसे पुरानी,संस्कृति जानी गयी जो,
आज भूली जा रही है,देश में अपने वही क्यों ?
पुरातन के प्रति श्रद्धा और सम्मान होना चाहिये धरोहर के रूप में उनका संरक्षण भी लेकिन व्यामोह से बचना होगा। पुरातन है इसलिये अच्छा है शायद इस अवधारणा से मुक्ति लेनी चाहिये।
सादर
अमित

- pratibha_saksena@yahoo.com ने कहा…

मंच के मित्रों !
प्रणाम .
कुछ दिनों के अंतराल के बाद जब मंच पर आई ,बहुत सुन्दर दृष्य देखने को मिला .
एक ही समस्या पर इतनी रचनाएँ !
बहुत ही मनोग्राही ,भावमय ,तत्वपूर्ण और केवल समस्यापूर्ति नहीं बाकायदा ,परिपूर्ण कविता का ललित कलेवर !इतना कुछ पा रही हूँ कि सँजोने के लिए अभी बार-बार पढ़ना पड़ेगा .
ये आनन्द ग्रहण के क्षण ! इनका अन्यथा उपयोग नहीं कर सकूँगी (विस्मित हूँ ,अभिभूत हूँ ) .मेरी भागीदारी इस समय केवल ग्रहण की, जिस रचनाकार का कृतित्व है उस के चिन्तन से जोड़ कर भावन करने की !
अभी तो कई बार पढ़ना है .
बस, इतना ही कह सकूँगी इस समय !आप सबके प्रति आभार के साथ -
सादर,
- प्रतिभा.

Amitabh Tripathi ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय श्री प्रकाश जी,
विचारों को तत्सम शब्दावली में बहुत सुगढ़ ढंग से व्यवस्थित करने का प्रयत्न दिखा इस कविता में। बधाई! एक पंक्ति के विषय में शंका उत्पन्न हो गयी। हो सकता है मेरा भ्रम हो लेकिन इसे देखें
शीश धर संस्कृत सनातन,

कलुष के सायक बनेगे
कलुष के सायक से शायद आपका अभिप्राय कलुष के लिये सायक है अर्थात कलुष को समाप्त करने के लिये सायक। लेकिन क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि ये सायक कलुष के सहायक हैं। मेरे समझने में भूल हो रही हो तो विज्ञजन सुधार देंगे ऐसी अपेक्षा है।
सादर
अमित

- ahutee@gmail.com ने कहा…

आ० शकुंतला जी,
अपनी इस प्रतिक्रिया में आपने भाषा और वेष को ले कर जो कहा है
वह बहुत सटीक और मेरी राय में एक अत्यंत महत्वपूर्ण सन्देश है |
वर्तमान पीढ़ियाँ जो विदेशों में बसी हैं अगर इन दो विषयों पर ही
सकारात्मक दृष्टिकोण अपना लें तो देश की सभ्यता और संस्कृति का
मान विश्व में ऊंचा हो सकता है | कितने सहज ढंग से आपने ऐसा
बहुमूल्य सुझाव प्रस्तुत कर दिया कि चकित हूँ |
कमल