दोहे पर्यावरण के
कैलाश त्रिपाठी
ज़हर हवा में छोड़ते, तनिक नहीं संकोच।
जीवन दूभर हो रहा, बदलो अपनी सोच.
प्रतिदिन बढ़ता जा रहा, भूमंडल का ताप।
अनियोजित उद्योग है, जीवन का अभिशाप.
क्षरण हुआ ओजोन का, अन्तरिक्ष तक घात।
सागर में भी जा रही, ज़हरीली सौघात.
कविताओं में रह गया, शीतल सुखद समीर।
वन काटे, छोडा धूंआ, वायु मलिन गंभीर।
--शिव कुटी, आर्य नगर, अजीतमल, औरैया।
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