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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

लघुकथा ; वह गरीब है ना... -- अवनीश तिवारी, मुम्बई

वह गरीब है ना...

आज फ़िर दफ्तर के कामों में उलझे होने और बचे कामों को पूरा करने की तंग अवधि के कारण, दोपहर के खाने से दूर रहना पड़ा सुबह का वह बैग शाम जाते समय भी उतना ही वजनदार था काम पूरा हो जाने की खुशी पेट के भूख को भुला कर रह रह संतोष का पुट मष्तिष्क में छोड़ जा रही थी यह संतोष मेरी चाल की तेजी में बदल मुझे अपने घर की ओर ले जा रही थी एकाएक पास के चाट की दूकान पर नज़र पड़ी और भूक ने अपना मुंह उढा लिया मन चाट का स्वाद लेने ललच पड़ा और मैं चाट की दूकान पर आ जमा मै चाट के लिए कह कर खडा रहा ४-६ जनों की मांग पहले से होने के कारण मेरा नंबर अभी नहीं आया था इस बीच एक फटे हाल , कुछ अधिक उम्र का दुबला सा आदमी, पैरों के टूटते हुए चप्पलो को खींचते धीरे - धीरे बढ़ा आ रहा था उसकी दीनता दूर से ही अपना परिचय दे रही थी गहरे रंग के इस आदमी ने भी चाट के लिए कहा और मेरे समीप रूक मुंह लटका कर खड़ा हुआ पास फेंकें गए चाट के जुठे पत्तलों को चाटने कई कुत्ते जमें थे उनमें एक पिल्ला किसी ज्यादा भरे जुठे पत्तल को पा उसे तूफानी गति से चाटे जा रहा था कोई दूसरा तंदुरुस्त कुत्ता उस पिल्लै को पत्तल चाटते देख उसकी तरफ़ झपटा और उसे काट भगाया पिल्लै को पत्तल चाटने के लिए मिली इस सजा से हुए हल्ले से चौक और यह सब देख उस गरीब के ह्रदय की पीड़ा उसके मुंह तक आ गयी वह कुत्ते की ओर अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से निशाना लगा झुंझलाहट में बोल पड़ा - " ये उसे क्यों मारता है, वह गरीब है ना " गरीबी की व्यथा से निकला यह दर्द सुन मैं सन्न सा रह गया और लोग यह सब देख सुन उसे अनदेखा कर अपने अपने चाट में मस्त हो गए दीनता की पुकार हर कोई नहीं समझ सकता मै भी अपना चाट खा वहां से निकल पडा वह क्षणिक घटना बार बार दिमाग में चोट करे जा रही थी, जिससे आहत मैं अब मंद गति से, किसी सोच में खो चला जा रहा था

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