कुल पेज दृश्य

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

सामयिक नव गीत: मचा कोहराम क्यों?... ----- संजीव वर्मा 'सलिल'

सामयिक नव गीत

मचा कोहराम क्यों?...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(नक्सलवादियों द्वारा बंदी बनाये गये एक कलेक्टर को छुड़ाने के बदले शासन द्वारा ७ आतंकवादियों को छोड़ने और अन्य मांगें मंजूर करने की पृष्ठभूमि में प्रतिक्रिया)
अफसर पकड़ा गया
मचा कुहराम क्यों?...
*
आतंकी आतंक मचाते,
जन-गण प्राण बचा ना पाते.
नेता झूठे अश्रु बहाते.
समाचार अखबार बनाते.

आम आदमी सिसके
चैन हराम क्यों?...
*
मारे गये सिपाही अनगिन.
पड़े जान के लाले पल-छिन.
राजनीति ज़हरीली नागिन.
सत्ता-प्रीति कर रही ता-धिन.

रहे शहादत आम
जनों के नाम क्यों?...
*
कुछ नेता भी मारे जाएँ.
कुछ अफसर भी गोली खाएँ.
पत्रकार भी लहू बहायें.
व्यापारीगण चैन गंवाएं.

अमनपसंदों का हो
चैन हराम क्यों??...
*****
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

एक मुक्तिका: हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे ----- संजीव 'सलिल'

एक मुक्तिका:

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे

संजीव 'सलिल'
*
सार नहीं कुछ परंपरा में, रीति-नीति निस्सार कहे.
हम कैसे इस बात को मानें, कहने को संसार कहे..

रिश्वत ले मुस्काकर नेता, उसको शिष्टाचार कहे.
जैसे वैश्या काम-क्रिया को, साँसों का सिंगार कहे..

नफरत के शोले धधकाकर, आग बर्फ में लगा रहा.
छुरा पीठ में भोंक पड़ोसी, गद्दारी को प्यार कहे..

लूट लिया दिल जिसने उसपर, हमने सब कुछ वार दिया.
अब तो फर्क नहीं पड़ता, युग इसे जीत या हार कहे..

चेला-चेली पाल रहा भगवा, अगवाकर श्रृद्धा को-
रास रचा भोली भक्तन सँग, पाखंडी उद्धार कहे..

जिनसे पद शोभित होता है, ऐसे लोग नहीं मिलते.
पद पा शोभा बढ़ती जिसकी, 'सलिल' उसे बटमार कहे..

लेना-देना लाभ कमाना, शासन का उद्देश्य हुआ.
फिर क्यों 'सलिल' प्रशासन कहते?, क्यों न महज व्यापार कहे?

जो बिन माँगे मिल जाता है 'सलिल' उसे उपहार कहें.
प्रीत मिले जब प्रीतम से तो, कैसे हम आभार कहें??

अभिनव अरुण रोज उगता है, क्यों न इसे उजियार कहें.
हो हताश चुक जाती रजनी, 'सलिल' उसे अँधियार कहें..

दान न देकर दानी बनते, जो ऐसों पर कहर गिरे.
देकर जो गुमनाम रहे. उस दानी को खुद्दार कहें..

बाग़ बगावत का बागी ने, खून से सींचा है यारों.
जो कलियों को रौंदे उसको, मारें हम गद्दार कहें..

मिले हीर से शाबाशी तो, हर-कीरत मत भुला 'सलिल'.
हर-कीरत बिन इस दुनिया को, बेशक सब मंझधार कहें..

इन्द्र धर्म का सिंह साथ हो, तो दम आ ही जाती है.
कर्म किये बिन छह रहे फल, जो उनको सरकार कहें..

दाद दीजिये मगर खाज-खुजली से प्रभुजी दूर रखें.
है प्रताप राणा का, इंगित को भी अरि तलवार कहें..

वीर इंद्र का वंदन कर सुर, असुरों पर जय पाते हैं.
ससुरों को ले वज्र पछाड़े उसको सुर-सरदार कहें..

चन्दन जिसके माथे सोहे, हो वह देह विदेह 'सलिल'.
कालकूट को कंठ धारकर, जय-जय-जय ओंकार कहें..

तपन अगन झुलसन को सहना, सबके बस की बात नहीं.
आरामों के आदी मत हो. यह सच बारम्बार कहें..

खिले पंक में किन्तु पंक से, मलिन न होता है पंकज.
शतदल के आचरण-वरन को, शुभ-सत का स्वीकार कहें..

मुश्किल बहुत दिगंबर होना, नंगा होना है आसान.
सब में रब दिख पाए जब तो, 'सलिल' उसे दीदार कहे..

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत :                                                                                                                                                                              

किस तरह आये बसंत?...

मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.

जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.

खुशी बिदा हो गयी'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
*

दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल): दोहा का रंग होली के संग : ----- संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):                                                           

दोहा का रंग होली के संग :

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार. 
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार. 
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मानता रहे, होली का त्यौहार..
********

: दोहा कथा पुनीत - २ : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

: दोहा कथा पुनीत - २ :

 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

 

संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.

दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.

सुनिए दोहा-पुरी में, संगीता की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.

समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन रविकान्त.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा शांत.

सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
भू प्रगटे देवेन्द्र जी, करने दोहा-गान.

शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.

दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.

पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.

अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूंदकर, बने हुए हैं सूर.

जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.

सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.

स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.


दोहा में मानव इतिहास रचने में 'न भूतो न भविष्यति' अर्थात अभूतपूर्व भूमिका का निर्वहन किया है। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बतादी. असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, वह कालजयी दोहा है-

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.


इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विक्रमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.

मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..




श्रृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.

किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.


हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।

जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.


दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-

जो जिण सासण भा भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.


चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.

पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.

संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह. 
 
 ************

 

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

मुक्तिका कब कहा संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

कब कहा

संजीव 'सलिल'
*
कब कहा मंदिर में लुटने हम नहीं आते.
क्या खुशी की ज़िंदगी में गम नहीं आते?

अधिक की है चाह सबको, बिना यह जाने.
अधिक खोने के सुअवसर कम नहीं आते..

जान को लेकर हथेली पर चले जाओ.
बुलाओ, आवाज़ दो पर यम नहीं आते..

बातियों की तरह जो जलते रहे खुद ही.
सामने उनके कभी भी तम नहीं आते..

नागिनों की चाल ही होती लचीली है.
मत डरो उनकी कमर में खम नहीं आते..

असम को मत विषम होने दो, तनिक सोचो
सियासत के गीत में क्यों सम नहीं आते?

*************

दोहा सलिला: देख दुर्दशा देश की -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

देख दुर्दशा देश की

संजीव 'सलिल'
*
देख दुर्दशा देश की, चले गये जो दूर.
उनसे केवल यह कहूँ, आँखें रहते सूर..

देश छोड़ वे भी गये, जिन्हें प्रगति की चाह.
वाह मिली उनको बहुत, फिर भी भरते आह..

वसुधा जिन्हें कुटुंब है, दुनिया जिनका नीड़.
वे ही मानव रत्न हैं, बाकी केवल भीड़..

बसे देश में जो 'सलिल', चाह रहे बदलाव.
सच्चे मानव हैं वही, जो तजते अलगाव..

सिर्फ देश को कोसते, करते नहीं सुधार.
उन कापुरुषों की करें, चर्चा क्यों बेकार?

जो कमियों को खोजकर, चाहें कर लें दूर.
ऐसों का संग दीजिये, कहीं रहें भरपूर..

नहीं यहाँ सब कुछ बुरा, नहीं वहाँ सब श्रेष्ठ.
श्रेष्ठ यहाँ भी है बहुत, बहुत वहाँ है नेष्ट..

धूप-छाँव, सुख-दुःख सदृश, भले-बुरे का मेल.
है दुनिया में सब जगह, हार-जीत का खेल..

दर्शन मत कर दूर से, तनिक निकट आ मीत.
माटी को चंदन समझ, तभी बढ़ेगी प्रीत..

गर्व न करना दृष्टि पर, देखे आधा सत्य.
जिसे न देखे कह रही, उसको व्यर्थ असत्य..

देश गर्त में देखकर मिलती जिसको शांति.
वह केवल दिग्भ्रमित है, मन में पले भ्रान्ति..

जैसा भी है देश यह, है मेरा भगवान.
इसकी खातिर जी-मरूँ, शेष यही अरमान..

त्रुटियों की चर्चा करूँ, लेकर मन में आस.
बेहतर से बेहतर बने, देश- यही अहसास..

******************

एक मुक्तिका: संजीव सलिल'

अभिनव प्रयोग:

यमकमयी  मुक्तिका:

संजीव सलिल'
*
नहीं समस्या कोई हल की.
कोशिश लेकिन रही न हलकी..

विकसित हुई सोच जब कल की.
तब हरि प्रगटें बनकर कलकी..

सुना रही है सारे बृज को
छल की कथा गगरिया छलकी..

बिन पानी सब सून हो रहा
बंद हुई जब नलकी नल की..

फल की ओर निशाना साधा. 
किसे लगेगा फ़िक्र न फल की?

नभ लाया चादर मखमल की.
चंदा बिछा रहा  मलमल की.. 

खल की बात न बट्टा सुनता.  
जब से संगत पायी खल की..

श्रम पर निष्ठां रही सलिल की.
दुनिया सोचे लकी-अनलकी..

 कर-तल की ध्वनि जग सुनता है.
'सलिल' अनसुनी ध्वनि पग-तल की..

                 *************

दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज

दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज

दो यमकदार तेवरियाँ                                                                          

रमेश राज, संपादक तेवरीपक्ष, अलीगढ
*  
 १.
तन-चीर का उफ़ ये हरण, कपड़े बचे बस नाम को.
हमला हुआ अब लाज पै, अबला जपै बस राम को..

हर रोग अब तौ हीन सा, अति दीन सा, तौहीन सा.
हर मन तरसता आजकल, सुख से भरे पैगाम को.. 

क्या नाम इसका धरम ही?, जो धर मही जन गोद्ता.
इस मुल्क के पागल कहें सत्कर्म कत्ले-आम को..

उद्योग धंधे बंद हैं, मन बन, दहैं शोला सदृश.
हर और हहाका रही, अब जन तलाशें काम को..

अब आचरण बदले सभी, खुश आदतें बद ले सभी.
बीएस घाव ही मिलने सघन आगाज से अंजाम को..

२.

पलटी न बाजी गर यहाँ, दें मात बाजीगर यहाँ.
कल पीर में डूबे हुए होंगे सभी मंज़र यहाँ..

तुम छीन बैठे कौरवों, हम मंगाते हैं कौर वो
फिर वंश होगा आपका, कल को लहू से तर यहाँ..

दुर्भावना की कीच को, हम पै न फेंको, कीचको!.
कुंजर सरीखे भीम ही, अब भी मही पर वर यहाँ.. 


दुर्योधनों के बीच भीषम, आज भी सम मौन है. 
पर द्रौपदी के साथ हैं, बनकर हमीं गिरिधर यहाँ..  

अब पाएंगे हम जी तभी, जब साथ होगी जीत भी
हम चक्रव्यूहों में घिरे, दिन-रात ही अक्सर यहाँ.. 

************************************

म.प्र. लघुकथाकार परिषद् : वार्षिक सम्मलेन संपन्न लघुकथा लेखन में विशिष्ट अवदानकर्ता सम्मानित

म.प्र. लघुकथाकार परिषद् : वार्षिक सम्मलेन संपन्न
लघुकथा लेखन में विशिष्ट अवदानकर्ता सम्मानित

जबलपुर, २०-२-२०११. म. प्र. लघुकथाकार परिषद् जबलपुर का २६ वां वार्षिक सम्मेलन अरिहंत होटल के सभागार में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. हरिराज सिंह 'नूर' के मुख्यातिथ्य तथा ज्येष्ठ पत्रकार-साहित्यकार डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' की अध्यक्षता में संपन्न हुआ. अतिथि स्वागतोपरान्त लघुकथा लेखन के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हेतु सम्मानित किए जा रहे व्यक्तित्वों का परिचय देते हुए उन्हें प्रथम पंक्ति में आसीन करवाया गया. इसके साथ ही सम्मानितों के व्यक्तित्व-कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए परिपत्र का वितरण किया गया. 
परिषद् के अध्यक्ष मु. मोइनुद्दीन अतहर ने परिषद् के गठन, उद्देश्यों तथा गतिविधियों पर प्रकाश डाला. सचिव श्री कुँवर प्रेमिल ने लघुकथा के उद्भव, विकास तथा महत्त्व को प्रतिपादित किया.

तत्पश्चात मुख्य अतिथि एवं अध्यक्ष के कर कमलों से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' संपादक दिव्य नर्मदा, जबलपुर को बृजबिहारी श्रीवास्तव स्मृति सम्मान, श्री पारस दासोत, जयपुर को सरस्वती पुत्र सम्मान, श्री अनिल अनवर, संपादक मरु गुलशन जोधपुर को रासबिहारी स्मृति सम्मान, श्री अशफाक कादरी, बीकानेर को डॉ. श्रीराम ठाकुर 'दादा' स्मृति सम्मान, डॉ. राज कुमारी शर्मा 'राज', गाज़ियाबाद को गोपालदास स्मृति सम्मान से तथा आनंद मोहन अवस्थी सृजन सम्मान से डॉ. के. बी. श्रीवास्तव, मुजफ्फरपुर व मु. मोइनुद्दीन अतहर को सम्मानित किया गया.
अभी बहुत कुछ शेष है....डॉ. तनूजा चौधरी
लघुकथा के वैशिष्ट्य पर अपने विचार व्यक्त करते हुए विशिष्ट वक्ता डॉ. तनूजा चौधरी, अध्यक्ष हिंदी विभाग शासकीय स्वशासी विज्ञानं स्नातकोत्तर महाविद्यालय जबलपुर ने कहा ''लघुकथा स्वस्थ्य सामाजिक संरचना को पुष्ट करने के लिये विसंगतियों को इंगित कर पुष्ट आधार प्रदान करती है. काम शब्दों में मन को स्पर्श करनेवाली चुभन समेटते हुए लघुकथा पाठक के प्रथम आकर्षण का केंद्र होती है तथा इसका अंत सोचने के लिये प्रेरित करता है. साहित्य में लघुकथा की घर में गृहणी से साम्यता स्थापित करते हुए विदुषी वक्ता ने कहा कि इससे यह न मानें कि सभी कुछ समाप्त प्राय या नकारात्मक मात्र है, अपितु इससे यही निष्कर्षित होता है कि अभी भे एबहुत कुछ शेष है जिसकी रक्षा के लिये लघुकथा समर्पित है.''

लघुकथा फिलर नहीं पिलर... डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र'

अध्यक्ष डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' ने अपने संपादन के दिनों की स्मृति तजा करते हुए बताया कि प्रारंभ में लघुकथा को पूरक (फिलर) के रूप में मन जाता था किन्तु अब यह स्तम्भ (पिलर) के रूप में स्थापित हो गयी है.

सम्मेलन में मु मोइनुद्दीन अतहर द्वारा सम्पादित पत्रिका लघुकथा अभिव्यक्ति के अंक १५, कुँवर प्रेमिल द्वारा सम्पादित प्रतिनिधि लघुकथाएं २०११, तथा श्री मनोहर शर्मा 'माया' लिखित लघुकथा संकलन मकडजाल का विमोचन संपन्न हुआ तथा सजरी माया के कृतित्व का परिचय देते परिपत्र का वितरण किया गया.

साहित्य सृजन में विशिष्ट अवदान हेतु स्थानीय रचनाकारों सर्व श्री/श्रीमती प्रभात दुबे, प्रभा पाण्डे 'पुरनम', डॉ. गायत्री तिवारी, रामप्रसाद 'अटल' को यश अर्चन सम्मान से तथा रत्ना ओझा, राजकुमार, मनोहर चौबे 'आकाश', मृदुल मोहन अवधिया, लक्ष्मी शर्मा, ब्रिजेन्द्र पाण्डेय व राजीव गुप्ता को लघुकथा सेवा सम्मान से सम्मानित किया गया.

अध्यक्षीय संबोधन में डॉ. हरिराज सिंह 'नूर' ने संस्कारधानी में साहित्य सृजन की स्वस्थ्य परंपरा को अनुकर्णीय बताया तथा लघुकथा के विकास को भावी साहित्य व समाज के लिये दिशादर्शक बताया.

कार्यक्रम के अंतिम सत्र में अतिथि लघुकथाकारों ने अपनी प्रतिनिधि लघुकथा का वाचन तथा श्री अंशलाल पंद्रे ने एक भक्ति गीत का गायन किया.
नर्मदा में नौका विहार तथा काव्य गोष्ठी
२१ फरवरी को संस्कारधानी जबलपुर में पधारे डॉ. हरिराज सिंह 'नूर', डॉ, राजकुमारी शर्मा 'राज', श्री अनिल अनवर, श्री अशफाक कादरी तथा श्री पारस दासोत के सम्मान में विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भेड़ाघाट में संगमरमरी चट्टानों के मध्य प्रवाहित सनातन सलिला नर्मदा में नौका विहार तथा धुआंधार जलप्रपात के प्रमाण व सरसकाव्य गोष्ठी से इस सारस्वत अनुष्ठान का समापन हुआ.

****************

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

एक कविता: धरती ----- संजीव 'सलिल'

एक कविता
धरती 
संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है 
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..

**************

सामयिक गीत: लाचार है... संजीव 'सलिल'

सामयिक गीत:                                                                    

लाचार है...

संजीव 'सलिल'
*
मुखिया तो लाचार है,
हालत से बेज़ार है.....
*
जीवन भर था यह अधिकारी.
जो पायी आज्ञा स्वीकारी..
इटली की मैडम का सेवक-
वह दाता, यह दीन-भिखारी.

ना संसद में, ना जनता में
इसका कुछ आधार है...
*
कुर्सी पकड़ बन गया दूला.
मौनी बाबा झूले झूला..
साथी-संगी लोभी-लोलुप-
खुद लगता है बहरा-लूला..

अमरीकी सत्ता का सच्चा
यह फर्माबरदार है...
*
हर कोई मन-मर्जी करता.
चरा समझ देश-धन चरता.
बेकाबू है तन्त्र-प्रशासन.
जी-जीकर भी हर पल मरता..

बेकाबू हर मंत्री वाली
असरहीन सरकार है...
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

हिन्दी नवगीत : स्वरूप, विकास और संभावनाएं                       

प्रो. भगवानदास जैन
आधुनिक काल में साहित्य के क्षेत्र में जब भी नये प्रयोग हुए हैं, तो नई चेतना के अन्तर्गत परंपरागत विधाओं के नामकरण में भी अपेक्षित परिवर्तन का प्रश् उठना स्वाभाविक था। तदनुसार प्रत्येक विधा के आगे नव या नया-नयी जोड़कर उसे नई कविता, नई कहानी, नया नाटक आदि नाम दिये गए। इसी प्रकार गीत के स्थान पर नवगीत नाम भी प्रचलित हुआ। समीक्षकों ने इसे प्रयोगवादी अबूझ और निराशाजन्य झुटपुटों से निकलने का एक प्रयास भी कहा है। बहरहाल यह युग की मांग भी है। इन्हीं तथ्यों की ओर संकेत करते हुए डॉ. शंभुनाथ सिंह का कथन है, नवीन पध्दति और विचारों के नवीन आयामों तथा नवीन भाव-सरणियों को अभिव्यक्त करनेवाले गीत जब भी और जिस युग में भी लिखे जाएंगे नवगीत ही कहलाएंगे।
यह भी एक सच्चाई है कि जब भी कोई विधा परंपरा से कुछ हटकर चलने लगती है तो उसे प्रवादों-विरोधों की आंधी से भी टकराना पड़ता है। स्वातंत्र्योत्तर गीतिकाव्य या नवगीत के साथ भी यही हुआ। उसे नया गीत, प्रगीत, लोकगीत और कबीर गीत के साथ-साथ 'अकहानी' या 'अकविता' के आधार पर 'अगीत' भी बताया गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन समस्त नामों के साथ गीत शब्द तो सर्वत्र जुड़ा रहा। स्पष्ट है कि इसी कृतियों में भाव विचार समन्वित गेयता का तत्व तो बहरहाल मौजूद रहता ही है। अत: स्वातंत्र्योत्तर गीतिकाव्य को नवगीत कहना सर्वथा युक्तिसंगत है। इस संदर्भ में डॉ. शिवकुमार शर्मा का मत द्रष्टव्य है-'नवगीत या नये गीत का आंदोलन नई कविता के ध्वजावाहकों के समान कतिपय नामों के अभावों का आंदोलन है। आधुनिकता एवं वैज्ञानिक युग बोध और सौंदर्य के दावेदारों ने इन गीतों में नये प्रतीक, नये छंद, नई भाषा, नये अप्रस्तुत विधान और नये शिल्पविधान का प्रयोग कर नवगीत की सार्थकता सिध्द करने का प्रयत्न किया है।'
स्पष्ट है आज का नवगीत परिवेशगत यथार्थ की अभिव्यक्ति का गीत है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह परंपरित गीतों की तुलना में विशेष समाज सापेक्ष है। श्री रवीन्द्र भ्रमर ने यथार्थ ही कहा है कि-'वास्तव में अगीत, नवगीत, आधुनिक गीत, आज का गीत से तात्पर्य उस गीत से है जो आज के जीव और जगत से संपृक्त है। जगत के यथार्थ से संवेदित है और युग बोध को ग्रहण करता है। स्वतंत्रता के पश्चात के विसंगतिपूर्ण जीवन को, उसकी कुरूपता को, उसमें लगे हुए मानव के संघर्ष को नये गीतकारों ने वाणी दी है।' अत: नवगीत को हम परंपरागत गीतिकाव्य की आधुनिक स्वातंत्र्योत्तर युग की विशेष कड़ी कह सकते हैं। यह किस रूप में नवीन या आधुनिक है, प्रसिध्द गीतकार नीरज के शब्दों में देखिए-
जाने क्यों जितनी ही कम है बात किसी पर कहने की,
वह जाने क्यों उतने ही स्वर से शोर मचाता है।
जो जितना गहरा घाव किये बैठा है दिल में,
वह दबी-दबी आहें भरता उतना सकुचाता है।
इस अनास्थापूर्ण कोलाहल के युग में नवगीतकारों ने आस्था के बिन्दुओं को चुना है। इस प्रकार नवगीतकारों ने गीत के विषयों की परिधि को विस्तृत करते हुए अनेक नये विषयों की खोज की है। श्री रामावतार त्यागी रचित थे गीत पंक्तियां देखिए जिनमें जीवन का यथार्थ चित्र उपस्थित किया गया है-
ममता कैसी प्यार कहां का
सुख किस डाली पर फलता है?
हमको दर्द बदलने तक की,
सुविधा नहीं मिली जीवन में।
नवगीतकार का यह प्रयास रहा है कि गीत में समकालीन परिवेश की गंध भी मौजूद हो, उसे झेलने की बाध्यता हो और साथ ही सुखमय जन-जीवन के सुखद सपने हों, संकल्प हों। ऐसे ही कुछ भाव युवा गीतकार राजेन्द्र गौतम के एक गीत में उपलब्ध होते हैं। गीतांश द्रष्टव्य है-
शोर को हम गीत में बदलें
इन निरर्थक शब्द ढूहों का-
खुरदुरापन ही घटे कुछ तो,
उमस से दम घोंटते दिन ये-
सुखद लम्हों में बटें कुछ तो,
चुप्पियों का यह विषैलापन-
लयों के नवनीत में बदलें।
नई कविता की भांति नवगीत में भी बिम्बों, प्रतीकों तथा भाषा और लयानुवर्तन की नवीनता अपेक्षित है। इस प्रकार नवगीतकारों ने नवगीत के माध्यम से हमें एक नया युग बोध दिया है। वस्तुत: यह गीत का स्वाभाविक विकास ही है।
नवगीत के लक्षणों में कुछ आग्रहों की भी अनिवार्यता स्वीकृत रही। यथा-अति बौध्दिकता, अतिशय कुंठाओं का समावेश, अनिश्चय की स्थिति, परंपराओं के प्रति ओढ़ी हुई विमुखता, असामाजिक प्रवृत्तियों का गायन, अहम्मन्यता का अतिरेक आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो गीतों में घर कर गई थी, किन्तु अब उनका भी निरंतर तिरोभाव होता जा रहा है।
स्वातंत्र्योत्तर इन गीतकारों में सर्वश्री अज्ञेय, नीरज, रमानाथ अवस्थी, शंभुनाथसिंह, वीरेन्द्र मिश्र, केदारनाथ अग्रवाल, नरेश मेहता, रामदरश मिश्र, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, सोम ठाकुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। युग प्र्रवत्तक ंगाल कार दुष्यंत कुमार का नाम भी इस ंफेहरिस्त में जोड़ा जा सकता है।
श्री प्रभाकर श्रोत्रिय -संपादित प्रसिध्द साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के 74 वें अंक में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में लब्धप्रतिष्ठ कवि पत्रकार श्री मंगलेश डबराल ने गीतिकाव्य के विरोध में जो वक्तव्य दिये उनसे नवगीतकारों और गीतिकाव्य के अध्येताओं का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है। उनके वक्तव्य इस प्रकार हैं-
(1) गीतिकाव्य ने कविता की गंभीरता को नष्ट किया है और विचारों के दरवाजे बंद किये हैं।
(2) ऐसी कविता समाज और मनुष्य का हाल नहीं बतलाती और इस तरह अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती।
(3) वह किसी नैतिकता या ग्लानिबोध से रहित होती है और इसी से जुड़ा है उनका यह प्रश्-क्या आज किसी जाने माने गीतिकाव्यकार ने बावरी मस्जिद को ढहाने या ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों को जिंदा जलाए जाने की भर्त्सना की है?
(4) उसमें चुटकुलों को विचार की तरह परोसने की कोशिश होती है।
गीतिकाव्य के सम्बन्ध में श्री मंगलेश डबराल की उक्त स्थापनाएं निश्चय ही एक सजग पाठक और साहित्य के अध्येता को सोचने पर विवश करती हैं। प्रसिध्द समकालीन रचनाकार एवं प्रतिष्ठित गीतकार कुमार रवीन्द्र ने उक्त चारों वक्तव्यों पर अपनी तीखी किन्तु सार्थक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हुए समूचे गीतिकाव्य की रक्षा कार् कत्तव्य निभाया है। कुमार रवीन्द्र की इन प्रतिक्रियाओं को सिध्दहस्त गीतकार व संपादक डॉ. विष्णु विराट द्वारा प्रकाशित अनियतकालीन पत्रिका 'भव्य भारती' के पिछले एक अंक में ब्यौरेवार प्रकाशित किया गया है। जिन्हें विस्तार भय से यहां प्रस्तुत कर पाना कठिन है, किन्तु उनके द्वारा उध्दृत हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर वसु मालवीय के एक नवगीत की निम् पंक्तियां अवश्य ध्यातव्य हैं जिनमें बाबरी ध्वंस से समूची भारतीय अस्मिता के टूटे हुए संस्पर्शों की ओर बड़ी संवेदनशीलता व अंतरंगता के साथ संकेत किया गया है। पंक्तियां हैं-
बहुत दिनो से नहीं आए घर कहो अनवर क्या हुआ?
आ गया क्या बीच अपने भी छह दिसंबर क्या हुआ?
टूटने को बहुत कुछ टूटा बचा क्या?
छा गई है देश के ऊपर अयोध्या!
धर्मग्रंथों से निकलकर हो रहे तलवार अक्षर क्या हुआ?
बहुत दिनों से नहीं आए घर कहो अनवर क्या हुआ?
समय संदर्भ से जुड़ी इन गीत पंक्तियों की मार्मिकता के क्षितिज कितनी दूर तक विस्तार पाते हैं, इसकी व्याख्या करना अनावश्यक है। सीधी सपाट भर्त्सना से अधिक दीर्घजीवी है ऐसी गीति-कविता और उसकी मर्मस्पर्शी भावानुभूति।
स्वातंत्र्योत्तर ऐसे ही सजग नवगीतकारों की श्रृंखला में उल्लेखनीय नाम हैं सर्वश्री किशन सरोज, कैलाश गौतम, यश मालवीय, मधुर शास्त्री, भारतभूषण, रामअधार, सुमित्रा कुमारी, ज्ञानवती सक्सेना, सरस्वती कुमार दीपक, तारा पांडे आदि जिन्होंने पूरी निष्ठा से हिन्दी नवगीत के कोष को समृध्द किया है। हां, क्वचित, अतृप्तियों, कुंठाओं और वर्जनाओं के चित्र हैं तो दूसरी ओर सामाजिक चेतना भी प्रखरता के साथ मुखर हुई है। समाज में व्याप्त अर्थ विषमताओं, सर्वतोमुखी मूल्य विघटन एवं सांस्कृतिक ह्रास का मर्मस्पर्शी चित्रण भी अनेकत्र मिलता है।
आज नवगीतों में एक ओर प्राकृतिक उपादान अपने नवीन रूप में व्यक्त हो रहे हों तो दूसरी ओर सामाजिक परिवेश के माध्यम से वैयक्तिक सुख-दुख की अनुभूतियां भी व्यक्त हो रही हैं। ऐन्द्रिक, सांवेगिक और बौध्दिक चेतना के स्वर भी समन्वित रूप में मुखर हो रहे हैं। नवगीतों में कथ्यगत वैविध्य के साथ-साथ विभिन्न शिल्पगत प्रयोग भी दृष्टिगत हो रहे हैं, किन्तु उन तमाम अभिनव प्रयोगों के बीच लय की एक अन्त: सलिला भी अक्षुण्ण रूप से प्रवहमान रही है। वस्तुत: परूष व सुकुमार अनुभूतियों की सहज भंगिया तथा तीव्र लयात्मकता से युक्त शब्दार्थमयी अभिव्यक्ति ही गीतिकाव्य के आधारभूत लक्षण हैं जो समकालीन नवगीतों में विद्यमान हैं।
साठोत्तरी नवगीतकारों में आज कई सशक्त हस्ताक्षर उभरकर सामने आए हैं जिनसे हिन्दी गीतिकाव्य की बड़ी संभावनाएं जुड़ी हैं। कुछ नाम उल्लेखनीय हैं सर्वश्री कैलाश गौतम, यश मालवीय, कुमार रवीन्द्र, शीलेन्द्र कुमार चौहान, वेद प्रकाश अमिताभ, महेश अनघ, देवेन्द्र शर्मा, इन्द्र, उमाशंकर तिवारी, अमरनाथ श्रीवास्तव, सुश्री महाश्वेता चतुर्वेदी, माहेश्वर तिवारी, श्रीकांत जोशी, सुश्री मधुप्रसाद, मधुकर गौड, विष्णु विराट, किशोर काबरा, द्वारका प्रसाद सांचीहर, बुध्दिनाथ मिश्र, सुश्री रागिनी चतुर्वेदी आदि। जोड़ाताल और कविता लौट पड़ी कृतियों के सर्जक सशक्त नवगीतकार श्री कैलाश गौतम का यह गीतांश देखिए जिसमें यथार्थ की कटु अनुभूति से उभरनेवाली संवेदना और करूणा की मर्मस्पर्शी व्यंजना है।
अकेले तुम्हीं सब उड़ाओगे भाई
कि मेरी तरफ भी बढ़ाओगे भाई।
दिखाओ ारा पेट देखूं तो क्या-क्या
बप्पारे बप्पा! दइया रे दइया!
अब क्या खाके ये सब पचाओगे भाई।
बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूंगा
कहूंगा कहूंगा कहूंगा कहूंगा
कहां तक मुझे तुम दबाओगे भाई
यश मालवीय अपने युगधर्म के प्रति निरंतर जागरूक हैं। समाज राष्ट्र, राजनीति में व्याप्त विसंगतियों को अपने नवगीतों में बड़ी दक्षता के साथ पिरोकर व्यक्त करते हैं। आज के आदमी की विवशता और निरीहता का एक मर्मांतक चित्र देखिए-
हर जगह भवदीय हैं या झुके सर हैं
लोग जैसे उड़ानों के कटे पर हैं
जोड़ते हैं हाथ घिघियाते हमेशा
दीनता भी हो गई है एक पेशा
स्वाभिमानों के जले हुए-से घर हैं।
जीवन मूल्यों के इस ह्रासोंमुखी युग में आज हमारे आपसी रिश्तों में भी कुछ ऐसी गहरी दरारें पड़ गई हैं कि तमाम दुन्यवी सम्बन्ध आज एकदम बेमानी लगते हैं डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ के एक नवगीत की कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं-
बहुत-बहुत चुभते हैं पाटल सम्बंधों के।
लगता है रूठ गए पाहुन सुगन्धों के।
मौसम के साथ-साथ मन भी बदले,
आंखो में परिचय के चिह्न हुए धुंधले।
नंफरत से भरे हुए दामन सौगन्धों के।
चेहरों पर अभिनय की बेशुमार पर्तें,
रिश्तों के इर्द-गिर्द रोज नई शर्तें।
सिमट सिमट आते हैं घेरे प्रतिबंधों के।
अतिरिक्त बुध्दिवाद से ग्रस्त आज का मानव यंत्र परिचालित खिलौने की मानिंद संवेदनाशून्य हो गया है। समकालीन जनजीवन का यह कटु सत्य डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी के एक नवगीत में अत्यंत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुआ है-
सभ्य से जो लगते यंत्र-संचालित खिलौने
चाबियां जब तक भरी हैं नाचते हमको मिलेंगे
देख वासंती घटाएं मन नहीं जिनके खिलेंगे।
मानवों के बीच आकर दीखते जड़ और बौने।
कुमार रवीन्द्र के नवगीतों में प्राय: जनवादी तेवर व्यक्त हुए हैं। सुकुमार संवेदनाओं से वंचित आधुनिक शहरों में आज हर आम आदमी भीड़ में अकेला है। एक रोगिष्ठ बूढ़े से ब्याह दी जानेवाली नवयौवना संतों की युवा आकांक्षाओं का असमय ही बुढ़ा जाना जैसे कई मर्मस्पर्श जनवादी चित्र आपके नवगीतों में मिलते हैं। आपका एक नवगीतांश द्रष्टव्य हैं-
अजनबी हैयह शहर या वह शहर
सारे शहर पत्थरों के हैं बने
मेहसूसते ये कुछ नहींवहीं के हर गांव में मीठा ाहर
गांव-घर-चौखटसभी कुछ लीलते ये
आदमी की खाल तक कोछीलते ये
कुछ दिनों मेंसांस को कर डालते खंडहर
डॉ. रामदरश मिश्र साठोत्तरी नवगीत के एक प्रतिष्ठित और सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके नवगीतों में आंचलिक परिवेश अपनी संपूर्ण चेतना के साथ व्यक्त हुआ है। वेदना-संवेदना सभर आपका एक नवगीतांश देखिए-
पथ सूना है, तुम हो हम हैं, आओ बात करें।
पता नहीं चलते-चलते कब कौन पिछड़ जाए,
कौन पात कब किस अंधी आंधी में झड़ जाए।
अभी समय की आंखे नम हैं, आओ बात करें।
अविनाश श्रीवास्तव ने परिवेश की विसंगतियों तथा जनसाधारण की पीड़ा को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है। सद्य: प्रकाशित उनके काव्य संग्रह जब हम सिंर्फ शब्द होते हैं से उध्दृत ये गीत-पंक्तियां देखिए जिनमें गीतकार ने वर्तमान जन-जीवन की पीड़ा को कितनी मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है-
सुनो पगडण्डी कहां जाकर रूकोगी?
दिग्भ्रमित करती यहां की सब दिशाएं
पीटती हैं सर यहां अन्धी कराहें
चीख औ कोहराम से व्याकुल हवाएं
चुप्पियाें ने धर दबोची हैं ंफिजाएं
आदमियों की बदलती आस्थाएं
मार्ग के इन तक्षकों का क्या करोगी?
इस प्रकार आज हिन्दी साहित्य जगत में नवगीत की अपनी एक स्वतंत्र पहचान बन चुकी ही। युगीन यथार्थ बोध से संप्रेरित हिन्दी के समकालीन नवगीतकारों ने आज जन मानस को पर्याप्त आंदोलित किया है। प्रकृति के एकान्त उपासक गीतकार भी करवट बदलकर अब जनवादी गीतधारा में जुड़ गए हैं। नवगीत की काव्यधारा में जहां एक ओर जनवादी चेतना मुखर हुई है, वहीं दूसरी ओर उसमें व्यक्ति एवं समष्टि के स्तर पर अन्तर्वाह्य स्थितियों का सूक्ष्म चित्रांकन भी हुआ है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि अपने परिवेश और उसमें सांस लेनेवाले आम आदमी के प्रति पूर्णत: प्रतिबध्द हिन्दी के समसामयिक नवगीत का भविष्य उावल है।
बी. 105, मंगलतीर्थ पार्क, कैनाल के पास,जशोदानगर रोड, मणीनगर (पूर्व)अहमदाबाद-382445, (गुजरात)
आभार:  साहित्यलोक 



दोहा सलिला मुग्ध है संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला मुग्ध

संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..

चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..

नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..

सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..

वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..

देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..

दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..

दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..

वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..

रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..

रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..

कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..

रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..

गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..

जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..

**************************

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

हास्य पद: जाको प्रिय न घूस-घोटाला -- संजीव 'सलिल'

हास्य पद:

जाको प्रिय न घूस-घोटाला

संजीव 'सलिल'

*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागयो,  न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..

                           ****************
(महाकवि तुलसीदास से क्षमाप्रार्थना सहित)
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


लघुकथा बरगद का दर्द रवींद्र खरे 'अकेला'

लघुकथा                                                                     
बरगद का दर्द

रवींद्र खरे 'अकेला'
*

घर के सामने लगे बूढ़े बरगद के पेड़ को देख वह बेहद खुश होता.

घरवाली ताने देती- 'रोज डलवा-डलवा भरके इन पत्तन को फेंकना पड़ता है.मैं तो तंग आ गई बरगद के पेड़ से। मैं तो शुरू से ही कहती आ रही हूँ कि कटवा क्यूँ नहीं देते इस पेड़ को। वह कुछ न कहता चुपचाप रहता।

आज सुबह से ही तीनों बहुओं में कहा-सुनी के बाद तेज लड़ाई हो गयी जिसमें बेटे भी बहुओं के साथ हो गये  छोटा बेटा छगनू तो बँटवारे को लेकर अड़ ही गया कि आज तो इस घर से अलग होकर ही दम लूँगा।

उसने पत्नी से बरगद के पत्तों को इकट्ठे किये गये डलवे का सबके सामने उंडेल दिया जिनमें कुछ हरे पत्ते थे, कुछ पीले, कुछ सूखे, कुछ अध्-पीले, कुछ एकदम हरी कोंपल सदृश उसने सभी तरह के पत्तों को करीने से संवारकर लगाया और छगनू से पूछा -बेटे तू चाहता है अलग घर में बँटवारा कर रहना मुझे कोई ऐतराज नहीं  तू शौक से अलग रह सकता है. घर में तुझे जो सामान अच्छा लगे वह सब ले जा तेरी मर्जी मैं कुछ नहीं मना करूंगा किंतु एक बात मेरी सुनता जा ये सारे पत्ते जो तू देख रहा है न, इसी बरगद के पेड़ के हैं न?

'हाँ,  तो इसमें क्या नई बात है ?'

'देख, इसमें कुछ पत्ते तो एकदम पीले हैं, सूखे हुये जो पेड़ से अलग हो गये क्योंकि वे अब उनके साथ नहीं रह सकते थे और कुछ अध-पीले हैं जो, पीलों क देखा-देखी अलग हो गये और कुछ एकदम से हरे थे उन्हें बरगद का साथ गवारा नहीं हुआ और वे तीव्र हवा के झोंको के बहकावे में आकर उनके साथ उड़कर मौज-मस्ती की दृष्टि से चलकर उनके साथ हो लिये परिणामस्वरूप अब तुम्हारे सामने हैं बिखरे हुइ. अब यदि ये सब पत्ते चाहें भी कि दुबारा उसी पेड़ पर टहनी में लगकर शेष जीवन व्यतीत कर लें तब भी संभव नहीं है, इनके लिये दोबारा इसी बरगद के पेड़ में जाकर लगना।

मैंने तो बेटे घर में यह बरगद का पौधा इसलिये रोंपकर बड़ा किया था कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा और खेत पर हल जोतकर जब शाम को वापिस आऊँगा तो इसी पेड़ की छाँव में बैठकर सुस्ताकर अपनी थकान दूर कर लिया करूँगा किन्तु तुम चाहते हो कि यह पेड़ ही न रहे तो तुम्हारी मर्जी वैसे तुम्हारी तरह तुम्हारी माँ भी वर्षों से तानें देती आ रही है कि रोज डलवा भर पत्ते भरकर साफ करती हूँ घर को और रोज फैल जाते हैं ढेरों पत्ते इसलिये अब फैसला तुम्हें करना है यदि तुम समझ सको इस बरगद का दर्द तो ठीक नहीं तो तुम्हारी मर्जी।'

छगनू ने विभिन्न रंगों के पत्तों को देखा सबक ले वह कभी बापू की तो कभी बरगद को देख रहा था उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था. उसने पत्नी को प्यार-सहित समझाकर बरगद वाले घर में ही आजीवन रहने का सकारात्मक निर्णय लिया।
***************

: साहित्य समाचार: मध्य प्रदेश लघु कथाकार परिषद् : २६ वाँ वार्षिक सम्मेलन जबलपुर, २०-२-२०११,

: साहित्य समाचार:
मध्य प्रदेश लघु कथाकार परिषद् : २६ वाँ वार्षिक सम्मेलन
    जबलपुर, २०-२-२०११, 
अरिहंत होटल, रसल चौक, जबलपुर

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' व अन्य लघुकथाकार सम्मानित होंगे

जबलपुर. लघुकथा के क्षेत्र में सतत सक्रिय रचनाकारों कर अवदान को प्रति वर्ष सम्मानित करने हेतु प्रसिद्ध संस्था मध्य प्रदेश लघु कथाकार परिषद् का २६ वाँ वार्षिक सम्मेलन अरिहंत होटल, रसल चौक, जबलपुर में २०-२-२०११ को अपरान्ह १ बजे से आमंत्रित है.

परिषद् के अध्यक्ष मो. मोइनुद्दीन 'अतहर' तथा सचिव कुँवर प्रेमिल द्वारा प्रसरित विज्ञप्ति के अनुसार इस वर्ष ७ लघुकथाकारों को उनके उल्लेखनीय अवदान हेतु सम्मानित किया जा रहा है.

ब्रिजबिहारीलाल श्रीवास्तव सम्मान - श्री संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर.
सरस्वती पुत्र सम्मान -                   श्री पारस दासोत जयपुर.
रासबिहारी पाण्डेय सम्मान -           श्री अनिल अनवर, जोधपुर.
डॉ. श्रीराम ठाकुर दादा सम्मान -      श्री अशफाक कादरी बीकानेर.
जगन्नाथ कुमार दास सम्मान-        श्री डॉ. वीरेन्द्र कुमार दुबे, जबलपुर.
गोपालदास सम्मान -                     डॉ. राजकुमारी शर्मा 'राज', गाज़ियाबाद.
आनंदमोहन अवस्थी सम्मान-         डॉ. के बी. श्रीवास्तव, मुजफ्फरपुर- मो. मोइनुद्दीन 'अतहर', जबलपुर.

कार्यक्रम प्रो. डॉ. हरिराज सिंह 'नूर' पूर्व कुलपति इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अध्यक्षता, प्रो. डॉ. जे. पी. शुक्ल पूर्व कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के मुख्यातिथ्य तथा श्री राकेश 'भ्रमर', श्री अंशलाल पंद्रे व श्री निशिकांत चौधरी के विशेषातिथ्य में संपन्न होगा.

इस अवसर पर मो. मोइनुद्दीन 'अतहर' द्वारा सम्पादित परिषद् की लघुकथा केन्द्रित पत्रिका अभिव्यक्ति के जनवरी-मार्च २०११ अंक, श्री कुँवर प्रेमिल द्वारा सम्पादित प्रतिनिधि लघुकथाएँ २०११  तथा श्री मनोहर शर्मा 'माया' लिखित लघुकथाओं के संग्रह मकड़जाल का विमोचन संपन्न होगा.

द्वितीय सत्र में डॉ. तनूजा चौधरी व डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' लघु कथा के अवदान, चुनौती और भविष्य विषय पर विचार अभिव्यक्ति करेंगे.
*****************
         

http://divyanarmada.blogspot.com

मेरी एक कविता : और सुबह हो गई -------- कुसुम सिन्हा

मेरी एक कविता

और सुबह हो गई

कुसुम  सिन्हा  
*
 पर्वतों की ओट से
सुनहरी  किरने झाँकने लगीं
तभी सूर्य ने  खिलखिलाकर हँसते हुए
अपने सात रंगों से
धरती को  नहला दिया
शर्म से लाल हो गई धरती
सूर्य ने धरती को अपनी बाँहों में बांध  लिया
धरती लजाई  शरमाई मुस्कुराई  फिर
सूरज को सौप दिया अ
नदी की लहरें  नाचने लगीं
हवा इठला इठलाकर चलने लगीं
वृक्ष  आनंद मगन हो
झुमने लगे
रात्रि का अंधकार
चुपचाप भागकर कहीं छुप  गया
कलियों ने हंसकर
भाबरों को बुलाया
मन में उठने लगी
प्रेम की उमंग
एक मोहक अंगड़ाई ले
जाग उठी धरती
और सुबह हो गई
                                                                          (आभार: ई कविता)
***************              
<kusumsinha2000@yahoo.com>

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

हास्य रचना: साहिब जी मोरे... संजीव 'सलिल'

हास्य कविता:

साहिब जी मोरे...

संजीव 'सलिल'
*
साहिब जी मोरे मैं नहीं रिश्वत खायो.....

झूठो सारो जग मैं साँचो, जबरन गयो फँसायो.
लिखना-पढ़ना व्यर्थ, न मनभर नोट अगर मिल पायो..
खन-खन दै तब मिली नौकरी, खन-खन लै मुसक्यायो.
पुरुस पुरातन बधू लच्छमी, चंचल बाहि टिकायो..
पैसा लै कारज निब्टायो, तन्नक माल पचायो.
जिनके हाथ न लगी रकम, बे जल कम्प्लेंट लिखायो..
इन्क्वायरी करबे वारन खों अंगूरी पिलबायो.
आडीटर-लेखा अफसर खों, कोठे भी भिजवायो..
दाखिल दफ्तर भई सिकायत, फिर काहे खुल्वायो?
सूटकेस भर नागादौअल लै द्वार तिहारे आयो..
बाप न भैया भला रुपैया, गुपचुप तुम्हें थमायो.
थाम हँसे अफसर प्यारे, तब चैन 'सलिल'खों आयो..
लेन-देन सभ्यता हमारी, शिष्टाचार निभायो.
कसम तिहारी नेम-धरम से भ्रष्टाचार मिटायो..
अपनी समझ पड़ोसन छबि, निज नैनं मध्य बसायो.
हल्ला कर नाहक ही बाने तिरिया चरित दिखायो..
अबला भाई सबला सो प्रभु जी रास रचा नई पायो.
साँच कहत हो माल परयो 'सलिल' बाँटकर खायो..
साहब जी दूना डकार गये पर बेदाग़ बचायो.....

*******************************************

(महाकवि सूरदास जी से क्षमाप्रार्थना सहित)

मुक्तिका: जिसे मैं भाया ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

संजीव 'सलिल'
*
जिसे मैं भाया, मुझे वो भायेगी.
श्वास के संग आस नगमे गायेगी..

जिंदगी औ' बंदगी की फिक्र क्या.
गयी भी तो लौट कर फिर आयेगी..

कौन मुझको जानता संसार में.
लेखनी पहचान बन रह जायेगी..

प्रीत की, मनमीत की बातें अजब.
याद कर गालों पे लाली छायेगी..

कौन है जो 'सलिल' बिन रह ना सके?
सिर्फ यह परछाईं ना रह पायेगी..
************