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शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

वर्षा, सॉनेट, शेक्सपियर, मिल्टन, सलिल

सॉनेट

बारिश तुम फिर

१.

बारिश तुम फिर रूठ गई हो।

तरस रहा जग होकर प्यासा।

दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।

मुरझाई हो ठूठ गई हो।।

कुएँ-बावली बिलकुल खाली।

नेह नर्मदा नीर नहीं है।

बेकल मन में धीर नहीं है।।

मुँह फेरे राधा-वनमाली।।

दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।

अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।

झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।

बीरबहूटी हुई लापता।

गर्मी सबको रही है सता।

जंगल काटे, मनुज की खता।।

*

२.

मान गई हो, बारिश तुम फिर।

सदा सुहागिन सी हरियाईं।

मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।

बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।

आसमान में बिजली चमकी।

मन भाई आधी घरवाली।

गिरी जोर से बिजली तड़की।।

भड़क हुई शोला घरवाली।।

तन्वंगी भीगी दिल मचले।

कनक कामिनी देह सुचिक्कन।

दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।

अनगिन सपने देखे साजन।।

सुलग गई हो बारिश तुम फिर।

पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।

*

३.

क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।

सघन अँधेरा आया घिर घिर।।

बरस रही हो, गरज-मचल कर।

ठाना रख दो थस-नहस कर।।

पर्वत ढहते, धरती कंपित।

नदियाँ उफनाई हो शापित।।

पवन हो गया क्या उन्मादित?

जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।

प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।

रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।

थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।

जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।

भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।

शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।

३०-१०-२०२२

*** 

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