कुल पेज दृश्य

रविवार, 5 दिसंबर 2021

कबीर

बात न सुनें कबीर की
संजीव
*
बात न सुनें कबीर की,
करते जय-जयकार.
सच्चों की है अनसुनी-
झूठे हुए लबार….
*
एकै आखर प्रेम का, नफरत के हैं ग्रन्थ।
सम्प्रदाय सौ द्वेष के, लुप्त स्नेह के पन्थ।।
अनदेखी विद्वान की,
मूढ़ों की मनुहार.
बात न सुनें कबीर की,
करते जय-जयकार...
*
लोई के पीछे पड़े, गुंडे सीटी मार।
सिसक रही है कमाली, टूटा चरखा-तार।।
अद्धा लिये कमाल ने,
दिया कुटुंब उबार।
बात न सुनें कबीर की,
करते जय-जयकार...
*
क्रय-विक्रय कर राम का, जग माया का दास।
त्याग-त्याग वैराग का, पग-पग पर उपहास।।
नाहर की घिघ्घी बँधी,
गरजें कूकुर-स्यार।
बात न सुनें कबीर की,
करते जय-जयकार...
*


नव गीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
टूटा नीड़,
व्यथित है पाखी।
मूक कबीरा
कहे न साखी।
संबंधों के
अनुबंधों में
सिसक रही है
बेबस राखी।
नहीं नेह को
मिले
ठांव क्यों?...

पूरब पर
पश्चिम
का साया।
बौरे गाँव
ऊँट ज्यों आया।
लाल बुझक्कड़
बूझ रहे है,
शेख चिल्लियों
का कहवाया।
कूक मूक क्यों?
मुखर काँव क्यों??...

बरगद सबकी
चिंता करता।
हँसी उड़ाती-
पतंग, न चिढ़ता।
कट-गिरती तो
आँसू पोंछे,
चेतन हो जाता
तज जड़ता।
पग-पग पर है
चाँव-चाँव क्यों?...

दीप-ज्योति के
तले अँधेरा,
तम से
जन्मे
सदा सवेरा।
माटी से-
मीनार
गढें हम।
माटी ने फिर
हमको टेरा।
घाट कहीं क्यों?
कहीं नाव क्यों??...
***

गीत
आचार्य संजीव 'सलिल'

नीचे-ऊपर,
ऊपर नीचे,
रहा दौड़ता
अँखियाँ मीचे।
मेघा-गागर
हुई न रीती-
पवन थका,
दिन-रात उलीचे

नाव नदी में,
नदी नाव में,
भाव समाया है,
अभाव में।
जीवन बीता-
मोल-भाव में।
बंद रहे-
सद्भाव गलीचे

नहीं कबीरा,
और न बानी।
नानी कहती,
नहीं कहानी।
भीड-भाड़ में,
भी वीरानी।
ठाना- सींचें,
स्नेह-बगीचे

कंकर- कंकर
देखे शंकर।
शंकर में देखे
प्रलयंकर।
साक्ष्य- कारगिल
टूटे बनकर।
रक्तिम शीतल
बिछे गलीचे
***


कबीर (जन्म- सन् १३९८ काशी - मृत्यु- सन् १५१८ मगहर) का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है। ये मध्यकालीन भारत के स्वाधीनचेता महापुरुष थे और इनका परिचय, प्राय: इनके जीवनकाल से ही, इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मतप्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है तथा इनके नाम पर कबीरपंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत-सी चमत्कारपूर्ण कथाएँ भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। फलत: इस संबंध में तथा इनके मत के भी विषय में बहुत कुछ मतभेद पाया जाता है। संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।

कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये। कबीरदास कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है- चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए। जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥ घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए। लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥ मृत्यु कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान् उनकी मृत्यु संवत १५७५ विक्रमी (सन १५१८ ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं।

कवि-संत कबीर दास का जन्म १५ वीं शताब्दी के मध्य में काशी (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। कबीर का जीवन क्रम अनिश्चितता से भरा हुआ है। उनके जीवन के बारे में अलग-अलग विचार, विपरीत तथ्य और कई कथाएं हैं। यहां तक कि उनके जीवन पर बात करने वाले स्रोत भी अपर्याप्त हैं। शुरुआती स्रोतों में बीजक और आदि ग्रंथ शामिल हैं। इसके अलावा, भक्त मल द्वारा रचित नाभाजी, मोहसिन फानी द्वारा रचित दबिस्तान-ए-तवारीख और खजीनात अल-असफिया हैं।

ऐसा कहा जाता है कि कबीर जी का जन्म बड़े चमत्कारिक ढंग से हुआ था। उनकी माँ एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण विधवा थीं, जो अपने पिता के साथ एक प्रसिद्ध तपस्वी के तीर्थ यात्रा पर गई थीं। उनके समर्पण से प्रभावित होकर, तपस्वी ने उन्हे आशीर्वाद दिया और उनसे कहा कि वह जल्द ही एक बेटे को जन्म देगी। बेटे का जन्म होने के बाद, बदनामी से बचने के लिए (क्योंकि उनकी शादी नहीं हुई थी), कबीर की माँ ने उन्हे छोड़ दिया। छोटे से कबीर को एक मुस्लिम बुनकर की पत्नी नीमा ने गोद लिया था। कथाओं के एक अन्य संस्करण में, तपस्वी ने मां को आश्वासन दिया कि जन्म असामान्य तरीके से होगा और इसलिए, कबीर का जन्म अपनी मां की हथेली से हुआ था! इस कहानी में भी, उन्हें बाद में उसी नीमा द्वारा गोद लिया था। जब लोग बच्चे के बारे में नीमा पर संदेह और प्रश्न करने लगे, तब अभी अभी चमत्कारी ढंग से जन्म लिए बच्चे ने अपने दृढ़ आवाज़ में कहा, “मैं एक महिला से पैदा नहीं हुआ था बल्कि एक लड़के के रूप में प्रकट हुआ था... मुझमे न तो हड्डियां हैं, न खून, न त्वचा है। मैं तो मानव जाती के लिए शब्द प्रकट करता हूं। मैं सबसे ऊँचा हूँ ...”

कबीरजी और बाईबल की कहानी में समानता देखी जा सकते हैं। इन कथाओं की सत्यता पर प्रश्न उठाना निरर्थक होगा। कल्पकता और मिथक सामान्य जीवन की विशेषता नहीं हैं। साधारण मनुष्य का भाग्य विस्मरण होता है। अदभूत किंवदंतियां और अलौकिक कृत्य असाधारण जीवन से जुड़े होते हैं। भले ही कबीर जी का जन्म सामान्य न हुआ हो, लेकिन इन दंतकथाओ से पता चलता है कि वह एक असाधारण और महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। जिस समय में वे वहाँ जीवन बीता रहे थे, उनके अनुसार, 'कबीर' एक असामान्य नाम था। ऐसा कहा जाता है कि उनका नाम एक क़ाज़ी ने रखा था जिन्होंने उस बालक के लिए एक नाम खोजने के लिए कई बार क़ुरआन खोला और हर बार कबीर नाम पर उनकी खोज समाप्त हुई, जिसका अर्थ 'महान’ है जो के ईश्वर, स्वयं अल्लाह के अलावा और किसी के लिए उपयोग नहीं होता।

कबीरा तू ही कबीरु तू तोरे नाम कबीर
राम रतन तब पाइ जड पहिले तजहि सरिर

आप महान है, आप वही है, आपका नाम कबीर है,
राम तभी मिलते है जब शारीरिक लगाव त्याग कर दिया जाता है।

अपनी कविताओं में कबीर जी ने खुद को जुलाहा और कोरी कहते हैं। दोनों शब्दों का अर्थ बुनकर, जो निचले जाति से है। उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदू या मुसलमान के साथ नहीं जोड़ा।

जोगी गोरख गोरख करै, हिंद राम न उखराई
मुसल्मान कहे इक खुदाई, कबीरा को स्वामी घट घट रह्यो समाई।

जोगी गोरख कहते हैं, हिंदू राम का नाम जपते हैं; मुसलमान कहते हैं कि एक अल्लाह है, लेकिन कबीर का भगवान हर अस्तित्व को व्याप्त करता है।

कबीर जी ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली। उन्हें एक बुनकर के रूप में प्रशिक्षित भी नहीं किया गया था। उनकी कविताएँ रूपकों को बुनती हैं, जबकि उनका मन पूरी तरह से इस पेशे में नहीं था। वह सत्य की खोज के लिए एक आध्यात्मिक यात्रा पर थे जो उनकी कविता में स्पष्ट रूप से प्रकट होता है।

तन बाना सबहु तज्यो है कबीर,
हरि का नाम लखि लयौ सरीर

कबीर ने सभी कताई और बुनाई को त्याग दिया है
हरि का नाम उनके सम्पूर्ण शरीर पर अंकित है।

अपनी आध्यात्मिक खोज को पूर्ण करने हेतु, वह वाराणसी में प्रसिद्ध संत रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे। कबीर ने महसूस किया कि अगर वह किसी तरह अपने गुरु के गुप्त मंत्र को जान सकते हैं, तो उनकी दीक्षा का पालन होगा। संत रामानंद वाराणसी में नियमित रूप से एक निश्चित घाट पर जाते थे। जब कबीर ने उन्हे पास आते देखा, तो वह घाट की सीढ़ियों पर लेट गया और रामानंद द्वारा मारा गया, जिसने सदमे से ‘राम’ शब्द निकाला। कबीर ने मंत्र पाया और उन्हें बाद में संत द्वारा एक शिष्य के रूप में स्वीकार किया गया। ख़जीनात अल-असफ़िया से, हम पाते हैं कि एक सूफी पीर, शेख तक्की भी कबीर के शिक्षक थे। कबीर के शिक्षण और तत्वज्ञान में सूफी प्रभाव भी काफी स्पष्ट है। वाराणसी में कबीर चौरा नाम का एक इलाका है, ऐसा माना जाता है कि वे वहाँ ही बड़े हुए थे।

कबीर ने अंततः लोई नामक एक महिला से शादी की और उनके दो बच्चे थे, एक बेटा, कमल और एक बेटी कमली थी। कुछ स्त्रोतों से यह सुझाव है कि उन्होंने दो बार शादी की या उन्होंने शादी बिल्कुल नहीं की। जबकि हमारे पास उनके जीवन के बारे में इन तथ्यों को स्थापित करने की साधन नहीं है, हम उनकी कविताओं के माध्यम से उनके द्वारा प्रचारित दर्शन में अंतर्दृष्टि रखते हैं। कबीर का आध्यात्मिकता से गहरा संबंध था। मोहसिन फानी के दबीस्तान में और अबुल फ़ज़ल के ऐन-ए-अकबरी में, उन्हे मुहाविद बताया गया है, यानी वह एक ईश्वर में विश्वास रखने वाले थे। प्रभाकर माचवे की पुस्तक ‘कबीर ’के प्रास्ताविक में प्रो. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताया है कि कबीर राम के भक्त थे, लेकिन विष्णु के अवतार के रूप में नहीं। उनके लिए, राम किसी भी व्यक्तिगत रूप या विशेषताओं से परे हैं। कबीर जी का अंतिम लक्ष्य एक सम्पूर्ण ईश्वर था जो बिना किसी विशेषता के निराकार है, जो समय और स्थान से परे है, कार्य से परे है। कबीर का ईश्वर ज्ञान है, आनंद है। उनके लिए ईश्वर शब्द है।

जाके मुंह माथा नाहिं
नहिं रूपक रप
फूप वास ते पतला
ऐसा तात अनूप।

जो चेहरा या सिर या प्रतीकात्मक रूप के बिना है,
फूल की सुगंध की तुलना में सूक्ष्म है, ऐसा सार वह है।

कबीर उपनिषदिक द्वैतवाद और इस्लामी एकत्ववाद से गहरे प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्हें वैष्णव भक्ति परंपरा द्वारा भी निर्देशित किया गया था जिसमें भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण होने पर ज़ोर दिया गया है। उन्होंने जाति के आधार पर भेद स्वीकार नहीं किया। एक कहानी यह है कि एक दिन जब कुछ ब्राह्मण लोग अपने पापों को उजागर करने के लिए गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगा रहे थे, कबीर जी ने अपने लकड़ी के पात्र को उसके पानी से भर दिया और उसे पीने के उन लोगों को दिया। उन लोगों ने निचली जाति के व्यक्ति से पानी की प्रस्तुति करने पर बहुत नाराज़ थे, जिसका उन्होंने उत्तर दिया, “अगर गंगा जल मेरे पात्र को शुद्ध नहीं कर सकता है, तो मैं कैसे विश्वास कर सकता हूं कि यह मेरे पापों को धो सकता है”।

सिर्फ जाति ही नहीं, कबीर ने मूर्ति पूजा के विरुद्ध भी बात की है और हिंदू तथा मुस्लिम दोनों को उनके संस्कारों, रीति-रिवाजों और प्रथाओ, जो उनकी दृष्टि मे व्यर्थ थे, उनकी आलोचना की। उन्होंने उपदेश दिया कि संपूर्ण श्रद्धा से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

लोग ऐसे बावरे, पाहन पूजन जायी
घर की चाकिया कहे न पूजे जेही का पीसा खायी

लोग ऐसे मूर्ख हैं कि वे पत्थरों की पूजा करने जाते हैं
वे उस पत्थर की पूजा क्यों नहीं करते जो उनके लिए खाने के लिए आटा पीसता है।

उनकी कविता में ये सारे विचार उभर कर आते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने आध्यात्मिक अनुभव और अपनी कविताओं को अलग नहीं कर सकता है। वास्तव में, वह एक अभिज्ञ कवि नहीं थे। यह उनकी आध्यात्मिक खोज, उनकी परमानंद और पीड़ा है जिसे उन्होंने अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। कबीर हर तरह से एक असामान्य कवि हैं। 15वीं शताब्दी में, जब फारसी और संस्कृत प्रमुख उत्तर भारतीय भाषाएँ थीं, तो उन्होंने बोलचाल, क्षेत्रीय भाषा में लिखने का चयन किया। सिर्फ एक ही नहीं, उनकी कविता में हिंदी, खड़ी बोली, पंजाबी, भोजपुरी, उर्दू, फारसी और मारवाड़ी का मिश्रण है। भले ही कबीर के जीवन के बारे में विवरण बहुत कम हैं, लेकिन उनकी कविताएं अभी भी हैं। वह एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें उनकी कविताओं के लिए जाना जाता है। एक साधारण व्यक्ति जिनकी कविताएँ सदियों से हैं, उनकी कविता की महानता का प्रमाण है। मौखिक रूप से प्रसारित होने के बावजूद, कबीर की कविता आज तक अपनी सरल भाषा और आध्यात्मिक विचार और अनुभव की गहराई के कारण जानी जाती है। उनकी मृत्यु के कई वर्ष बाद, उनकी कविताएं लिखने के लिए प्रतिबद्ध थीं। उन्होंने दो पंक्तिबद्ध दोहा (दोहे) और लंबे पद (गीत) लिखे जो संगीतबद्ध करने योग्य थे। कबीर की कविताओं को एक सरल भाषा में लिखा गया है, फिर भी उनकी व्याख्या करना मुश्किल है क्योंकि वे जटिल प्रतीकवाद के साथ जुड़े हुए हैं। हम उनकी कविताओं में किसी भी मानकीकृत रूप या मीटर के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं पाते हैं।


कबीर जी की शिक्षाओं ने कई व्यक्तियों और समूहों को आध्यात्मिक रूप से प्रभावित किया। गुरु नानक जी, दादू पंथ की स्थापना करने वाले अहमदाबाद के दादू, सतनामी संप्रदाय की शुरुआत करने वाले अवध के जीवान दास, उनमें से कुछ हैं जो कबीर दास को उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में उद्धृत करते हैं। अनुयायियों का सबसे बड़ा समूह कबीर पंथ के लोग हैं, जो उन्हें मोक्ष की दिशा में मार्गदर्शन करने वाला गुरु मानते हैं। कबीर पंथ अलग धर्म नहीं बल्कि आध्यात्मिक दर्शन है।

कबीर ने अपने जीवन में व्यापक रूप से यात्रा की थी। उन्होंने लंबा जीवन जिया। सूत्र बताते हैं कि उनका शरीर इतना दुर्बल हो गया था कि वे अब राम की प्रशंसा में संगीत नहीं बजा सकते थे। अपने जीवन के अंतिम क्षणों के दौरान, वह मगहर (उत्तर प्रदेश) शहर गए थे। एक किंवदंती के अनुसार, उनकी मृत्यु के बाद, हिंदू और मुसलमानों के बीच संघर्ष हुआ। हिंदू उनके शरीर का दाह संस्कार करना चाहते थे जबकि मुसलमान उन्हे दफनाना चाहते थे। चमत्कार के एक क्षण में, उनके कफन के नीचे फूल दिखाई दिए, जिनमें से आधे काशी में और आधे मगहर में दफन किए गए। निश्चित रूप से, कबीर दास की मृत्यु मगहर में हुई जहाँ उनकी कब्र स्थित है।

माटी कहे कुम्हार से तू क्यूँ रौंदे मोहे
एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूंगी तोहे
मिट्टी कुम्हार से कहती है, तुम मुझे क्यों रोंदते हो
एक दिन आएगा जब मैं तुम्हें (मृत्यु के बाद) रौंदूँगी
***
कबीर साहेब गुरु की महिमा को समझाते हुए कहते हैं की अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त कर लो लेकिन यह सीख न मानकर और तन, माया का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे, इसलिए अभिमान का त्याग करो। संसार सागर से उबरने का एक मात्र माध्यम गुरु का ज्ञान ही है।

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥

गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥

अपने कार्य और व्यवहार में भी साधु को गुरु की शिक्षाओं का पालन करना चाहिए। संत कौन है, संत वही है जो गुरु की शिक्षाओं का पालन करे और आवागमन को मिटा दे। भव सागर में डूबने का आशय है की जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा।


गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥

व्याख्या: पारस और गुरु में क्या अंतर् होता है ? जहाँ पारस लोहे को सोना बना देता है वहीँ गुरु शिष्य को अपने समान कर लेता है।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥

व्याख्या: माया के भरम जाल में फंसे हुए साधक/शिष्य कुबुद्धि के कीचड से सना हुआ होता है। गुरु का ज्ञान निर्मल जल की भाँती से होता है। जन्म जन्मांतर के पाप कर्म गुरु अपने ज्ञान रूपी पवित्र जल से पल में धोकर दूर कर देता है।


गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥

व्याख्या: गुरु कुम्हार (कुंभकार) की भाँती होता है। जैसे कुम्हार घड़ा बनाने के दौरान घड़े को अंदर से एक हाथ के द्वारा सहारा देकर बाहर से चोट मारकर उसे आकार देता है ऐसे ही गुरु शिष्य पर ज्ञान का प्रहार करता है और मानसिक स्तर पर उसे सहारा भी देता है। ऐसा करके वह शिष्य को एक रूप प्रदान करता है।


गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥

व्याख्या: गुरु महादानी है, क्योंकि वह ज्ञान का दान करता है। इसलिए गुरु के समान कोई दाता नहीं होता है। शिष्य के समान कोई याचक नहीं होता है। तीन लोक के सम्पदा गुरु शिष्य को दान में दे देते हैं। इस दोहे से भाव है की जैसे तीन लोक की सम्पदा अत्यंत ही महत्त्व रखती है वैसे ही गुरु अपने शिष्य को उससे भी मूलयवान ज्ञान को दान में दे देता है।



कबीर के विचार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में : कबीर के विचार The Thoughts of Kabir in the Present perspective
"हिंदी-साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा धनी व्यक्तित्व लेकर कोई अन्य लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।" - हजारी प्रसाद द्विवेदी

कबीर का साहित्य भारतीय चिंतन के विभिन्न आयामों का संकलन हैं। सम कालिक संत रज्जबदास, मलूकदास सहजोबाई, दादूदयाल, सूरदास का संत साहित्य उल्लेखनीय योगदान रहा है लेकिन अग्रिम पंक्ति में कबीरदास का नाम लिया जाता है। इसका कारण है कि कबीर का साहित्य आम जन भाषा का ही था। कबीर की भाषा शैली लोगों के जुबान पर थी। कबीर स्वंय कोई साहित्य नहीं लिखा, उन्होंने जो बोला वो लोगों की जुबान पर चढ़ जाता था। कबीर के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है भाषा की सरलता। गूढ़ से गूढ़ बातें भी सरल ज़बान में समझाने का हुनर था कबीर के पास। पांडित्य दिखाने के लिए उन्होंने कठिन शब्दों का चयन करने के बजाय सरल शब्दों का चयन किया जिससे उनका सन्देश आम जन तक पहुंच गया।

साहित्य समाज का दर्पण होता है। कबीरदास ने समाज में जो भी विसंगतियाँ, अन्धविश्वाश, रूढ़िवाद, धार्मिक पाखंड, आचरण की अशुद्धता देखी उसे लिखा। कबीर के सबसे बड़ी विशेषता है की उन्होंने कभी पाण्डित्यवाद नहीं दिखाया, सरल शब्दों और बोल चाल की भाषा में अपनी बात रखी। कबीर ने समाज की इकाई व्यक्ति पर जोर दिया। "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय". वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी कबीर के विचार महत्वपूर्ण हैं। आज के समाज में हर कोई दूसरों के दोष देखता है, स्वंय का विश्लेषण नहीं करता है। यही कारन है की समाज में वैमनश्य और ईर्ष्या बढ़ रही है। कबीर ने व्यक्ति के आचरण की शुद्धत्ता पर बल दिया और अवसारवाद, स्वार्थ, ढोंग और चिंता जैसी बुराइयों से दूर रहने को कहा जो आज भी प्रासंगिक है।

कबीर की और एक बात सबको आकर्षित करती है वो है उनका सरल शब्दों का चयन। कबीर का उद्देश्य कभी प्रकांड पांडित्य दिखाना नहीं रहा है। सरल से सरल शब्दों में गूढ़ से गूढ़ बात को कह देना ही कबीर का गुण है।

आज की भांति प्रतिवादी शक्तियां उस समय में भी थी, लेकिन कबीर ने प्रभावित हुए बगैर अपना स्वर मुखर रखा, चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लिम।आज भी हम धर्म और जाती के आधार पर तनाव देखते हैं। अक्सर देखते हैं की चाहे वो आर्थिक प्रभाव हो फिर राजनैतिक आम जनता लाइनों में लगी रहती है और कुछ प्रभावशाली लोग सीधे मंदिर के गर्भगृह में जाकर ईश्वर का दर्शन कर लेते हैं। ये भी तो एक रूप में असमानता ही तो है। कबीर ने जातीय और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता मानने से इंकार कर दिया। जब भी मौका लगा कबीर ने पोंगा पंडितों और मुल्ला मौलवियों के धार्मिक प्रबुद्धता को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा नहीं की कबीर ने सिर्फ हिन्दू धर्म में कुरूतियों का खंडन किया बल्कि मुस्लिम समाज को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया।

एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।

वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।
प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे l
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले ll

काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय।
त चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहरो भयो खुदाय ॥

एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई।
कहै कबीर सुनौ रे संतो भटकि मरै जनि कोई॥

वर्तमान समय में आर्थिक कद ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का पैमाना बनकर रह गया है। व्यक्तिगत गुण गौण हो चुके। कबीर ने इस मानवीय दोष को उजागर करने में कोई कसर नहीं रखी। वर्तमान में देखें तो नेता का बेटा नेता बन रहा है। चूँकि उसे अन्य लोगों की तरह से संघर्ष नहीं करना पड़ता है, वो आम आदमी से आगे रहता है। अमीर और अधिक अमीर बनता जा रहा है और गरीब और अधिक गरीब। आर्थिक असमानता के कारन संघर्ष और तनाव का माहौल है। कबीर ने कर्मप्रधान समाज को सराहा और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को सिरे से नकार दिया। छः सो साल बाद आज भी कबीर के विचारों की प्रासंगिकता ज्यों की त्यों है। कबीर का तो मानो पूरा जीवन ही समाज की कुरीतियों को मिटाने के लिए समर्पित था। आज के वैज्ञानिक युग में भी बात जहाँ "धर्म" की आती है, तर्किता शून्य हो जाती है। ये विषय मनन योग्य है।

ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय ।
सुबरन कलश सुरा भरा साधू निन्दत सोय
कबीर ने सदैव स्वंय के विश्लेषण पर जोर दिया। स्वंय की कमियों को पहचानने के बाद हम शांत हो जाते है। पराये दोष और उपलब्धियों और दोष को देखकर हम कुढ़ते हैं जो मानसिक रुग्णता का सूचक यही। यही कारन हैं की आज कल "पीस ऑफ़ माइंड" जैसे कार्यकर्म चलाये जाते हैं।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय

धर्म और समाज के बीच में आम आदमी पिसता जा रहा है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य गौण जो चुका है। वैश्विक स्तर पर देखें तो आज भी धर्म के नाम पर राष्ट्रों में संघर्ष होता रहता है। विलासिता के इस युग में ज्यादा से ज्यादा संसाधन जुटाने की फिराक में मानसिक शांति कहीं नजर नहीं आती है। ईश्वर की भक्ति ही सत्य का मार्ग है। कबीर की मानव के प्रति संवेदनशीलता इस दोहे में देखी जा सकती है।

चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय ।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ॥

जहाँ एक और हर एक सुविधा और विलासिता प्राप्त करने की दौड़ मची है, सब आपाधापी छोड़कर कबीर का मानना है की संतोष ही सुखी जीवन की कुंजी है जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर ने मानव जीवन का गहराई से अध्ययन किया और पाया की धन और माया के जाल में फंसकर व्यक्ति दुखी है।

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।

ज्ञान प्राप्ति पर ही भ्रम की दिवार गिरती है। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही यह बोध होता है की "माया " क्या है। माया के भ्रम की दिवार ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही गिरती है। माया से हेत छूटने के बाद ही राम से प्रीत लगती है।

आंधी आयी ज्ञान की, ढ़ाहि भरम की भीति
माया टाटी उर गयी, लागी राम सो प्रीति।

माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो राम नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।
माया अस्थिर है। माया स्थिरनहीं है इसलिए इस पर गुमान करना व्यर्थ है, सपने में प्राप्त राज धन जाने में कोई वक़्त नहीं लगता है।ज्यादातर समस्याओं का कारन ह तृष्णा है।

माया और तृष्णा का जाल चारों और फैला है। माया ने जीवन के उद्देश्य को धूमिल कर दिया है। जितने भी अपराध हैं उनके पीछे माया और तृष्णा ही एक कारण है। माया अपना फन्दा लेकर बाजार में बैठी है, सारा जग उस फंदे में फँस कर रह गया है, एक कबीरा हैं जिसने उसे काट दिया है।

कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट
सब जग तो फंदे परा, गया कबीरा काट।

माया का सुख चार दिन, काहै तु गहे गमार
सपने पायो राज धन, जात ना लागे बार।

माया चार प्रकार की, ऐक बिलसै एक खाये
एक मिलाबै राम को, ऐक नरक लै जाये।

कबीर या संसार की, झुठी माया मोह
तिहि घर जिता बाघबना, तिहि घर तेता दोह।

कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार
खाबत खर्चत मुक्ति भय, संचत नरक दुआर।

माया गया जीव सब,ठाऱी रहै कर जोरि
जिन सिरजय जल बूंद सो, तासो बैठा तोरि।

खान खर्च बहु अंतरा, मन मे देखु विचार
ऐक खबाबै साधु को, ऐक मिलाबै छार।

गुरु को चेला बिश दे, जो गठि होये दाम
पूत पिता को मारसी ये माया को काम।

कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम
मुख कदियाली, कुबुधि की, कहा ना देयी राम।

धन, मोह लोभ छोड़ने मात्र से भी ईश्वर की प्राप्ति हो ही जाए जरुरी नहीं है, बल्कि सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता ज्यो की त्यों बनी रहती है। पशु पक्षी धन का संचय नहीं करते हैं और ना ही पावों में जुटे पहनते हैं। आने वाले कल के लिए किसी वस्तु का संग्रह भी नहीं करते हैं लेकिन उन्हें भी सृजनहार "ईश्वर" की प्राप्ति नहीं होती है। स्पष्ट है की मन को भक्ति में लगाना होगा।

कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरै पैजार
ना कछु राखै सुबह को, मिलय ना सिरजनहार।
इच्छाओं और तृष्णाओं के मकड़जाल में आम आदमी फंस कर रह गया है। ज्ञान क्या है ? ज्ञान यही है की बेहताशा तृष्णा और इच्छाओं पर लगाम लगाना। इनका शमन करने के लिए गुरु का ज्ञान और जीवन में आध्यात्मिकता होना जरुरी है।

’जोगी दुखिया जंगम दुखिया तपसी कौ दुख दूना हो।
आसा त्रिसना सबको व्यापै कोई महल न सूना हो।

वर्तमान समय में आध्यात्मिक साधना के लिए समय नहीं है। कबीर उदहारण देकर समझाते हैं की जीवन में ईश्वर भक्ति का महत्त्व है। जीवन की उत्पत्ति के समय सर के बल निचे झुक कर मा की गर्भ के समय को याद रखना चाहिए। हमने अपने बाहर एक आवरण बना रखा है। जीवन में सुख सुविधा जुटाने की दौड़ में हमारा जीवन बीतता चला जा रहा है और हम ईश्वर से दूर होते जा रहे हैं। जीवन क्षण भंगुर है और समय रहते ईश्वर का ध्यान आवशयक है।

अर्घ कपाले झूलता, सो दिन करले याद
जठरा सेती राखिया, नाहि पुरुष कर बाद।

आठ पहर यूॅ ही गया, माया मोह जंजाल
राम नाम हृदय नहीं, जीत लिया जम काल।

ऐक दिन ऐसा होयेगा, सब सो परै बिछोह
राजा राना राव रंक, साबधान क्यो नहिं होये।

कोई टिप्पणी नहीं: