मुक्तक सलिला
सरस्वती पूजन
*
आइए! माँ शारदे का हम करें पूजन।
सलिल सिंचन कर लगाएँ माथ पर चंदन।।
हरिद्रा-कुंकुम व अक्षत सहित अर्पित पुष्प-
शंख-घंटा ध्वनि सहित हो श्लोक का गायन।।
*
दीप प्रज्वलन
दीपज्योति परब्रह्म है, सकल तिमिर कर दूर।
सुख-समृद्धि- मति विमल दे, सख बरसा भरपूर।।
*
आत्म दीप जल दुःख हरे, करे पाप का नाश।
अंतर्मन-सब जगत में, प्रसरित करे प्रकाश।।
*
धूप-अगरु की गंध हर, अहंकार दुर्गंध।
करे सुवासित प्राण-मन, फैला मदिर सुगंध।।
*
हे रविवंशज दीप जल; हरो तिमिर सब आज।
उजियारे का जगत में; दीपक कर दो राज।।
ज्ञान-उजाला दो हमें; करते विनत प्रणाम-
आत्म-जगत उजियार दो; साध जाए शुभ काज।।
*
सरस्वती वंदना
*
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी,
अम्ब विमल मति दे
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।।१।।
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।।
***
सरस्वती वंदना
बृज भाषा
*
सुरसती मैया की किरपा बिन, नैया पार करैगो कौन?
बीनाबादिनि के दरसन बिन, भव से कओ तरैगो कौन?
बेद-पुरान सास्त्र की मैया, महिमा तुमरी अपरंपार-
तुम बिन तुमरी संतानन की, बिपदा मातु हरैगो कौन?
*
धारा बरसैगी अमरित की, माँ सारद की जै कहियौ
नेह नरमदा बन जीवन भर, निर्मल हो कै नित बहियौ
किशन कन्हैया तन, मन राधा रास इन्द्रियन ग्वालन संग
भक्ति मुरलिया बजा रचइयौ, प्रेम गोपियन को गहियौ
***
हिंदी दिवस पर नवगीत
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
**************
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*****
भारत आरती
*
आरती भारत माता की
सनातन जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
संत-ऋषि विहँस, कहें यश सरस
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें श्रृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
मातृवत परस, दिव्य है दरस
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
दीप्त ज्यों अगन, शुद्ध ज्यों पवन
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
अहर्निश मगन, परिश्रम लगन
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
*****
अतिथि आमंत्रण
आत्मीय प्रिय अतिथि पधारें।
शब्द सुमन माला स्वीकारें।।
स्नेह-सलिल स्वागत सहर्ष है-
आसंदी पर आ उपकारें।।
*
स्वागत कर हम धन्य हो रहे, अतिथि पधारे परिसर में।
प्रेरक है व्यक्तित्व आपका, कीर्ति गूँजती घर-घर में।।
हुलसित पुलकित करतल ध्वनि कर; पलक पाँवड़े बिछा रहे-
करें सुशोभित आसंदी को; नम्र निवेदन हर स्वर में।।
*
अतिथि परिचय हैं समान इंसान सभी पर कुछ होते विशेष गुणवान।
जिनके सत्कर्मों की होती चर्चा सब करते गुणगान।।
ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अतिथि हो आया है-
कर स्पर्श लौह को सोना करता यह व्यक्तित्व महान।।
*
सलिला में सीपी, सीपी में मोती पलता, सब जानें।
संघर्षों से जूझ बढ़े जो, उसका लोहा सब मानें।।
मेहनत लगन समर्पण से जो नित ऊपर उठते जाते-
ऐसे ही है अतिथि आज के, वह पा लेते ठानें।।
पुलकित-हुलसित-प्रमुदित-हर्षित हो हम वंदन करते हैं।
स्रोत प्रेरणा के अनुपम हे अतिथि! नमन हम करते हैं।।
*
सद्गुण के भंडार हे!; सदाचार आगार।
दस दिश गुंजित कीर्ति तव, धरती के श्रृंगार।।
धूप सुवास बिखर रही; जले प्रेरणा-दीप-
तम हर दिव्य प्रकाश दो; स्वीकारो आभार।।
अतिथि स्वागत
नियत तिथि पर अतिथि हे!; आप पधारे आज।
करतल ध्वनि वंदन करे; माथे तिलक विराज।।
रोली चंदन सुशोभित; अक्षत भाव अनंत।
शब्द-गलहार हैं; स्वीकारें श्रीमंत।।
* माइक वंदना
ध्वनि विस्तारक यंत्र हे! स्वीकारो वंदन।
मम वाणी विस्तार दो, करते अभिनन्दन।।
दस दिश अनहद नाद सम गूँजे मेरा वाक्-
शब्द-शब्द में अर्थ भर; सब जग सुने अवाक्।।
*
नववर्ष स्वागत है नव वर्ष!, नव उत्कर्ष दो।
हरो तम-गम; पुलककर नव हर्ष दो।
निरर्थक बहसें न हों; मत ऐक्य हो-
एक हों मन-प्राण, स्वस्थ्य विमर्श दो।।
*
नया ईस्वी सन लाया है; नव आशा उपहार।
स्नेह सौख्य सद्भाव अब स्वागत-बंदनवार।।
ईसा जैसी सहनशक्ति हो; क्षमा करें हम सबको-
ईर्ष्या-द्वेष मुक्त हो हर मन; भू हो स्नेहागार।।
*
हिजरी सन
पैगंबर का संदेश सुनाने आया।
परमपिता है एक हमारा यह संदेशा लाया।।
बिसरा दो मतभेद सभी; मतभेद न होने देना-
हम सब औलादें हैं रब की; सब पर उसका साया।।
*
विक्रम संवत बल-विक्रम की दिखा रहा है राह।
सबसे सबका सदा भला हो; मन में हो यह चाह।।
सबल; निबल हितरक्षक हों; दूर करें तकलीफ-
जीव सभी संजीव हो सकें; पाएँ प्रभु से वाह।।
*
शक संवत शक सभी मिटाकर शंकर हमें बनाएँ।
हर मन में श्रद्धा-विश्वास सुदीपक सदा जलाएँ।।
कर-पग साथ रहें अपने; सुख-दुःख में हों हम साथ -
स्नेह सलिल में नहा; साधना करें सफलता पाएँ।।
*
नव वर्ष नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
* नया साल आ रहा है, खूब मनाओ हर्ष।
कमी न कोशिश में रहे, तभी मिले उत्कर्ष।।
चन्दन वंदन कर मने, नया साल त्यौहार-
केक तजें, गुलगुले खा, पंचामृत पी यार।।
*
शुभकामना आपको अर्पित हमारी हार्दिक शुभकामना।
दूर भव-बाधा सकल हो; पूर्ण हो मनकामना।।
पग रखो जब पंथ पर तो लक्ष्य खुद आए समीप-
जुटें संसाधन सभी; करना नहीं तुम याचना।।
*
दुआ
दुआ सभी के लिए है; सभी सुखी हों मीत।
सबका सबसे हित सधे; पले सभी में प्रीत।।
सफल साधना कर सभी; नई बनाएँ रीत -
सद्भावों से सुवासित; 'सलिल' सुनाएँ गीत।।
*
स्वर गीत
'अ' से अजगर; अचकन; अफसर,
'आ' से आम; आग, आराम।
'इ' से इमली; इस; इकतारा,
'ई' से ईख; ईश; ईनाम।
'उ' से उजियारा; उलूक, उठ,
'ऊ' से ऊखल; ऊसर; ऊन।
'ए' से एड़ी; एक; एकाकी
'ऐ' से ऐनक; ऐसा; ऐन।
'ओ' से ओष्ठ; ओखली; ओला,
'औ' से औरत और औजार।
'अं' से अंकुर; अंजन; अंजुलि,
'अ:' सीख स्वर हो होशियार।
***
***
पुस्तक चर्चा-
''राजस्थानी साहित्य में रामभक्ति-काव्य'' मननीय शोधकृति
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- 'राजस्थानी साहित्य में रामभक्ति-काव्य, शोध ग्रन्थ, डॉ. गुलाब कुँवर भंडारी, प्रथम संस्करण २०१०, आकार २२से.मी.x १४ से.मी., पृष्ठ ३८०, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, मूल्य ७५०/-, त्रिभुवन प्रकाशन, गुलाब वाटिका, पावटा बी मार्ग, जोधपुर।]
*
हिंदी साहित्य में भक्ति काल कभी न रुकनेवाली भाव धारा है। ब्रम्ह को निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में आराधा गया है। सगुण भक्ति में राम और कृष्ण दो रूपों को अपार लोकप्रियता मिली है। वीर भूमि राजस्थान में श्रीनाथद्वारा और मीरां बाई श्री कृष्ण भक्ति के केंद्र रहे हैं। रामावतार से सम्बंधित कोई स्थान या व्यक्ति राजस्थान में न होने के बाद भी विषम परिस्थितियों से जूझते हुए एक अल्प शिक्षित गृहणी द्वारा स्वयं को उच्च शिक्षित कर स्तरीय शोध कार्य करना असाधारण पौरुष है। राम पर शोध करना हो तो उत्तर प्रदेश अथवा राम से सम्बंधित अन्य क्षेत्रों के राम साहित्य पर कार्य करना सुगम होता किन्तु राजस्थानी साहित्य में राम-भक्ति काव्य की खोज, अध्ययन और उसका मूल्यांकन करना वस्तुत: दुष्कर और श्रम साध्य कार्य है। ग्रन्थ लेखिका श्रीमती गुलाब कुँवर भंडारी (१४.१०.१९३६-७.१९९१) ने पूर्ण समर्पण भाव से इस शोध ग्रंथ का लेखन किया है।
राजस्थान जुझारू तेवरों के लिए प्रसिद्ध रहा है। जान हथेली पर लेकर रणभूमि में पराक्रम कथाएँ लिखने वाले वीरों के साथ जोश बढ़ानेवाले कवि भी होते थे जो कलम और तलवार समान दक्षता से चला पाते थे। भावावेग राजस्थानियों की रग-रग में समय होता है। भक्ति का प्रबल आवेग राजस्थान के जन-मन की विशेषता है। वीरता के साथ-साथ सौंदर्यप्रियता और समर्पण के साथ-साथ बलिदान को जीते राजस्थानी कवियों ने एक और शत्रुओं को ललकारा तो दूसरी ओर ईशाराधना भी प्राण-प्राण से की।
शोधकर्त्री ने राजस्थानी साहित्य में राम-काव्य को अपभ्रंश-काल से खोजा और परखा है। अहिंसा को सर्वाधिक महत्व देनेवाला जैन साहित्य भी सशस्त्र संघर्ष हेतु ख्यात राम-महिमा के गायन से दूर नहीं रह सका है। ग्रन्थ में रामभक्ति का विकास और राजस्थान में प्रसार, सगुण राम-भक्ति संबन्धी प्रबन्ध काव्य, सगुण राम-भक्ति सम्बन्धी मुक्तक काव्य, निर्गुण राम-भक्ति संबंधी कविता तथा राजस्थानी राम-भक्त कवि एवं उनका काव्य शीर्षक पाँच अध्यायों में यथोचित विस्तार के साथ 'राम' शब्द की व्युत्पत्ति-अर्थ, राम के स्वरुप का विकास, रामभक्ति शाखा का विकास-प्रसार, सगुण राम संबन्धी प्रबन्ध व मुक्तक काव्यों का विवेचन, निर्गुण राम संबंधी काव्य ग्रंथों का अनुशीलन तथा राम-भक्त जैन कवियों के साहित्य का विश्लेषण किया गया है।
उल्लेख्य है कि मूल्यांकित अनेक कृतियाँ हस्तलिखित हैं जिनकी खोज करना, उन्हें पाना और पढ़ना असाधारण श्रम और लगन की माँग करता है। गुलाब कुँवर जी ने नव मान्यताएँ भी सफलतापूर्वक स्थापित की हैं। राम-भक्ति प्रधान प्रबंध काव्यों में कुशललाभ, हरराज, माधोदास दधवाड़िया, रुपनाथ मोहता, मंछाराम की कृतियों का विवेचन किया गया है। राम-भक्ति मुक्तक काव्य के अध्ययन में ४९ कवि सम्मिलित हैं। सर्वज्ञात है कि मीरांबाई समर्पित कृष्णभक्त थीं किंतु लखिमा ने मीरां-साहित्य से राम-भक्ति विषयक अंश उद्धृत कर उन्हें सफलतापूर्वक राम-भक्त सिद्ध किया है। स्थापित मान्यता के विरुद्ध किसी शोध की स्थापना कर पाना सहज नहीं होता। यह अलग बात है कि राम और कृष्ण दोनों विष्णु के अवतार होने के कारण अभिन्न और एक हैं।
निर्गुण राम-भक्ति काव्य के अन्तर्गत दादू सम्प्रदाय के १२, निरंजनी संप्रदाय के १४, चरणदासी संप्रदाय की ३, रामस्नेही संप्रदाय १९, अन्य ८ तथा १२ जैन कवियों कवियों के साहित्य का गवेषणा पूर्ण विश्लेषण इस शोधग्रंथ को पाठ ही नहीं मननीय और संग्रहणीय भी बनाता है। ग्रंथांत में ४ परिशिष्टों में हस्तलिखित ग्रंथ-विवरण, रामभक्ति लोकगीत, रामभक्त कवियों का संक्षिप्त विवरण तथा सहायक साहित्य का उल्लेख इस शोध ग्रन्थ को सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में भी उपयोगी बनाता है।
श्रीमती गुलाब कुँवरि जी की भाषा शुद्ध, सरस तथा सहज ग्राह्य है। उनका शब्द-भंडार समृद्ध है। वे न तो अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करती हैं, न सम्यक शब्द-प्रयोग करने से चूकती हैं। कवियों तथा कृतियों का विश्लेषण करते समय वे पूरी तरह तटस्थ और निरपेक्ष रह सकी हैं। राजस्थान और राम भक्ति विषयक रूचि रखनेवाले पाठकों और विद्वानों के लिए यह कृति अत्यंत महत्वपूर्ण है। ग्रन्थ का मुद्रण शुद्ध, सुरुचिपूर्ण तथा आवरण आकर्षक है। इस सर्वोपयोगी कृति का प्रकाशन करने हेतु लेखिका के पुत्र श्री त्रिभुवन राज भंडारी तथा पुत्रवधु श्रीमती सरिता भंडारी साधुवाद के पात्र हैं।
***
***
बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
***
कार्यशाला-
छंद बहर का मूल है- १.
*
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
क. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतबी मौक़ूफ़-
इस बहर में बहुत कम लिखा गया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ायलात मुफ़तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार ११११२ २१२१ ११११२ २१२१) हैं।
यह १८ वर्णीय अथधृति जातीय शारद छंद है जिसमें ९-९ पर यति तथा पदांत में जगण (१२१) का विधान है।
यह २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद है जिसमें १२-१२ मात्राओं पर यति तथा पदांत में १२१ है।
उदाहरण-
१.
थक मत, बोझा न मान, कदम उठा बार-बार
उपवन में शूल फूल, भ्रमर कली पे निसार
पगतल है भू-बिछान, सर पर है आसमान
'सलिल' नहीं भूल भूल, दिन-दिन होगा सुधार
२.
जब-जब तूने कहा- 'सच', तब झूठा बयान
सच बन आया समक्ष, विफल हुआ न्याय-दान
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते।
३.
अरकान 'मुफ्तइलुन फ़ायलात मुफ्तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार २११२ २१२१ २११२ २१२१)
क्यों करते हो प्रहार?, झेल सकोगे न वार
जोड़ नहीं, छीन भी न, बाँट कभी दे पुकार
कायम हो शांति-सौख्य, भूल सकें भेद-भाव
शांत सभी हों मनुष्य, किस्मत लेंगे सुधार
४.
दिल में हम अप/ने नियाज़/रखते हैं सो/तरह राज़
सूझे है इस/को ये भेद/जिसकी न हो/चश्मे-कोर
प्रथम पंक्ति में ए, ओ, अ की मात्रा-पतन दृष्टव्य।
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
२८-१२-२०१६
***
लघुकथा-
सफ़ेद झूठ
*
गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टीवी बंद कर दिया। कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन संसद सदस्यों से में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय देना सत्य से परे है. सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?
***
लघुकथा -
कब्रस्तान
*
महाविद्यालय के प्राचार्य मुख्य अतिथि को अपनी संस्था की गुणवत्ता और विशेषताओं की जानकारी दे रहे थे. पुस्तकालय दिखलाते हुए जानकारी दी की हमारे यहाँ विषयों की पाठ्य पुस्तकें तथा सन्दर्भ ग्रंथों के साथ-साथ अच्छा साहित्य भी है. हम हर वर्ष अच्छी मात्र में साहित्यिक पुस्तकें भी क्रय करते हैं.
आतिथि ने उनकी जानकारी पर संतोष व्यक्त करते हुए पुस्तकालय प्रभारी से जानना चाहा कि गत २ वर्षों में कितनी पुस्तकें क्रय की गयीं, विद्यार्थियों ने कितनी पुस्तकें पढ़ने हेतु लीं तथा किन पुस्तकों की माँग अधिक थी? उत्तर मिला इस वर्ष क्रय की गयी पुस्तकों की आदित जांच नहीं हुई है, गत वर्ष खरीदी गयी पुस्तकें दी नहीं जा रहीं क्योंकि विद्यार्थी या तो विलम्ब से वापिस करते हैं या पन्ने फाड़ लेते हैं.
नदी में बहते पानी की तरह पुस्तकालय से प्रतिदिन पुस्तकों का आदान-प्रदान न हो तो उसका औचित्य और सार्थकता ही क्या है? तब तो वह किताबों का कब्रस्तान ही हो जायेगा, अतिथि बोले और आगे चल दिए.
२८-१२-२०१५
***
नवगीत
ब्रम्हानंद सहोदर*
रसानंद नव गीत मनोहर
ब्रम्हानंद सहोदर है।
*
क्रंदन-रुदन, दर्द-पीड़ा ही
नहीं सत्य है।
साध्य शांति-सुख हेतु नहीं क्या
सभी कृत्य है।
संगति और विसंगति संग
नहीं रहतीं क्या?
शिला-रेत पर नदी श्वास की
सम बह बनी धरोहर है।
*
चल-गिर, उठ-बढ़ते जाना ही
सही नीति है।
सुख पा, दुख का रोना रोना
गलत रीति है।
हर अभाव के दोषी बाकी
कह न, कोशिशें-
करो अथक, मन से मत हारो
वरो सफलता, दर पर है।
*
शब्द-ब्रम्ह ही शिवानंद है,
जीवन उत्सव है।
कोई विधा न निरानंद है,
हँसना लाघव है।
हैं चुनौतियाँ हरदम सम्मुख
यत्न, लड़ें-जीतें-
हाथ हाथ पर धर मत बैठें
कदम-कदम पर अवसर हैं।
***
दोहा 'दो है' कह रहा, कर दोनों को एक।
तेज द्वैत अद्वैत वर, रीति-नीति शुभ नेक।।
*
सत्-शिव-सुंदर वरण कर, गह सत्-चित्-आनंद।
गागर में सागर भरे, अनुपम दोहा छंद।।
*
अमिधा-व्यंजन-लक्षणा, प्रिय है त्रयी समान।
भेद-भाव देता मिटा, दोहा नव रस-खान।।
*
दोहा दुनिया में नहीं, आरक्षण का काम।
समझ-सोच युग-सच कहे, कवि पाता यश-नाम।।
*
चरण विषम-सम को मिले, अवसर सदा समान।
बिन वरीयता कथ्य कह, दोनों हों रसवान।।
*
लघु-गुरु दूरी दूरकर, नीर-क्षीर सम एक।
नेक इरादे ले कहें, अनथक कथ्य अनेक।।
*
कल न अकल बिन रह सके, अ-कल न कल बिन जान।
द्विकल त्रिकल चतुकल रखें, सनझ-बूझ मतिमान।।
*
गौ-भाषा को दोहकर, अर्थ-दुग्ध बिन अर्थ।
दोहा-ग्वाला बाँटता, इस सम कौन समर्थ।।
*
नेह-नर्मदा धार है, दोहा सलिल-प्रवाह।
कवि सुन-पढ़-रच समझकर, डूबे मिले न थाह।।
*
इसीलिए सच मत तजें, 'जगण' आदि है दोष।
इसी लिए निर्दोष है, समझ करें संतोष।।
*
यगण-मगण विषमांत में, रखते रहे सुजान।
वर्ज्य न कहिए-मानिए, वृथा जिद्द-हठ ठान।।
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कुंडलिया
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झर-झर-झर निर्झर झरे, हरती ताप फुहार।
चट्टानों को भी नमी, देती मृदुल फुहार।।
देती मृदुल फुहार, मृदा को भी नवजीवन।
हरी-भरी हो धरा, तरंगित मन संजीवन।।
ऊषा-संध्या सलिल-धार में नचें थिरककर।
रवि-शशि झूमें संग, धरे निर्झर झर-झर-झर।।
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तेरह-ग्यारह यति रखें, मात्राएँ लययुक्त।
दोहा-रोला को करे, कुंडलिया संयुक्त।।
कुंडलिया संयुक्त, चरण चौ-पाँच एक हो।
ग्यारह-तेरह कला, रखें रोला हरेक हो।।
आदि अंत सम रहे, सत्य युग का सकती कह।
कुंडलिया दिन-रात, सदृश है तेरह-ग्यारह।।
१२-११-२०१८
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बीज नाम कुल तन दिया, तुमने मुझको तात
अन्धकार की कोख से, लाकर दिया प्रभात
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गोदी आँचल लोरियाँ, उँगली कंधा बाँह
माँ-पापा जब तक रहे, रही शीश पर छाँह
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शुभाशीष से भरा था, जब तक जीवन पात्र
जान न पाया रिक्तता, अब हूँ याचक मात्र
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पितृ-चरण स्पर्श बिन, कैसे हो त्यौहार
चित्र देख मन विकल हो, करता हाहाकार
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तन-मन की दृढ़ता अतुल, खुद से बेपरवाह
सबकी चिंता-पीर हर, ढाढ़स दिया अथाह
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श्वास पिता की धरोहर, माँ की थाती आस
हास बंधु, तिय लास है, सुता-पुत्र मृदु हास
१५-११-२०१४
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