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सोमवार, 27 दिसंबर 2021

सॉनेट, उपनिषद, समीक्षा, दोहे, नवगीत, श्रुति कुशवाहा, ब्रम्हजीत गौतम, कृष्ण कुमार 'बेदिल'

सॉनेट
उपनिषद
*
आत्मानंद नर्मदा देती, नाद अनाहद कलकल में।
धूप-छाँव सह अविचल रहती, ऊँच-नीच से रुके न बहती।
जान गई सच्चिदानंद है, जीवन की गति निश्छल में।।
जो बीता सो रीता, होनी हो, न आज चिंता तहती।।

आओ! बैठ समीप ध्यान कर गुरु से जान-पूछ लो सत्य।
जिज्ञासा कर, शंका मत कर, फलदायक विश्वास सदा।
श्रद्धा-पथिक ज्ञान पाता है, हटता जाता दूर असत्य।।
काम करो निष्काम भाव से, होनी हो, जो लिखा-बदा ।।

आत्म और परमात्म एक हैं, पूर्ण-अंश का नाता है।
उसको जानो, उस सम हो लो, सबमें झलक दिखे उसकी।
जिसको उसका द्वैत मिटे, अद्वैत एक्य बन जाता है।।
काम करो निष्काम भाव से, होगा वह जो गति जिसकी।।

करो उपनिषद चर्चा सब मिल, चित्त शांत हो, भ्रांति मिटे।
क्रांति तभी जब स्वार्थ छोड़, सर्वार्थ राह चल, शांति मिले।।
२७-१२-२०२१
***
पानी का वादा किया, पूर दिए तालाब.
फ़ूल बनाया शूल दे, कहते दिए गुलाब.
*
कर देकर जनता मरे, शासन है बेफ़िक्र.
सेठों का हित सध सके, बस इतनी है फ़िक्र.
*
मेघा बरसे शिव विहँस, लें केशों में धार.
बहा नर्मदा नेह की, करें जगत उद्धार.
***
कृति चर्चा:
'कशमकश' मन में झाँकती कविताएँ
[कृति विवरण: कशमकश, कविता संग्रह, ISBN ९७८-९३-८५०१३-६५-२, श्रुति कुशवाहा, वर्ष २०१६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य २५०/-, अंतिका प्रकाशन, सी ५६ / यूजीएफ़ ४, शालीमार बाग़, विस्तार २, गाज़ियाबाद २०१००५, ०१२० २६४८२१२, ९८७१८५६०५३, antika56@gmailcom, कवयत्री संपर्क बी १०१ महानंदा ब्लोक, विराशा हाईटस, दानिश कुञ्ज पुल के समीप, कोलर मार्ग, भोपाल ४६२०४२, shrutyindia@gmail.com]
*
मूल्यों के संक्रमण और आधुनिक कविता के पराभव काल में जब अच्छे-अच्छे पुरोधा कविता का अखाड़ा और ग़ज़ल का मजमा छोड़कर दिनानुदिन अधिकाधिक लोकप्रिय होते नवगीत की पिचकारी थामे कबीरा गाने की होड़ कर रहे हैं, तब अपनी वैचारिक प्रबद्धता, आनुभूतिक मार्मिकता और अभिव्यक्तात्मक बाँकपन की तिपाई पर सामाजिक परिदृश्य का जायजा लेते हुए अपने भीतर झाँककर, बाहर घटते घटनाक्रम के प्रति आत्मीयता रखते हुए भी पूरी शक्ति से झकझोरने का उपक्रम करती कविता को जस- का तस हो जाने देने के दुस्साहस का नाम है 'श्रुति'। 'श्रुति' की यह नियति तब भी थी जब लिपि, लेखनी और कागज़ का आविष्कार नहीं हुआ था और अब भी है जब नित नए गैजेट्स सामने आकर कागज़ और पुस्तक के अस्तित्व के लिए संकट की घोषणा कर रहे हैं। 'श्रुति' जन-मन की अभिव्यक्ति है जो बिना किसी नकाब के जन के मन को जन के मन के सामने अनावृत्त करती है, निर्वसन नहीं। कायदों और परंपराओं के पक्षधर कितनी भी परदेदारी कर लें 'श्रुति' को साँसों का सच और आसों की पीड़ा जानने और कहने से रोक नहीं पाते। जब 'श्रुति' अबाध हो तो 'स्मृति' को अगाध होने से कौन रोक सकता है? जब कविता स्मृति में सुरक्षित हो तो वह समय का दस्तावेज हो जाती है।
'कशमकश' चेतनता, जीवंतता और स्वतंत्रता का लक्षण है। जड़ या मृत में 'कशमकश' कैसे हो सकती है? किसी पिछलग्गू में केवल अनुकरण भाव होता है। 'कशमकश' वैचारिक आन्दोलन का दूसरा नाम है। आंदोलित होती 'श्रुति' जन-गण के मन में घट रहे या जन-मन को घटा रहे घटनाक्रम के प्रति आक्रोशित हो, यह स्वाभाविक है। एक जन की पीड़ा दूसरा न सुने तो उस पर प्रतिक्रया और कुछ करने या न करने की कशमकश कैसे हो? इस रूप में 'श्रुति' ही 'कशमकश' को जन्म देती है। संयोगवश विवेच्य काव्य संग्रह 'कशमकश' की जननी का नाम भी 'श्रुति' है। यह 'श्रुति' सामान्य नहीं 'कुशवाहा' अर्थात कुश धारण करनेवाली है। कुश धारण किया जाता है 'संकल्प' के समय। जब किसी कृत्य को निष्पादित करने का निश्चय कर लिया, संसाधन जुटा लिए, कृत्य संपादित करने के लिए पुरोहित अर्थात मार्गदर्शक भी आ गया तो हाथ में कुश लेकर भूमि पर जल छोड़ते हुए संकल्प में सहायक होता है 'कुश'। जन-मन की 'कशमकश' को कविता रूपी 'कुश' के माध्यम से उद्घाटित ही नहीं यथासंभव उपचारित करने का संकल्प करती 'श्रुति' की यह कृति सिर्फ पठनीय नहीं चिंतनीय भी है।
'श्रुति' की सत्तर कविताओं का यह संकलन 'कशमकश' असाधारण है। असाधारण इस अर्थ में कि यह अपने समय की 'प्रवृत्तियों' का निषेध करते हुए भी 'निवृत्ति' का पथ प्रशस्त नहीं करता। समय की परख कर पाना हर रचनाकार के लिए आवश्यक है। श्रुति कहती है-
'जब बिकने लगता है धर्म
और घायल हो जाती है आस्था
चेहरे हो जाते हैं पत्थर
दिखने में आदमी जैसा
जब नहीं रह जाता आदमी
जब चरों ओर मंडराता है संकट
वही होता है
कविता लिखने का सबसे सही वक़्त'
श्रुति की कविताएँ इस बात की साक्षी हैं कि उसे समय की पहचान है। वह लिजलिजी भावनाओं में नहीं बहती। ज़िन्दगी शीर्षक कविता में कवयित्री का आत्म विश्वास पंक्ति-पंक्ति में झलकता है-
नहीं,
मेरी ज़िन्दगी
तुमसे शुरू होकर
तुमपर ख़त्म नहीं होती....
... हाँ
मेरी ज़िंदगी
मुझसे शरू होती है
और ख़त्म वहीं होगी
जहाँ मैं चाहूँगी ...
स्त्री विमर्श के नाम पर अपने पारिवारिक दायित्वों से पलायन कर कृत्रिम हाय-तोबा और नकली आंसुओं से लबालब कविता करने के स्थान पर कवयित्री संक्षेप में अपने अस्तित्व और अस्मिता को सर्वोच्च मानते हुए कहती है-
अब बस
आज मैं घोषित करती हूँ
तुम्हें
एक आम आदमी
गलतियों का पुतला
और खुद को
पत्नी परमेश्वर
ये कविताएँ हवाई कल्पना जगत से नहीं आईं है। इन्हें यथार्थ के ठोस धरातल पर रचा गया है। स्वयं कवयित्री के शब्दों में-
मेरी कविता का
कचरा बीनता बच्चा
बूट पोलिश करता लड़का
संघर्ष करती लड़की
हाशिए पर खड़े लोग
कोइ काल्पनिक पात्र नहीं
दरअसल
मेरे भीतर का आसमान है
आशावाद श्रुति की कविताओं में खून की तरह दौड़ता है-
सूरज उगेगा एक दिन
आदत की तरह नहीं
दस्तूर की तरह नहीं....
.... एक क्रांति की तरह
.... जिस दिन
वो सूरज उगेगा
तो फिर नहीं होगी कभी कोई रात
'वक्त कितना कठिन है साथी' शीर्षक कविता में स्त्रियों पर हो रहे दैहिक हमलों की पड़ताल करती कवयित्री लीक से हटकर सीधे मूल कारण तलाशती है। वह सीधे सीधे सवाल उठाती है- मैं कैसे प्रेम गीत गाऊँ?, मैं कैसे घर का सपना संजोऊँ?, मैं कैसे विश्वास की नव चढ़ूँ? उसकी नज़र सीधे मर्म पर पहुँचती है कि जो पुरुष अपने घर की महिलाओं की आबरू का रखवाला है, वही घर के बाहर की महिलाओं के लिए खतरा क्यों है? कैसी विडम्बना है?
मर्द जो भाई पति प्रेमी है
वो दूसरी लड़कियों के लिए
भेदिया साबित हो सकता है कभी भी....
'क्या तुम जानते हो' में दुनिया के चर्चित स्त्री-दुराचार प्रकरणों का उल्लेख कर घरवाले से प्रश्न करती है कि वह घरवाली को कितना जानता है?
बताओ क्या तुम जानते हो
सालों से घर के भीतर रहनेवाली
अपनी पत्नी के बारे में
जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद
हर सुबह उठती है तुमसे पहले
क्या उसने नींद पर विजय पा ली है?
जो हर वक्त पकाती है तुम्हरी पसंद का खाना
क्या उसे भी वही पसंद है हमेशा से
जो बिस्तर बन जाती है तुम्हारी कामना पर
क्या वो हर बार तैयार होती है देह के खेल के लिए
श्रुति की कविताओं का वैशिष्ट्य तिलमिला देनेवाले सवाल शालीन-शिष्ट भाषा में किंतु दृढ़ता और स्पष्टता के साथ पूछना है। वह न तो निरर्थक लाग-लपेट करते आवरण चढ़ाती है, न कुत्सित और अश्लील शब्दावली का प्रयोग करती है। राम-सीता प्रसंग में गागर में सागर की तरह चंद पंक्तियाँ 'कम शब्दों में अधिक कहने' की कला का अनुपम उअदाह्र्ण है-
सीता के लिए ही था ण
युद्ध
हे राम
फिर जीवित सीता को
क्यों कराया अग्नि-स्नान
श्रुति का आत्मविश्वास, अपने फैसले खुद करने का निश्चय और उनका भला या बुरा जो भी हो परिणाम स्वीकारने की तत्परता काबिले -तारीफ़ है। वह अन्धकार, से प्रेम करना, रावण को समझना तथा कुरूपता को पूजना चाहती है क्योंकि उन्होंने क्रमश: प्रकाश की महत्ता , सीता की दृढ़ता तथा सुन्दरता को उद्घाटित किया किंतु इन सबको भुला भी देना चाहती है कि प्रकाश, दृढ़ता और सुनदरता अधिक महत्वपूर्ण है। यह वैचारिक स्पष्टता और साफगोई इन कविताओं को पठनीय के साथ-साथ चिन्तनीय भी बनाती हैं।
'आशंका' इस संकलन की एक महत्वपूर्ण कविता है। यहाँ कवयित्री अपने पिटा के जन्मस्थान से जुड़ना चाहती है क्योंकि उसे यह आशंका है कि ऐसा ण करने पर कहीं उसके बच्चे भी उसके जन्म स्थान से जुड़ने से इंकार न कर दें। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने और पालने वाले जीवन-मूल्यों और परंपराओं की जमीन पर रची गयी इस रचना का स्वर अन्य से भिन्न किंतु यथार्थपूर्ण है।
एक और मार्मिक कविता है 'पापा का गुस्सा'। पापा के गुस्से से डरनेवाली बच्ची का सोचना स्वाभाविक है कि पापा को गुस्सा क्यों आता है? बड़े होने पर उसे प्रश्न का उत्तर मिलता है-
आज समझ पाई हूँ
उनके गुस्से का रहस्य
पापा दरअसल गुस्सा नहीं होते
दुखी होते हैं
जब वे डांटते
तो हमारे लिए ही नहीं
उनके लिए भी सजा होती
आत्मावलोकन और आत्मालोचन इन कविताओं में जहाँ-तहाँ अन्तर्निहित है। कवयित्री गुलाब को तोड़ कर गुल्दासे में सजती है पर खुद को चोट पहुँचाने वाले को क्षमा नहीं कर पाती, भूखे भिखारी को अनदेखा कर देती है, अशक्त वृद्ध को अपनी सीट नहीं देती, अभाव में मुस्कुरा नहीं पाती, सहज ही भूल नहीं स्वीकारती यह तो हम सब करते हैं पर हमसे भिन्न कवयित्री इसे कवि होने की अपात्रता मानती है-
नहीं, मैं कवि नहीं
मैं तो मात्र
रचयिता हूँ
कवि तो वह है
जो मेरी कविता को जीता है।
जिस कविता के शीर्षक से पुस्तक के नामकरण हुआ है, वह है 'कशमकश'। अजब विडम्बना है कि आदमी की पहचान उसके अस्तित्व, कार्यों या सुयश से नहीं दस्तावेजों से होती है-
मैंने
पेनकार्ड रखा
पासपोर्ट, आधार कार्ड
मतदाता प्रमाण पत्र
खुद से जुड़े तमाम दस्तावेज सहेजे
और निकल पडी
लेकिन यह क्या
खुद को रखना तो भूल हे एगी
मुड़कर देखा तो
दूर तक नज़र नहीं आई मैं
अजीब कशमकश है
खुद को तलाशने पीछे लौटूं
या खुद के बगैर आगे बढ़ जाऊँ...
ये कवितायेँ बाहर की विसंगतियों का आकलन कर भीतर झाँकती हैं। बाहर से उठे सवालों के हल भीतर तलाशती कविताओं की भाषा अकृत्रिम और जमीनी होना सोने में सुहागा है। ये कविताएं आपको पता नहीं रहने देती, आपके कथ्य का भोक्ता बना देती हैं, यही कवयित्री और उसकी कारयित्री प्रतिभा की सफलता है।


***
एक दोहा
मोदी राहुल जप रहे, राहुल मोदी नाम
नूरा कुश्ती कर रहे, जाता ठगा अवाम


२७-१२-२०१७
***
सामयिक हास्य कविता:
राहुल जी का डब्बा गोल
संजीव
*
लम्बी_चौड़ी डींग हाँकतीं, मगर खुल गयी पल में पोल
मोदी जी का दाँव चल गया, राहुल जी का डब्बा गोल
मातम मना रहीं शीला जी, हुईं सोनिया जी बेचैन
मौका चूके केजरीवाल जी, लेकिन सिद्ध हुए ही मैन
हंग असेम्बली फिर चुनाव का, डंका जनता बजा रही
नेताओं को चैन न आये, अच्छी उनकी सजा रही
लोक तंत्र को लोभ तंत्र जो, बना रहे उनको मारो
अपराधी को टिकिट दे रहे, जो उनको भी फटकारो
गहलावत को वसुंधरा ने, दिन में तारे दिखा दिये
जय-जयकार रमन की होती, जोगी जी पिनपिना गये
खिला कमल शिवराज हँस रहे, पंजा चेहरा छिपा रहा
दिग्गी को रूमाल शीघ्र दो, छिपकर आँसू बहा रहा
मतदाता जागो अपराधी नेता, बनें तो मत मत दो
नोटा बटन दबाओ भैया, एक साथ मिल करवट लो
***
पुस्तक चर्चा-
एक बहर पर एक ग़ज़ल - अभिनव सार्थक प्रयास
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक परिचय- एक बहर पर एक ग़ज़ल, ब्रम्हजीत गौतम, ISBN ९७८-८१-९२५६१३-७-०, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १४४/-, मूल्य २००/-, शलभ प्रकाशन १९९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली, गाजियाबाद २०१०१०, रचनाकार संपर्क- युक्कौ २०६ पैरामाउंट सिम्फनी, क्रोसिंग रिपब्लिक, गाज़ियाबाद २०१०१६, चलभाष- ९७६०००७८३८।
*
'नाद' ही सृष्टि का मूल है। नाद की निरंतरता उसका वैशिष्ट्य है। नाद के आरोह और अवरोह लघु-गुरु के पर्याय हैं। नाद के साथ विविध ध्वनियाँ मिलकर अक्षर को और विविध अक्षर मिलकर शब्द को जन्म देते हैं। लघु-गुरु अक्षरों के विविध संयोग ही गण या रुक्न हैं जिनके अनेक संयोग लयों के रूप में सामने आते हैं। सरस लयों को काव्य शास्त्र छंद या बहर के रूप में वर्णित करता है। हिंदी पिंगल में छंद के मुख्य २ प्रकार मात्रिक (९२,२७,७६३) तथा वार्णिक (१३,४२,१७,६२६) हैं।१ यह संख्या गणितीय आधार पर गिनी गयी है। सामान्यत: २०-२५ प्रकार के छंद ही अधिक प्रयोग किये जाते हैं। उर्दू में बहरों के मुख्य २ प्रकार मुफरद या शुद्ध (७) तथा मुरक्कब या मिश्रित (१२) हैं।२ गजल छंद चेतना में ६० औज़ानों का ज़िक्र है।३ गजल ज्ञान में ६७ बहरों के उदाहरण हैं।४ ग़ज़ल सृजन के अनुसार डॉ. कुंदन अरावली द्वारा सं १९९१ में प्रकाशित उनकी पुस्तक इहितिसाबुल-अरूज़ में १३२ नई बहरें संकलित हैं।५ अरूज़े-खलील-मुक्तफ़ी में सालिम (पूर्णाक्षरी) बहरें १५ तथा ज़िहाफ (अपूर्णाक्षरी रुक्न) ६२ बताये गए हैं।६ गज़ल और गज़ल की तकनीक में ७ सालिम, २४ मुरक्कब बहरों के नमूने दिए गए हैं। ७. विवेच्य कृति में ६५ बहरों पर एक-एक ग़ज़ल कहीं गयी है तथा उससे सादृश्य रखने वाले हिंदी छंदों का उल्लेख किया गया है।
गौतम जी की यह पुस्तक अन्यों से भिन्न तथा अधिक उपयोगी इसलिए है कि यह नवोदित गजलकारों को ग़ज़ल के इतिहास और भूगोल में न उलझाकर सीधे-सीधे ग़ज़ल से मिलवाती है। बहरों का क्रम सरल से कठिन या रखा गया है। डॉ. गौतम हिंदी प्राध्यापक होने के नाते सीखनेवालों के मनोविज्ञान और सिखानेवालों कि मनोवृत्ति से बखूबी परिचित हैं। उन्होंने अपने पांडित्य प्रदर्शन के लिए विषय को जटिल नहीं बनाया अपितु सीखनेवालों के स्तर का ध्यान रखते हुए सरलता को अपनाया है। छंदशास्त्र के पंडित डॉ. गौतम ने हर बहर के साथ उसकी मात्राएँ तथा मूल हिंदी छंद का संकेत किया है। सामान्यत: गजलकार अपनी मनपसंद या सुविधाजनक बहर में ग़ज़ल कहते हैं किंतु गौतम जी ने सर्व बहर समभाव का नया पंथ अपनाकर अपनी सिद्ध हस्तता का प्रमाण दिया है।
प्रस्तुत गजलों की ख़ासियत छंद विधान, लयात्मकता, सामयिकता, सारगर्भितता, मर्मस्पर्शिता, सहजता तथा सरलता के सप्त मानकों पर खरा होना है। इन गजलों में बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकारों का सम्यक तालमेल दृष्टव्य है। ग़ज़ल का कथ्य प्रेयसी से वार्तालाप होने की पुरातन मान्यता के कारण ग़ालिब ने उसे तंग गली और कोल्हू का बैल जैसे विशेषण दिए थे। हिंदी ग़ज़ल ने ग़ज़ल को सामायिक परिस्थितियों और परिवेश से जोड़ते हुए नए तेवर दिए हैं जिन्हें आरंभिक हिचक के बाद उर्दू ग़ज़ल ने भी अंगीकार किया है। डॉ. गौतम ने इन ६५ ग़ज़लों में विविध भावों, रसों और विषयों का सम्यक समन्वय किया है।
नीतिपरकता दोहों में सहज किन्तु ग़ज़ल में कम ही देखने मिलती है। गौतम जी 'सदा सत्य बोलो सखे / द्विधा मुक्त हो लो सखे', 'यों न चल आदमी / कुछ संभल आदमी' आदि ग़ज़लों में नीति की बात इस खुबसूरती से करते हैं कि वह नीरस उपदेश न प्रतीत हो। 'हर तरफ सवाल है / हर तरफ उबाल है', 'हवा क्यों एटमी है / फिज़ा क्यों मातमी है', 'आइये गजल कहें आज के समाज की / प्रश्न कुछ भविष्य के, कुछ व्यथाएँ आज की' जैसी गज़लें सम-सामयिक प्रश्नों से आँखें चार करती हैं। ईश्वर को पुकारने का भक्तिकालीन स्वर 'मेरी नैया भंवर में घिरी है / आस तेरी ही अब आखिरी है' में दृष्टव्य है। पर्यावरण पर अपने बात कहते हुए गौतम जी मनुष्य को पेड़ से सीख लेने की सीख देते हैं- 'दूसरों के काम आना पेड़ से सीखें / उम्र-भर खुशियाँ लुटाना पेड़ से सीखें'। गौतम जी कि ग़ज़ल मुश्किलों से घबराती नहीं वह दर्द से घबराती नहीं उसका स्वागत करती है- 'दर्द ने जब कभी रुलाया है / हौसला और भी बढ़ाया है / क्या करेंगी सियाह रातें ये / नूर हमने खुदा से पाया है'।
प्यार जीवन की सुन्दरतम भावना है। गौतम जी ने कई ग़ज़लों में प्रकारांतर से प्यार की बात की है। 'गुस्सा तुम्हारा / है हमको प्यारा / आँखें न फेरो / हमसे खुदारा', 'तेरे-मेरे दिल की बातें, तू जाने मैं जानूँ / कैसे कटते दिन और रातें, तू जानें मैं जानूँ', 'उनको देखा जबसे / गाफिल हैं हम तबसे / यह आँखों की चितवन / करती है करतब से, 'इशारों पर इशारे हो रहे हैं / अदा पैगाम सारे हो रहे हैं' आदि में प्यार के विविध रंग छाये हैं। 'कितनी पावन धरती है यह अपने देश महान की / जननी है जो ऋषि-मुनियों की और स्वयं भगवान की', 'आओ सब मिलकर करें कुछ ऐसी तदबीर / जिससे हिंदी बन सके जन-जन की तकदीर' जैसी रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर मुखर हुआ है।
सारत: यह पुस्तक एक बड़े अभाव को मिटाकर एक बड़ी आवश्यकता कि पूर्ति करती है। नवगजलकार खुश नसीब हैं कि उन्हें मार्गदर्शन हेतु 'गागर में सागर' सदृश यह पुस्तक उपलब्ध है। गौतम जी इस सार्थक सृजन हेतु साधुवाद के पात्र हैं। उनकी अगली कृति कि बेकरारी से प्रतीक्षा करेंगे गजल प्रेमी।
*** सन्दर्भ- १. छंद प्रभाकर- जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', २. गजल रदीफ़ काफिया और व्याकरण- डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', ३. गजल छंद चेतना- महावीर प्रसाद 'मुकेश', ४. ग़ज़ल ज्ञान- रामदेव लाल 'विभोर', ५. गजल सृजन- आर. पी. शर्मा 'महर्षि', ६. अरूज़े-खलील-मुक्तफ़ी- ज़ाकिर उस्मानी रावेरी, ७. गज़ल और गज़ल की तकनीक- राम प्रसाद शर्मा 'महर्षि'.
***
पुस्तक चर्चा-
'गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण' अपनी मिसाल आप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक विवरण- गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल', विधा- छंद शास्त्र, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य १९५/-, निरुपमा प्रकाशन ५०६/१३ शास्त्री नगर, मेरठ, ०१२१ २७०९५११, ९८३७२९२१४८, रचनाकार संपर्क- डी ११५ सूर्या पैलेस, दिल्ली मार्ग, मेरठ, ९४१००९३९४३।
*
हिंदी-उर्दू जगत के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। वे उस्ताद शायर होने के साथ-साथ, अरूज़ के माहिर भी हैं। आज के वक्त में ज़िन्दगी जिस कशमकश में गुज़र रही है, वैसा पहले कभी नहीं था। कल से कल को जोड़े रखने कि जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लार्ड मैकाले द्वारा थोपी गयी और अब तक ढोई जा रही शिक्षा प्रणाली कि बदौलत ऐसी नस्ल तैयार हो गयी है जिसे अपनी सभ्यता और संस्कृति पिछड़ापन तथा विदेशी विचारधारा प्रगतिशीलता प्रतीत होती है। इस परिदृश्य को बदलने और अपनी जड़ों के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने में साहित्य की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे रचनाकार जो सृजन को शौक नहीं धर्म मानकर सार्थक और स्वस्थ्य रचनाकर्म को पूजा की तरह निभाते हैं उनमें डॉ. बेदिल का भी शुमार है।
असरदार लेखन के लिए उत्तम विचारों के साथ-साथ कहने कि कला भी जरूरी है। साहित्य की विविध विधाओं के मानक नियमों की जानकारी हो तो तदनुसार कही गयी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। गजल काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय वि धाओं में से एक है। बेदिल जी, ने यह सर्वोपयोगी किताब बरसों के अनुभव और महारत हासिल करने के बाद लिखी है। यह एक शोधग्रंथ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। शोधग्रंथ विषय के जानकारों के लिए होता है जबकि यह किताब ग़ज़ल को जाननेवालों और न जाननेवालों दोनों के लिए सामान रूप से उपयोगी है। उर्दू की काव्य विधाएँ, ग़ज़ल का सफर, रदीफ़-काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़(बहरें), बहरों की किस्में, मुफरद बहरें, मुरक़्क़ब बहरें तथा ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम शीर्षक अष्टाध्यायी कृति नवोदित ग़ज़लकारों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ने में सहायक है।
एक बात साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी जबान के दो रूप हैं जिनका व्याकरण और छंदशास्त्र कही-कही समान और कहीं-कहीं असमान है। कुछ काव्य विधाएँ दोनों भाषा रूपों में प्रचलित हैं जिनमें ग़ज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। उर्दू ग़ज़ल रुक्न और बहारों पर आधारित होती हैं जबकि हिंदी ग़ज़ल गणों के पदभार तथा वर्णों की संख्या पर। हिंदी के कुछ वर्ण उर्दू में नहीं हैं तो उर्दू के कुछ वर्ण हिंदी में नहीं है। हिंदी का 'ण' उर्दू में नहीं है तो उर्दू के 'हे' और 'हम्ज़ा' के स्थान पर हिंदी में केवल 'ह' है। इस कारण हिंदी में निर्दोष दिखने वाला तुकांत-पदांत उर्दूभाषी को गलत तथा उर्दू में मुकम्मल दिखनेवाला पदांत-तुकांत हिन्दीभाषी को दोषपूर्ण प्रतीत हो सकता है। यही स्थिति पदभार या वज़न के सिलसिले में भी हो सकती है। मेरा आशय यह नहीं है कि हमेशा ही ऐसा होता है किन्तु ऐसा हो सकता है इसलिए एक भाषारूप के नियमों का आधार लेकर अन्य भाषारूप में लिखी गयी रचना को खारिज करना ठीक नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विधा के मूल नियमों की अनदेखी हो। यह कृति गज़ल के आधारभूत तत्वों की जानकारी देने के साथ-साथ बहरों कि किस्मों, उनके उदाहरणों और नामकरण के सम्बन्ध में सकल जानकारी देती है। हिंदी-उर्दू में मात्रा न गिराने और गिराने को लेकर भी भिन्न स्थिति है। इस किताब का वैशिष्ट्य मात्रा गिराने के नियमों की सटीक जानकारी देना है। हिंदी-उर्दू की साझा शब्दावली बहुत समृद्ध और संपन्न है।
उर्दू ग़ज़ल लिखनेवालों के लिए तो यह किताब जरूरी है ही, हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों को इसे अवश्य पढ़ना, समझना और बरतना चाहिए इससे वे ऐसी गज़लें लिख सकेंगे जो दोनों भाषाओँ के व्याकरण-पिंगाल की कसौटी पर खरी उतरें। लब्बोलुबाब यह कि बिदिक जी ने यह किताब पूरी फराखदिली से लिखी है जिसमें नौसिखियों के लिए ही नहीं उस्तादों के लिए भी बहुत कुछ है। इया किताब का अगला संस्करण अगर अंग्रेजी ग़ज़ल, बांला ग़ज़ल, जर्मन ग़ज़ल, जापानी ग़ज़ल आदि में अपने जाने वालों नियमों की भी जानकारी जोड़ ले तो इसकी उपादेयता और स्वीकृति तो बढ़ेगी ही, गजलकारों को उन भाषाओँ को सिखने और उनकी ग़ज़लों को समझने की प्रेरणा भी मिलेगी।
डॉ. बेदिल इस पाकीज़ा काम के लिए हिंदी-उर्दू प्रेमियों की ओर से बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। गुज़ारिश यह कि रुबाई के २४ औज़ानों को लेकर एक और किताब देकर कठिन कही जानेवाली इस विधा को सरल रूप से समझाकर रुबाई-लेखन को प्रोत्साहित करेंगे।
२७-१२-२०१६
***
नवगीत
गुरु विपरीत
*
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
गाँधी कहते सत्य बोलना
गाँधीवादी झूठ बोलते
बुद्ध कहें मत प्रतिमा गढ़ना
बौद्ध मूर्तियाँ लिये डोलते
जिन मुनि कहते करो अपरिग्रह
जैन संपदा नहीं छोड़ते
चित्र गुप्त हैं निराकार
कायस्थ मूर्तियाँ लिये दौड़ते
इष्ट बिदा हो जाता पहले
कैसे यह
विडंबना झेले?
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
त्यागी मठ-आश्रम में बैठे
अपने ही भक्तों को लूटें
क्षमा करो कहते ईसा पर
ईसाई दुश्मन को कूटें
यवन पूजते बुत मक्का में
लेकिन कहते बुत हैं झूठे
अभियंता दृढ़ रचना करते
किन्तु समय से पहले टूटें
माया कहते हैं जो जग को
रमते हैं
लगवाकर मेले
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
*
विद्यार्थी विद्या की अर्थी
रोज निकालें नकल कर-कर
जन प्रतिनिधि जनगण को ठगते
निज वेतन-भत्ते बढ़वाकर
अर्धनग्न घूमे अभिनेत्री
नित्य न अभिनय बदन दिखाकर
हम कहते गृह-स्वामी खुद को
गृहस्वामिनी की आज्ञा लेकर
गिनें कहाँ तक
बहुत झमेले?
गुरु विपरीत
हमेशा चेले
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नवगीत -
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सल्ललाहो अलैहि वसल्लम
*
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
क्षमा करें सबको
हम हरदम
*
सब समान हैं, ऊँच न नीचा
मिले ह्रदय बाँहों में भींचा
अनुशासित रह करें इबादत
ईश्वर सबसे बड़ी नियामत
भुला अदावत, क्षमा दान कर
द्वेष-दुश्मनी का
मेटें तम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
*
तू-मैं एक न दूजा कोई
भेदभाव कर दुनिया रोई
करुणा, दया, भलाई, पढ़ाई
कर जकात सुख पा ले भाई
औरत-मर्द उसी के बंदे
मिल पायें सुख
भुला सकें गम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
*
ज्ञान सभ्यता, सत्य-हक़ीक़त
जगत न मिथ्या-झूठ-फजीहत
ममता, समता, क्षमता पाकर
राह मिलेगी, राह दिखाकर
रंग- रूप, कद, दौलत, ताकत
भुला प्रेम का
थामें परचम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
*
कब्ज़ा, सूद, इजारादारी
नस्लभेद घातक बीमारी
कंकर-कंकर में है शंकर
हर इंसां में है पैगंबर
स्वार्थ छोड़कर, करें भलाई
ईशदूत बन
संग चलें हम
सल्ललाहो अलैहि
वसल्लम
२७-१२-२०१५
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