लेख
नवगीतीय आचार और नवाचार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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आदि मानव ने वाक् शक्ति के विस्तार के साथ ही सलिलाओं की कलकल, पंछियों के कलरव आदि को सुनकर दुहराने का जो प्रयास किया होगा, वही कालांतर में सार्थक शब्दों में ढलकर पद्य के विकास में सहायक हुआ। भूगर्भीय और पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर प्रमाणित हो चुका है कि नर्मदा घाटी में लगभग ६ करोड़ वर्ष पूर्व राजसौरस नर्मदेंसिस नामक विशालकाय डायनॉसॉर की बस्तियाँ थीं। जबलपुर में आयुध निर्माणी के समीप की पहाड़ियों से इस डायनॉसॉर के जीवाश्म और अंडे मिल चुके हैं। भूगोल में हिमालय पर्वत को 'बेबी माउंटेन' कहा जाता है चूँकि इसका जन्म भारतीय भूखंड (इंडियन प्लेट) और चीनी भूखंड (चायनीज प्लेट) के टकराने के बाद लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व हुआ। स्वाभाविक है कि भारत में आदिमानवों की बस्तियाँ-शिलालेख आदि नर्मदा घाटी और उसके दक्षिण भाग में (जिसे जंबूद्वीप या गोंडवाना लैंड कहा जाता है) प्राप्त हुए हैं। शिलालेखों में नृत्य करते आदि मानव जिन धुनों और बोलों पर थिरकते थे, वे ही गीति काव्य का मूल हैं। तदनुसार वनवासियों की भाषा और गीत वर्तमान भारत के मूल गीत हैं। कालांतर में देश के विविध भागों में अलग-अलग बोलियों का विकास होने पर आदिवासियों की गीत संपदा स्थानांतरित और परिष्कृत होकर बुंदेली, बघेली, पचेली, छत्तीसगढ़ी, गोंडी, भीली, कोरकू, निमाड़ी, मालवी आदि बोलिओं के लोक गीतों के रूप में प्राप्त है।
भाषा के विकास, व्याकरण और पिंगल नियमों के निर्धारण के समांतर गीति काव्य की सृजन धारा क्रमश:प्रवाहित होती रही। नर्मदांचल में आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) को इसके जन्म के साथ ही समर्थन मिला और जबलपुर तथा इसके निकटवर्ती जिलों में शुद्ध रूप व्यवहार में आता गया। हिंदी गीत का प्रवाह इस क्षेत्र में चिरकाल से रहा है। कथन की नवता, कथ्य की सामाजिक संबद्धता, भाषा में देशज शब्दों का सम्मिश्रण, छांदस लयबद्धता, स्पष्टता, संक्षिप्तता तथा व्यंजनात्मक के सात नवगीतीय निकष, इस अंचल के गीतकारों के सर्जन में सामान्यत: मिलते हैं। इसलिए नर्मदांचल में गीत पर विडंबना और बिखराव केंद्रित नवगीत को वरीयता नहीं मिली। नर्मदांचल की ख्याति साधना क्षेत्र के रूप में आदिकाल से है, जकी गंगा-यमुना क्षेत्र की ख्याति साधना से संपन्नता प्राप्ति के लिए है।। साधना ही करनी है तो अंश की क्यों, पूर्ण की की जाए, यह सोच नर्मदा अंचल के गीतकारों को विरासत में मिली है। इसलिए गीत में ही नव गीतीय तत्वों का समावेश कर सकारात्मक सांस्कृतिक प्रयोग संपन्न नवगीत नर्मदा अंचल में चिरकाल से लिखे जाते रहे हैं। यह भी की नर्मदांचली गीतकारों ने अपने नव प्रयोगों को लेकर नवता का ढिंढोरा नहीं पीटा, न ही खेमेबाजी कर अपनी जय-जयकार करवाई।
नर्मदांचल के ऐतिहासिक गीतकारों जगनिक, ईसुरी, जायसी, बिहारी, पद्माकर, भूषण आदि अपने कालजयीसाहित्य हेतु चिरस्मरणीय हैं। आधुनिक काल में जबलपुर से माखनलाल चतुर्वेदी, केशव प्रसाद पाठक, लक्ष्मण सिंह चौहान, सुभद्राकुमारी चौहान, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', नर्मदा प्रसाद खरे, इंद्रबहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', श्रीबाल पाण्डे, रामकृष्ण दीक्षित 'विश्व', श्याम श्रीवास्तव, कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', आचार्य भगवत दुबे, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जयप्रकाश श्रीवास्तव, राजा चौरसिया, अविनाश ब्योहार, बसंत कुमार शर्मा, छाया सक्सेना, विनीता श्रीवास्तव, मिथलेश बड़गैया, आशुतोष 'असर', सोहन परोहा आदि, कटनी से राम सेंगर, राजा अवस्थी, रामकिशोर दाहिया, आनंद तिवारी, अखिलेश खरे, विजय बागरी, राजकुमार महोबिआ, अरुणा दुबे, देवेंद्र कुमार पाठक, आदि, सतना से अनूप अशेष, हरीश निगम, ऋषिवंश, मंडला से डॉ. शरद नारायण खरे, छिंदवाड़ा से रोहित रूसिया, होशंगाबाद से गिरिमोहन गुरु, विनोद निगम, मीना शुक्ल आदि, सागर से डॉ. वर्षा सिंह, डॉ. शरद सिंह, दमोह से प्रेमलता 'नीलम', हटा (दमोह) से डॉ. श्यामसुन्दर दुबे, हरदा से प्रेम शंकर रघुवंशी, बुरहानपुर से वीरेंद्र 'निर्झर', खंडवा से दिनेश शुक्ल, अशोक गीते, डॉ. श्रीराम परिहार, भोपाल से दिवाकर वर्मा, हुकुमपाल सींग 'विकल', कुंवर किशोर टंडन, जंग बहादुर श्रीवास्तव 'बंधु', मयंक श्रीवास्तव, ऋषि श्रृंगारी पांडेय, यतीन्द्र नाथ ''राही', शिव कुमार अर्चन, डॉ. रामवल्लभ आचार्य, ज़हीर कुरैशी, मनोज जैन 'मधुर', अशोक विश्वकर्मा 'व्यग्र', चित्रांश वाघमारे, ममता बाजपेई, राघवेंद्र तिवारी, इंदौर से चन्द्रसेन 'विराट', उज्जैन से डॉ. इसाक अश्क़, कल्पना रामानी,गंज बासौदा से कृष्ण भारतीय, राजगढ़ ब्यावरा से कृष्ण मोहन अंभोज, बिलासपुर से श्रीधर आचार्य 'शील', कोरबा से सीमा अग्रवाल, जांजगीर से ईश्वरी प्रसाद यादव, विजय राठौड़ आदि,खैरागढ़ से जीवन यदु, भिलाई से मोहन भारतीय, राजनाँदगाँव से शंकर सक्सेना आदि ने अपने सृजन से हिंदी गीतिकाव्य को संपन्न-समृद्ध किया है।
गीति काव्य की सर्वाधिक प्राचीन, प्रभावशाली और बहुआयामी सृजन विधा गीत का मूल लोक गीत हैं जो वाचिक लयखण्डों पर आधारित होते हैं। पारम्परिक लोक गीतों की लय को सुसंस्कृत भाषा में गूँथकर अपभृंश और प्राकृत में छंद तथा संस्कृत में श्लोक-मंत्रादि रचे गए। कालांतर में संस्कृत साहित्य फारस होते हुए पाश्चात्य देशों में पहुँचा। भारत की द्विपदि को शे'र तथा कपलेट्स में, चौपदों को रुबाई और कवाट्रेन्स में रूपांतरित किया गया। भारत में संपदान्ती श्लोकों के लयबद्ध गायन से उत्पन्न रसानंद की अनुभूति से प्रभावित होकर फारस में चौपदों की अंतिम दो पंक्तियों की तरह समभारिक पंक्तियों को जोड़कर उसे ग़ज़ल नाम दिया गया। भारतीय काव्य शास्त्र में ३ मात्राओं से लेकर ६ मात्राओं तक के ८ लय खण्डों (१२२ यगण, २२२ मगण, २२१ तगण, २१२ रगण, १२१ जगण, २११ भगण, १११ नगण, ११२ सगण) को 'गण' संज्ञा से अभिषक्त कर आचार्य पिंगल नाग ने उच्चार के आधार पर लिपिबद्ध लयखण्डों की आवृत्तियों व पदांत साम्य-वैविध्य का विचार कर समभारिक पंक्तियों के छंदों की गणना तथा वर्गीकरण किया। तदनुसार ३२ मात्राओं तक के ९२,२७,७६३ तथा २६ वर्णों तक के १३, ४२, १७, ६२६ छंदों की गणना की गई। फारसी में गण को 'रुक्न' (२ पंचहर्फी; ५ सतहर्फी) और छंदों को 'बह्र' कहा गया। ववस्तव में २ हर्फी, ७ हर्फी तथा ८ हर्फी इरकान (रुक्न का बहुवचन) को छोड़कर शेष सब इरकान भारतीय छंदों का रूपान्तरण है। अरबी-फारसी में मूल बह्रें केवल १९ (७ मुफर्रद, १२ मुरक़्क़ब) हैं, शेष इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बना ली गई हैं। स्पष्ट है कि भारतीय छंद शास्त्र फ़ारसी-अरबी या आंग्ल छंदशास्त्र की तुलना में अत्यधिक व्यापक तथा गहन है। यह अनादि, अनंत तथा पूर्णता का पर्याय कहा गया है।
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण है कण-कण; जगत।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें निकाल, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा।।
भारत में स्वातंत्र्य चेतना के साथ 'स्वभाषा' और उसके साहित्य की चेतना भी विकसित हुई। खड़ी बोली के संस्कृतनिष्ठ, फ़ारसीनिष्ठ, अंग्रेजीनिष्ठ तथा लोकभाषा मिश्रित रूपों का प्रयोग रचनाकारों ने अपनी सामर्थ्य और रूचि के अनुसार किया। लगभग ७० वर्ष पूर्व गीतों में देशज शब्दों, प्राकृतिक परिवेश, जन सामान्य की अनुभूतियों को प्रमुखता से उठाते हुए रचे गए गीतों को 'नवगीत' कहना आरंभ हुआ। वास्तव में गीत में नवता का समावेश हर देश-काल में होता रहा है किन्तु उसे विशिष्ट संज्ञा नहीं दी गई थी। पूर्व वैदिक, वैदिक और वेदोत्तर साहित्य हिंदी में न होने पर भी उसमेँ वे प्रवृत्तियाँ मिलती हैं जो कालांतर में नवगीत के साथ संश्लिष्ट कर दी गईं। औपनिषदिक, पौराणिक, ब्राह्मण और निगम ग्रंथों में नवता का अखंड प्रवाह है। जनजातीय साहित्य में भी निरंतर नवता (यद्यपि उसकी गति मंडी और व्यापकता सीमित है) बनी रही है।
नवता तेरे रूप अनेक
आधुनिक हिंदी गीत में नवता कथ्य और शिल्प दो स्तरों पर हो सकती है। कथ्यगत नवता विषयवस्तुगत और भाषागत हो सकती है जबकि शिल्पगत नवता छंद, अलंकार, बिम्ब, मिथक और प्रतीक गत हो सकती है। तथाकथित नवगीत के उद्भव से ही विषयवस्तुगत नवता को सामाजिक विसंगति, विडंबना, अंतर्विरोध आदि के रूप में परिभाषित किया गया। भाषिक नवता को 'टटकापन' (देशज भदेसी शब्दों का प्रयोग) कहा गया। शिल्पगत नवता के तहत पारंपरिक बिम्ब, प्रतीकों, मिथकों का निषेध किया गया। इस चिंतन धारा के उद्भव काल की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि इस समय भारत में अंगेरजी राज्य अपने अंतिम दिन गिन रहा था। सत्ता प्रतिष्ठानों और समृद्ध वर्ग की विलासिता के विरुद्ध आत्म बलिदान करनेवाले क्रांतिकारी शेष नहीं रह गए थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फ़ौज का संघर्ष दुर्भाग्य से परिणामदायी नहीं हो सका था। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अहिंसक सत्याग्रह में उनके अनुयायी मात्र नहीं उक्त क्रांतिकारियों और नेताजी के समर्थक भी आंदोलनरत थे। दुर्भाग्य से साम्यवादियों और धुर दक्षिणपंथियों का लक्ष्य गाँधी विरोध अधिक था; अंग्रेज विरोध कम। अंग्रेज इन दोनों विचारधाराओं को न्यून जनसमर्थन के बाद भी अपने हित में अपेक्षाकृत अधिक महत्व देकर राष्ट्रवादी संघर्ष को कमजोर कर देश का विभाजन करने में सफल हुए।
नवगीत में नकारात्मकता
इस समूचे काल में साम्यवाद वर्ग संघर्ष, विसंगतियों, विडंबनाओं और सामाजिक बिखराव-टकराव को अपना आधार बनाकर कहानी, व्यंग्य लेख, और गीत जैसी साहित्यिक विधाओं और चित्रपट जैसी व्यावसायिक विधा के माध्यम से जन सामान्य में पैठ बना रहा था। इस विचारधारा के लेखक कवि पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष को ही लेखन का विषय बनाये थे, स्वस्थ्य परंपराओं को अनदेखा कर रहे थे। यही चिंतन गीत पर आरोपित कर उसे 'नवगीत' नाम दे दिया गया। आरंभिक नवगीतकार भाषा और कथ्य की साहित्यिकता के प्रति सचेत थे, इसलिए उनके नवगीतों में चिंतन और शिल्प के धरातल पर नवता को पाठक और समीक्षकों ने सराहा। स्वतंत्रता के तुरंत बाद का दौर पुराने को नकारकर; नया गढ़ने, नए का स्वागत करने का था। इसलिए साहित्य में भी इस परिवर्तन का स्वागत हुआ। यह वैचारिक प्रतिबद्धता क्रमश: कमजोर होती गयी चूँकि साम्यवाद को देश के अधिकांश जन-गण ने स्वीकार नहीं किया।इस विचारधारा के समर्थक सत्ता में सीधे प्रवेश न पा सके तो उन्होंने पीछे के दरवाजे से शैक्षणिक और साहित्यिक संस्थाओं में घुसपैठ की। साहित्यिक समीक्षा और संपादन में पैर जमाकर साम्यवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकारों ने साहित्य की सभी विधाओं में सामाजिक बिखराव, पारस्परिक टकराव, भुखमरी, नंगई, पिछड़ेपन आदि को न केवल केंद्र में रखा अपितु नवनिर्माण और विकास की राह पर बढ़ते कदमें की पूरी तरह उपेक्षा भी की। सामाजिक सद्भाव, साहचर्य, सर्वोदय आदि सकारात्मक विचारों को साहित्य की मुख्य धारा से धीरे-धीरे अलग किया गया। सत्यजीत राय जैसे प्रतिबद्ध फिल्मकार को देश में बन रहे कारखाने, बाँध, विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज नहीं केवल अकाल और भुखमरी दिखी, जिसे बेचकर वे प्रतिष्ठित हुए, भले ही देश के सम्मान और प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची।
साहित्य में यही प्रवृत्ति प्रगतिशीलता की आड़ में प्रवेश कर पुरस्कृत होती रही। परिणाम यह जहाँ पराधीनता काल में देश के सुनहरे भविष्य की कल्पना कर क्रांतिकारी जान हथेली पर लेकर संघर्ष कर रहे थे, वहीं देश के स्वर्णिम भविष्य की आधारशिला रखने के काल में तथाकथित साहित्यकार समस्त सकारात्मक प्रयासों की अनदेखी कर नकारात्मकता से लबालब साहित्य रचकर निराशा और असंतोष की चिंगारियों को हवा दे रहे थे। इस विचारधारा से जुड़े हुए समीक्षक सकारात्मक लिखें को हाशिए पर भी जगह नहीं दे रहे थे। राष्ट्रवाद और सनातन मूल्य और पारंपरिक चिंतन ही नहीं पारंपरिक बिम्ब और प्रतीक भी 'अछूत' घोषित कर दिए गए। किसी समय जिस तरह अछूत प्रवेश देवालय में निषिद्ध था, उसी तरह पारंपरिक बिम्ब-प्रतीक आदि का नवगीतालय में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। जिन नवगीतकारों ने तथाकथिक मानकों को तोड़ते हुए नव परंपराओं का श्री गणेश करते हुए नवगीत रचे, उन्हें नवगीतकार मानने से ही इंकार कर हतोत्साहित किया गया।
नवगीतों में दुहराव
नकारात्मक चिंतनपूर्ण नवगीतों की बाढ़ ने तथा सकारात्मकता के दुर्भिक्ष ने रसानंद को ब्रह्मानंद सहोदर माननेवाले श्रोताओं के मन में कवि सम्मेलनों के प्रति वितृष्णा उत्पन्न कर दी। फलत:, एक और चुटकुलेबाजी का दौर बढ़ा दूसरी और ग़ज़ल ने गीत का स्थान लेने का प्रयास किया। नवगीतों में विषयों, बिम्बों और प्रतीकों का दुहराव नीरसता की बाढ़ बन गया। नवगीत संकलनों में दलित-स्त्री-श्रमिक के शोषण, वर्ग संघर्ष, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, राजनैतिक अवसरवाद, प्रशासकीय अक्षमता। पूंजीपतियों द्वारा शोषण, अंधश्रद्धा, धार्मिक आडंबर आदि घिसे-पिटे विषयों के अलावा कुछ प्राप्त ही नहीं होता। हर संकलन में पिष्टपेषण, पुनरावृत्ति और शब्द-छल का बाहुल्य मिलने लगा। फलत:, रसिक श्रोता नवगीत से दूर हो गया। नवगीत संकलनों को पढ़ना समय की बर्बादी लगने लगा। मैंने नवगीत संकलनों की समीक्षा करना ही बंद कर दिया।
नवगीतों में अराष्ट्रीयता
किसी देश तथा समाज में सकारात्मक प्रयासों की सराहना, अतीत के गौरवपूर्ण कार्यों एवं महापुरुषों का स्मरण नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा तथा उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। वृद्ध जन इनमें अपने समय के संघर्ष और उपलब्धियों की झलक देखते हैं तो युवा अपने संघर्ष की, तथाकथित नवगीत में इन अनुभूतियों का स्थान न होने से नवगीत का रचनाकार ही उसका पाठक और श्रोता रह गया। राष्ट्रीय गौरव और निर्माण की दृष्टि से सोचें तो राष्ट्र के स्वातंत्र्य, नव निर्माण और सुरक्षा के लिए प्रयास, संघर्ष, बलिदान देकर उन्नयन-पथ पर चलनेवालों को देशभक्त कहकर अभिनंदित किया जाता है। इन तत्वों की अवहेलना, उपेक्षा, और अवमूल्यन करनेवाली दृष्टि को देशद्रोहकी श्रेणी में रखा जाएगा। देशद्रोही जिस तरह देश को नुकसान पहुँचाता है, उसी तरह बार-बार अनाचार-दुराचार की चर्चा होने से अपरिपक्व मष्तिष्क में चर्चित होने के लिए उसी राह पर जाने की चाह होना आश्चर्य की बात नहीं है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जो बात बार-बार की जाए, जिसे करने से रोका जाए उसे करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। होस्नी साहित्य की चारों मुख्य विधाओं नवगीत, व्यंग्य लेखन, कहानी और लघुकथा में जैसे-जैसे नकारात्मक वृत्ति बढ़ती गयी, वैसे-वैसे समाज में अपराध बढ़ते गए और राष्ट्र के प्रति प्रेम तथा गौरव का भाव घटता गया। इस परिस्थिति को उत्पन्न करनेवालों को देशद्रोही और समाजद्रोही की श्रेणी में ही गिना जाएगा।
नव गीतीय सकारात्मकता
देश और देशवासियों के सौभाग्य से तथाकथित नवगीतकारों की तुलना में कहीं अधिक गीतकार सनातन मूल्यों को केंद्र में रखकर सतत नव सृजन करते रहे, भले ही उसे अकादमियों ने पुरस्कार या समीक्षकों ने सराहना के योग्य नहीं माना। बिना किसी प्रोत्साहन के सकारात्मक दृष्टिकोण से गीत, कहानी, व्यंग्य और लघुकथा लिखनेवाले रचनाधर्मी वस्तुत: सराहना के पात्र हैं। हिंदी का सौभाग्य कि नर्मदांचल और अन्य क्षेत्रों में अनेक गीतकारों ने इन मनमाने मानकों को ठेंगे पर मारते हुए, उत्सवधर्मिता को गीत के केंद्र में बनाए रखा है। सांस्कृतिक उल्लास, हर्ष, ओज, ममता, वात्सल्य, संघर्ष, विजय आदि सकारात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीत लिखे और जनमानस द्वारा सराहे गए हैं। इन नवगीतकारों ने आंचलिक बोलियों, उनके शब्दों-मुहावरों-लोकोक्तियों आदि, उनके ऐतिहासिक चरित्रों, मिथकों,उनके लोकगीतों में अन्तर्निहित छंदों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, स्वतंत्रता संघर्ष, राष्ट्र-निर्माण, सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक अनेकता में एकता आदि को गीत-बाह्य होने से बचाया तथा गीतीय नवता को तथाकथित प्रगतिवादी-साम्यवादी शिकंजे से मुक्त कराते हुए, कथ्यगत-शिल्पगत नवता के अनेक प्रयास किए। फलत:, इस दशक में प्रणय गीतों, श्रृंगार गीतों, आह्वान गीतों, हास्य गीतों आदि ने नवांकुर प्रस्फुटित-पल्ल्वित होते दिख रहे हैं। यह सुनिश्चत है कि नवगीत तथा अन्य सृजन विधाएँ नकारात्मक चिंतन-धारा से मुक्त होकर सकारात्मक सृजन धारा संपन्न होकर लोक मंगल करने में पूर्वापेक्षा अधिक समर्थ हो सकेंगी। नर्मदांचलीय गीत-नवगीतकारों की भूमिका इस दृष्टि से महत्वपूर्ण, सराहनीय तथा नवयुग निर्माता की है।
नवगीत और संगणक - अंर्तजाल
नवगीत को नव गीत की दिशा में ले जाने में महती भूमिका संगणक और अंतर्जाल ने निभाई। अंतर्जाल पर हिंदी टंकण की सुविधा उपलब्ध होते ही मैंने ब्लॉग, जी मेल, ऑरकुट, फेसबुक, वॉट्सऐप आदि मंचों पर हिंदी भाषा, व्याकरण, छंद और सृजन विधाओं के लेखन संबंधी जानकारी देने का श्री गणेश कर दिया। ब्लॉग दिव्य नर्मदा पर नवगीत के साथ अन्य सभी साहित्यिक विधाओं की रचनाओं का प्रकाशन किया गया। कालान्तर में इसे अंतरजाल पत्रिका का रूप दे दिया गया है। आज १०-१२-२०२१ तक इस पर ३७, ४९, ५०३ पाठक आ चुके हैं तथा १९१ फॉलोवर्स हैं।
२२ अगस्त २००८ को आरंभ किया गया 'गीत सलिला' शीर्षक ब्लॉग केवल गीत-नवगीत विधाओं को प्रकाशित करता रहा है। इस पृष्ठ पर मेरी २७६ रचनाएँ प्रकाशित हुईं हैं।
बच्चों में गीत पढ़ने-लिखने की रूचि विकसित करने के उद्देश्य से २६-८-२०१४ को 'शिशु गीत सलिला' ब्लॉग आरंभ किया गया। इस पृष्ठ पर नन्हें-मुन्नों के लिये नये-पुराने शिशु गीत आमंत्रित की गईं। रचनाकारों से अनुरोध था कि शिशुगीत का विषय, प्रयोग किये गए शब्द, कल्पनाएँ, बिम्ब, विचार आदि शिशु के मस्तिष्क को ध्यान में रखकर प्रयोग करें ताकि शिशु उन्हें याद कर सुना सके। इस पृष्ठ पर कुछ बालगीत, बाल कहानी आदि भी सम्मिलित की गयीं थीं। उद्देश्य यह था कि प्रतिभाएँ शैशव / बचपन से ही गीत-नवगीत पढ़, यादकर सुनाएँ और लिखना आरंभ करें। आंग्ल माध्यम के विद्यालयों में जा रहे बच्चे नाते-रिश्ते नहीं समझते, सबको अंकल-आती कहते हैं। यह शिकायत मिलने पर सभी संबंधों को लेकर शिशु गीत रचे गए। मेरे अतिरिक्त रंजन नौटियाल, राजा अवस्थी, कल्पना भट्ट, अलका अग्रवाल, नवनीत राय 'रुचिर', सुमन श्रीवास्तव, प्रेरणा गुप्ता, गजेंद्र कर्ण, मोनिका अग्रवाल, रमेश राज, डॉ, वीरेंद्र भ्रमर, डॉ. विद्या बिंदु सिंह आदि का सहयोग मिला।
गीत सलिला, १-१-२०१४ १६०० सदस्य - इस पटल पर किसी भी भाषा-बोली के साहित्यिक गीतों-नवगीतों, गीत-नवगीत संकलनों की समीक्षा, गीतकारों के साक्षात्कार आदि प्रकाशित किए जाते हैं। गीत संकलनों की प्रति प्राप्त होने पर समीक्षा तथा पाण्डुलिपि मिलने पर छंद-भाषा आदि की त्रुटि संशोधन, भूमिका लेखन अथवा मुद्रण आदि सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जाती हैं।
फेसबुक पर ७ मई १९१८ को शीर्षक गीत-नवगीत सलिला कर पृष्ठ पर उक्त सभी गतिविधियों को निरंतरता दी गयी। रचना प्रकाशन, त्रुटि संकेत, त्रुटि निराकरण, दिए गए विषय पर गीत लेखन, समस्यापूर्ति, चित्र पर गीत लेखन, पर्वों-त्योहारों, ऋतुओं पर गीत लेखन जैसे आयोजनों न इकाई नए गीतकारों को प्रोत्साहित किया गया।
अलंकार सलिला, २३-२-२०१५, १६४१ सदस्य, इस पृष्ठ पर अलंकार सम्बन्धी जानकारी का आदान-प्रदान तथा शोध कार्य आमंत्रित है। यह पृष्ठ काव्य रचनाओं में अलंकार के महत्त्व, अलंकार के प्रकारों तथा नये अलंकारों के शोध पर केंद्रित है।
फेसबुक पर नवगीत : नए रुझान शीर्षक पृष्ठ ८ सितंबर २०१६ को आरंभ किया गया है। इसमें ५४१ सदस्य हैं। नवगीतों में सकारात्मक रुझान, राष्ट्रीयता, उल्लास, हर्ष, नव निर्माण, सामाजिक समरसता, पंथिक एकता, मानवीय गरिमा आदि तत्वों का समायोजन करने का लक्ष्य लेकर यह पृष्ठ कार्यरत है।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण पृष्ठ गीत-नवगीत (७२३ सदस्य, ४-८-२०११, अवनीश सिंह चौहान), नवगीत वार्ता (९७३ सदस्य, ३०-१-२०१६, राम किशोर दाहिया), नवगीत वार्ता (२७५ सदस्य, पूर्णिमा बर्मन, २९.३.२०१८), गीत गंगा (१६-७-२०१९ चेतन दुबे अनिल साहिबाबाद, सदस्य ९१८) गीत गौरव (२३५३ सदस्य, २५.११.२०१९), विज्ञात नवगीत माला (१८० सदस्य, संजय कौशिक 'विज्ञात'), नवगीत (१३०० सदस्य, ॐ नीरव), गीत सखा (ऋषि शृंगारी पांडे, १८९ सदस्य), साप्ताहिक गीत-नवगीत संध्या (३६३ सदस्य, बाबूलाल विश्वकर्मा) आदि हैं।
वॉट्सऐप पर अभियान जबलपुर समूह में साहित्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ गीत-नवगीत लेखन, विश्ववाणी ऑनलाइन गोष्ठी में विविध पहलुओं पर विचार विमर्श, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, हिंदी भाषा और बोलियाँ (आंचलिक बोलिओं को प्रमुखता) आदि समूहों पर सीखने-सीखने का कार्य किया जा रहा है।
अथाई आशा, हिंदी सेवा समूह, उम्मीदों का आसमान, ऑनलाइन गोष्ठी ग्रुप, राष्ट्रीय कवि संगम जबलपुर, साहित्यम, वैश्विक हिंदी संस्थान, काव्य साधना साहित्यिक मंच, अखिल विश्व आलोक सभा, अखिल विश्व हिंदी समिति कनाडा भी निरन्तर सक्रिय हैं।
मेसेंजर, टेलीग्राम, ट्विटर, लिंक्ड इन, श्टायल आदि मंचों पर भी हिंदी भाषा-साहित्य के प्रचार-प्रसार-शिक्षण आदि का कार्य निरंतर मेरे द्वारा किया जा रहा है। अब तक अनुमानत: ६०० से अधिक रचनाकारों का मार्गदर्शन इन पटलों के माध्यम से तथा व्यक्तिगत रूप से मेरे द्वारा किया जा चुका है। श्रेष्ठ रचनाकारों के जबलपुर आगमन पर विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा उनके सम्मान में गोष्ठियाँ कर नव रचनाकारों का मार्गदर्शन किया जाता है। सर्व श्री मधुकर अष्ठाना, डॉ. यायावर, वीरेंद्र आस्तिक, राजा अवस्थी, विनोद निगम, अरुण अर्णव खरे, डॉ. इला घोष, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव, मोहन शशि, अमरेंद्र नारायण, डॉ. चंद्र चतुर्वेदी, डॉ. स्मृति शुक्ल, डॉ, नीना उपाध्याय, विवेकरंजन, आदि शताधिक साहित्यकार इन गोष्ठियों में पधार चुके हैं। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की कार्यक्रमों से लाभान्वित हुए साहित्यकारों में सर्व श्री/श्रीमती आभा सक्सेना देहरादून, डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल' कोटा, चंद्रकांता अग्निहोत्री पंचकूला, विजय बागरी कटनी, विनोद जैन सागवाड़ा, श्रीधरप्रसाद द्विवेदी डाल्टनगंज, श्यामल सिन्हा गुरुग्राम, सुरेश तन्मय भोपाल, महातम मिश्र गोरखपुर अखिलेश खरे, कटनी, अरुण शर्मा भिवंडी, रीता सिवनी नोएडा, शुचि भवि भिलाई, राजकुमार महोबिआ कटनी, रामलखन सिंह चौहान उमरिया, सरला वर्मा भोपर, बबीता चौबे 'शक्ति' दमोह, सदानंद कवीश्वर, निशि शर्मा दिल्ली, नीलम कुलश्रेष्ठ गुना, शहजाद उस्मानी शिवपुरी, डॉ. आलोकरंजन पलामू, संगीता भारद्वाज भोपाल, वसुधा वर्मा मुम्बई, जबलपुर से गोपालकृष्ण चौरसिया 'मधुर', अविनाश ब्योहार, छाया सक्सेना, बसंत शर्मा, मिथलेश बड़गैया, सुरेंद्र सिंह पवार, विनीता श्रीवास्तव, डॉ. अनिल बाजपेई, डॉ. मुकुल त्रिपाठी, डॉ. शोभित वर्मा, संतोष नेमा, विजय नेमा, मनोज शुक्ल आदि प्रमुख हैं।
कोरोना काल में उपजी निराशा और पीड़ा का सामना करने और मनोबल बढ़ाने के लिए वाट्स ऐप पर दैनिक कार्यक्रम कर विवध विषयों पर परिचर्चाएँ, गोष्ठियाँ, काव्य पाठ, चिन्तन, विचार विमर्श, समस्यापूर्ति, छंद शिक्षण, लोकगीत, लोककथा, लघुकथा, निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, आत्मकथा, शिकार कथा, पर्यटन संस्मरण, समीक्षा, व्यंग्य लेख, कहानी, एकांकी, साक्षात्कार, तकनीकी लेख, बाल गीत, शिशु गीत, बाल कथा आदि पर कार्यक्रम हुए जिनका क्रम अब तक जारी है। इस क्रम में श्रीकृष्ण चिंतन व गीता गोष्ठी (लगातार ६ माह) महत्त्व पूर्ण रही। वर्तमान में उपनिषद वार्ता के अंतर्गत ईशोपनिषद, केनोपनिषद, कठोपनिषद पर चर्चा हो चुकी है। क्रमश: सभी उपनिषदों पर उनमें अंतनिहित विपुल ज्ञान राशि व् कथावस्तु को लेकर गीत-नवगीत रचना तथा काव्यानुवाद का महत्वपूर्ण कार्य प्रगति पर है। नवगीतीय नवाचार के अंतर्गत सनातन मूल्य और आचार परक नवगीतों की रचना को प्रोत्साहित करने के लिए निरंतर जा रहा साहित्य से समाज को सकारात्मक दिशा, नवाशा और और आपदाओं से जूझने हेतु सकारात्मक ऊर्जा मिल सके।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
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