दोहांजलि
*
जयललिता-लालित्य को
भूल सकेगा कौन?
शून्य एक उपजा,
भरे कौन?
छा गया मौन.
*
जननेत्री थीं लोकप्रिय,
अभिनेत्री संपूर्ण.
जयललिता
सौन्दर्य की
मूर्ति, शिष्ट-शालीन.
*
दीन जनों को राहतें,
दीं
जन-धन से खूब
समर्थकी जयकार में
हँसीं हमेशा डूब
*
भारी रहीं विपक्ष पर,
समर्थकों की इष्ट
स्वामिभक्ति
पाली प्रबल
भोगें शेष अनिष्ट
*
कर विपदा का सामना
पाई विजय विशेष
अंकित हैं
इतिहास में
'सलिल' न संशय लेश
***
***
दो द्विपदियाँ - दो स्थितियाँ
*
साथ थे तन न मन 'सलिल' पल भर
शेष शैया पे करवटें कितनी
*
संग थे तुम नहीं रहे पल भर
हैं मगर मन में चाहतें कितनी
*
***
दोहा सलिला-
कवि-कविता
*
जन कवि जन की बात को, करता है अभिव्यक्त
सुख-दुःख से जुड़ता रहे, शुभ में हो अनुरक्त
*
हो न लोक को पीर यह, जिस कवि का हो साध्य
घाघ-वृंद सम लोक कवि, रीति-नीति आराध्य
*
राग तजे वैराग को, भक्ति-भाव से जोड़
सूर-कबीरा भक्त कवि, दें समाज को मोड़
*
आल्हा-रासो रच किया, कलम-पराक्रम खूब
कविपुंगव बलिदान के, रंग गए थे डूब
*
जिसके मन को मोहती, थी पायल-झंकार
श्रंगारी कवि पर गया, देश-काल बलिहार
*
हँसा-हँसाकर भुलाई, जिसने युग की पीर
मंचों पर ताली मिली, वह हो गया अमीर
*
पीर-दर्द को शब्द दे, भर नयनों में नीर
जो कवि वह होता अमर, कविता बने नज़ीर
*
बच्चन, सुमन, नवीन से, कवि लूटें हर मंच
कविता-प्रस्तुति सौ टका, रही हमेशा टंच
*
महीयसी की श्रेष्ठता, निर्विवाद लें मान
प्रस्तुति गहन गंभीर थी, थीं न मंच की जान
*
काका की कविता सकी, हँसा हमें तत्काल
कथ्य-छंद की भूल पर, हुआ न किन्तु बवाल
*
समय-समय की बात है, समय-समय के लोग
सतहीपन का लग गया, मित्र आजकल रोग
५-१२-२०१६
***
देवी दंतेश्वरी के दामाद - हुर्रेमारा
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दंतेश्वरी देवी और आदिवासी संयोजन की अनेक कहानियों में से एक है उनके दामाद हुर्रेमारा की। आदिवासी मान्यतायें न केवल उन्हें अपने परिवार के स्तर तक जोड़ती हैं अपितु वे देवी के भी बेटे-बेटियों, नाती-पोतों की पूरी दुनिया स्थापित कर देते हैं। देवी के ये परिजन आपस में लड़ते-झगडते भी हैं तथा प्रेम-मनुहार भी करते हैं।
कहते हैं देवी दंतेश्वरी की पुत्री मावोलिंगो को देख कर जनजातीय देव हुर्रेमारा आसक्त हो गये। उन्होंने मावोलिंगो से अपना प्रेम व्यक्त किया। यह प्यार अपनी परिणति तक पहुँचता इससे पहले ही लड़की की माँ अर्थात देवी दंतेश्वरी को इसकी जानकारी मिल गयी और उन्होंने विवाह को अपनी असहमति प्रदान कर दी। हुर्रेमारा भी कोई साधारण देव तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समय तक प्रयास किया कि दंतेश्वरी मान जायें और अपनी पुत्री से उनके विवाह को स्वीकारोक्ति प्रदान कर दें। बात न बनते देख वे क्रोधित हो गये। उन्होंने अपनी बात मनवाने की जिद में शंखिनी-डंकिनी नदियों के पानी को ही संगम के निकट रोक दिया। अब जलस्तर बढने लगा और धीरे धीरे देवी दंतेश्वरी का मंदिर डूब जाने की स्थिति निर्मित हो गयी। दंतेश्वरी को हार कर हुर्रेमारा की जिद माननी ही पड़ी। इस तरह उनकी पुत्री मावोलिंगो से हुर्रेमारा का विवाह सम्पन्न हो सका।
बात यहीं समाप्त नहीं होती। दामाद हुर्रेमारा जब ससुराल पहुँचे तो उनके अपने ही नखरे थे। तुनक मुजाज हुर्रेमारा हर रोज नयी मांग रखते, अपने स्वागत की नयी नयी अपेक्षायें प्रदर्शित करते और किसी न किसी बात पर झगड़ लेते। अंतत: एक दिन सास-दामाद अर्थात दंतेश्वरी और हुर्रेमारा में ऐसी बिगडी कि अब दोनो ही एक दूसरे से मिलना पसंद नहीं करते। यद्यपि देवी के स्थान में हुर्रेमारा की और हुर्रेमारा के स्थान में देवी दंतेश्वरी की विशेष व्यवस्था की जाती है। दंतेवाड़ा से कुछ ही दूर भांसी गाँव के पास एक पहाड़ी तलहटी में हुर्रेमारा का स्थान है जहाँ वे अपनी पत्नी मावोलिंगो व अपने एक पुत्र के साथ रह रहे हैं। इस देव परिवार की अनेक संततियाँ हैं जो निकटस्थ अनेक गाँवों में निवासरत हैं और वहाँ के निवासियों द्वारा सम्मान पाती हैं।
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***
अलंकार सलिला ३९
अतिशयोक्ति सीमा हनें
*
जब सीमा को तोड़कर, होते सीमाहीन
अतिशयोक्ति तब जनमती, सुनिए दीन-अदीन..
बढा-चढ़ाकर जब कहें, बातें सीमा तोड़.
अतिशयोक्ति तब जानिए, सारी शंका छोड़..
जहाँ लोक-सीमा का अतिक्रमण करते हुए किसी बात को अत्यधिक बढा-चढाकर कहा गया हो, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
जहाँ पर प्रस्तुत या उपमेय को बढा-चढाकर शब्दांकित किया जाये वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. परवल पाक, फाट हिय गोहूँ।
यहाँ प्रसिद्ध कवि मालिक मोहम्मद जायसी ने नायिका नागमती के विरह का वर्णन करते हुए कहा है कि उसके विरह के ताप के कारण परवल पक गये तथा गेहूँ का ह्रदय फट गया।
२. मैं तो राम विरह की मारी, मोरी मुंदरी हो गयी कँगना।
इन पंक्तियों में श्री राम के विरह में दुर्बल सीताजी की अँगूठी कंगन हो जाने का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।
३. ऐसे बेहाल बेबाइन सों, पग कंटक-जल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा, तुम आये न इतै कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करि के करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुओ नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।।
४. बूँद-बूँद मँह जानहू।
५. कहुकी-कहुकी जस कोइलि रोई।
६. रकत आँसु घुंघुची बन बोई।
७. कुंजा गुन्जि करहिं पिऊ पीऊ।
८. तेहि दुःख भये परास निपाते।
९. हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सारी जल गयी, गए निसाचर भाग।। -तुलसी
१०. देख लो साकेत नगरी है यही।
स्वर्ग से मिलने गगन को जा रही।। -मैथिलीशरण गुप्त
११. प्रिय-प्रवास की बात चलत ही, सूखी गया तिय कोमल गात।
१२. दसन जोति बरनी नहिं जाई. चौंधे दिष्टि देखि चमकाई.
१३. आगे नदिया पडी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार, तब तक था चेतक उस पार।।
१४. भूषण भनत नाद विहद नगारन के, नदी नाद मद गैबरन के रलत है।
१५. ये दुनिया भर के झगडे, घर के किस्से, काम की बातें।
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ।। -जावेद अख्तर
१६. मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार।
दुःख ने दुःख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।। -निदा फाज़ली
अतिशयोक्ति अलंकार के निम्न ८ प्रकार (भेद) हैं।
१. संबंधातिशयोक्ति-
जब दो वस्तुओं में संबंध न होने पर भी संबंध दिखाया जाए अथवा जब अयोग्यता में योग्यता प्रदर्शित की जाए तब संबंधातिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
१. फबि फहरहिं अति उच्च निसाना।
जिन्ह मँह अटकहिं बिबुध बिमाना।।
फबि = शोभा देना, निसाना = ध्वज, बिबुध = देवता।
यहाँ झंडे और विमानों में अटकने का संबंध न होने पर भी बताया गया है।
२. पँखुरी लगे गुलाब की, परिहै गात खरोंच
गुलाब की पँखुरी और गात में खरोंच का संबंध न होने पर भी बता दिया गया है।
३. भूलि गयो भोज, बलि विक्रम बिसर गए, जाके आगे और तन दौरत न दीदे हैं।
राजा-राइ राने, उमराइ उनमाने उन, माने निज गुन के गरब गिरबी दे हैं।।
सुजस बजाज जाके सौदागर सुकबि, चलेई आवै दसहूँ दिशान ते उनींदे हैं।
भोगी लाल भूप लाख पाखर ले बलैया जिन, लाखन खरचि रूचि आखर ख़रीदे हैं।।
यहाँ भुला देने अयोग्य भोग आदि भोगीलाल के आगे भुला देने योग्य ठहराये गये हैं।
४. जटित जवाहर सौ दोहरे देवानखाने, दूज्जा छति आँगन हौज सर फेरे के।
करी औ किवार देवदारु के लगाए लखो, लह्यो है सुदामा फल हरि फल हेरे के।।
पल में महल बिस्व करमै तयार कीन्हों, कहै रघुनाथ कइयो योजन के घेरे में।
अति ही बुलंद जहाँ चंद मे ते अमी चारु चूसत चकोर बैठे ऊपर मुंडेरे के।।
५. आपुन के बिछुरे मनमोहन बीती अबै घरी एक कि द्वै है।
ऐसी दसा इतने भई रघुनाथ सुने भय ते मन भ्वै है।।
गोपिन के अँसुवान को सागर बाढ़त जात मनो नभ छ्वै है।
बात कहा कहिए ब्रज की अब बूड़ोई व्है है कि बूडत व्है हैं।।
२. असम्बन्धातिशयोक्ति-
जब दो वस्तुओं में संबंध होने पर भी संबंध न दिखाया जाए अथवा जब योग्यता में अयोग्यता प्रदर्शित की जाए तब असंबंधातिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
१. जेहि वर वाजि राम असवारा। तेहि सारदा न बरनै पारा।।
वाजि = घोडा, न बरनै पारा = वर्णन नहीं कर सकीं।
२. अति सुन्दर लखि सिय! मुख तेरो। आदर हम न करहिं ससि केरो।।
करो = का। चन्द्रमा में मुख- सौदर्य की समानता के योग्यता होने पर भी अस्वीकार गया है।
३. देखि गति भासन ते शासन न मानै सखी
कहिबै को चहत गहत गरो परि जाय
कौन भाँति उनको संदेशो आवै रघुनाथ
आइबे को न यो न उपाय कछू करि जाय
विरह विथा की बात लिख्यो जब चाहे तब
ऐसे दशा होति आँच आखर में भरि जाय
हरि जाय चेत चित्त सूखि स्याही छरि जाय
३. चपलातिशयोक्ति-
जब कारण के होते ही तुरंत कार्य हो जाए।
उदाहरण-
१. तव सिव तीसर नैन उघारा। चितवत काम भयऊ जरि छारा।।
शिव के नेत्र खुलते ही कामदेव जलकर राख हो गया।
२. आयो-आयो सुनत ही सिव सरजा तव नाँव।
बैरि नारि दृग जलन सौं बूडिजात अरिगाँव।।
४. अक्रमातिशयोक्ति-
जब कारण और कार्य एक साथ हों।
उदाहरण-
१. बाणन के साथ छूटे प्राण दनुजन के।
सामान्यत: बाण छूटने और लगने के बाद प्राण निकालेंगे पर यहाँ दोनों क्रियाएं एक साथ होना बताया गया है।
२. पाँव के धरत, अति भार के परत, भयो एक ही परत, मिली सपत पताल को।
३. सन्ध्यानों प्रभु विशिख कराला, उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।
४. क्षण भर उसे संधानने में वे यथा शोभित हुए।
है भाल नेत्र जवाल हर, ज्यों छोड़ते शोभित हुए।।
वह शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ।
धड से जयद्रथ का उधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।।
५. अत्यंतातिशयोक्ति-
जब कारण के पहले ही कार्य संपन्न हो जाए।
उदाहरण:
१. हनूमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सगरी जर गयी, गये निसाचर भाग।।
२. धूमधाम ऐसी रामचद्र-वीरता की मची, लछि राम रावन सरोश सरकस तें।
बैरी मिले गरद मरोरत कमान गोसे, पीछे काढ़े बाण तेजमान तरकस तें।।
६. भेदकातिशयोक्ति-
जहाँ उपमेय या प्रस्तुत का अन्यत्व वर्णन किया जाए, अभेद में भी भेद दिखाया जाए अथवा जब और ही, निराला, न्यारा, अनोखा आदि शब्दों का प्रयोग कर किसी की अत्यधिक या अतिरेकी प्रशंसा की जाए।
उदाहरण-
१. न्यारी रीति भूतल, निहारी सिवराज की।
२. औरे कछु चितवनि चलनि, औरे मृदु मुसकान।
औरे कछु सुख देत हैं, सकें न नैन बखान।।
अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान।
वह चितवन औरे कछू, जेहि बस होत सुजान।।
७. रूपकातिशयोक्ति-
उदाहरण-
१. जब केवल उपमान या अप्रस्तुत का कथन कर उसी से उपमेय या प्रस्तुत का बोध कराया जाए अथवा उपमेय का लोप कर उपमान मात्र का कथा किया जाए अर्थात उपमान से ही अपमान का भी अर्थ अभीष्ट हो तब रूपकातिशयोक्ति होता है। रूपकातिशयोक्ति का अधिक विक्सित और रूढ़ रूप प्रतिक योजना है।
उदाहरण-
१. कनकलता पर चंद्रमा, धरे धनुष दो बान।
कनकलता = स्वर्ण जैसी आभामय शरीर, चंद्रमा = मुख, धनुष = भ्रकुटी, बाण = नेत्र, कटाक्षकनकलता यहाँ नायिका के सौन्दर्य का वर्णन है। शरीर, मुख, भ्रकुटी, कटाक्ष आदि उप्मेयों का लोप कर केवल लता, चन्द्र, धनुष, बाण आदि का कथन किया गया है किन्तु प्रसंग से अर्थ ज्ञात हो जाता है।
२. गुरुदेव! देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा।
यहाँ उपमेय अभिमानु का उल्लेख न कर उपमान सिंह मात्र का उल्लेख है जिससे अर्थ ग्रहण किया जा सकता है।
३.विद्रुम सीपी संपुट में, मोती के दाने कैसे।
है हंस न शुक यह फिर क्यों, चुगने को मुक्त ऐसे।।
४. पन्नग पंकज मुख गाहे, खंजन तहाँ बईठ।
छत्र सिंहासन राजधन, ताकहँ होइ जू दीठ।।
८. सापन्हवातिशयोक्ति-
यह अपन्हुति और रूपकातिशयोक्ति का सम्मिलित रूप है। जहाँ रूपकातिशयोक्ति प्रतिषेधगर्भित रूप में आती है वहाँ सापन्हवातिशयोक्ति होता है।
उदाहरण-
१. अली कमल तेरे तनहिं, सर में कहत अयान।
यहाँ सर में कमल का निषेध कर उन्हें मुख और नेत्र के रूप में केवल उपमान द्वारा शरीर में वर्णित किया गया है।
टिप्पणी: उक्त ३, ४, ५ अर्थात चपलातिशयोक्ति, अक्रमातिशयोक्ति तथा अत्यंतातिशयोक्ति का भेद कारण के आधार पर होने के कारण कुछ विद्वान् इन्हें कारणातिशयोक्ति के भेद-रूप में वर्णित करते हैं।
***
***
गीत -
*
महाकाल के पूजक हैं हम
पाश काल ये नहीं सुहाते
नहीं समय-असमय की चिंता
कब विलंब से हम घबराते?
*
खुद की ओर उठीं त्रै ऊँगली
अनदेखी ही रहीं हमेशा
एक उठी जो औरों पर ही
देख उसी को ख़ुशी मनाते
*
कथनी-करनी एक न करते
द्वैत हमारी श्वासों में है
प्यासों की कतार में आगे
आसों पर कब रोक लगाते?
*
अपनी दोनों आँख फोड़ लें
अगर तुम्हें काना कर पायें
संसद में आचरण दुरंगा
हो निलज्ज हम रहे दिखाते
*
आम आदमी की ताकत ही
रखे देश को ज़िंदा अब तक
नेता अफसर सेठ बेचकर
वरना भारत भी खा जाते
***
गीत
*
महाकाल के पूजक हैं हम
पाश काल के नहीं सुहाते
नहीं समय-असमय की चिंता
कब विलंब से हम घबराते?
*
खुद की ओर उठीं त्रै ऊँगली
अनदेखी ही रहीं हमेशा
एक उठी जो औरों पर ही
देख उसी को ख़ुशी मनाते
*
कथनी-करनी एक न करते
द्वैत हमारी श्वासों में है
प्यासों की कतार में आगे
आसों पर कब रोक लगाते?
*
अपनी दोनों आँख फोड़ लें
अगर तुम्हें काना कर पायें
संसद में आचरण दुरंगा
हो निलज्ज हम रहे दिखाते
*
आम आदमी की ताकत ही
रखे देश को ज़िंदा अब तक
नेता अफसर सेठ बेचकर
वरना भारत भी खा जाते
*
***
एक रचना:
*
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
मर्जी हो तो पंगु को
गिरि पर देता है चढ़ा
अंधे को देता दिखा
निर्धन को कर दे धनी
भक्तों को लेता बचा
वो खुले-आम, बिन आड़ के
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
पानी बिन सूखा कहीं
पानी-पानी है कहीं
उसका कुछ सानी नहीं
रहे न कुछ उससे छिपा
मनमानी करता सदा
फिर पत्ते चलता ताड़ के
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
अपनी बीबी छुड़ाने
औरों को देता लड़ा
और कभी बंसी बजा
करता डेटिंग रास कह
चने फोड़ता हो सलिल
ज्यों भड़भूंजा भाड़ बिन
या तो वो देता नहीं
या देता छप्पर फाड़ के
*
३-१२-२०१५
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