मुक्तिका
गम के बादल अंबर पर छाते जब भी
प्रियदर्शी को देख हवा हो जाते हैं
हुए गमजदा गम तो पाने छुटकारा
आँखों से झर मन का ताप मिटाते हैं
रखो हौसला होता है जब तिमिर घना
तब ही दिनकर-उषा सवेरा लाते हैं
तूफानों से नीड़ उजड़ जाए चाहे
पंछी आकर सरस प्रभाती गाते हैं
दिया शारदा ने वर गीतों का अनुपम
गम हरने वे मन-कुंडी खटकाते हैं
अमरकंटकी विष पीने की परंपरा
शब्दामृत पी विष को अमिय बनाते हैं
बे-गम हुई जिंदगी तो क्या जीतें हम
गम आ मिल मिट हमको जयी बनाते हैं
अंबर का विस्तार नहीं गम नाप सके
बारिश बन बह, भू को हरा बनाते हैं
१२-१०-२०१९
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राजस्थानी मुक्तिका
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आसमान में अटक्या सूरज
गेला भूला भटक्या सूरज
*
संसद भीतर बैठ कागलो
काँव-काँव सुन थकग्या सूरज
कोरोना ने रस्ता छेंका
बदरी पीछे छिपग्या सूरज
भरी दफेरी बैठ हाँफ़ र् यो
बिना मजूरी चुकग्या सूरज
धूली चंदण नै चपकेगी
भेळा करता भटक्या सूरज
चादर सीतां सीतां थाका
लून-तेल में फँसग्या सूरज
साँची-साँची कहें सलिल जी
नेता बण ग्यो ठग र् या सूरज
***
१३-१०-२०२०
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021
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