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शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

गीत, नवगीत, बालगीत

बाल गीत / नव गीत:
खोल झरोखा....
संजीव 'सलिल'
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
****
नवगीत:
महका... महका...
संजीव 'सलिल'
*
महका... महका...
मन-मन्दिर रख सुगढ़-सलौना
चहका...चहका...
*
आशाओं के मेघ न बरसे,
कोशिश तरसे.
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घरसे..
बासन माँजे, कपड़े धोये,
काँख-काँखकर.
समझ न आये पर-सुख से
हरषे या तरसे?
दहका...दहका...
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका...लहका...
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाये?
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताये?
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी,
आँखें चमकें.
कहाँ जाएगी मंजिल?
सपने हों न पराये.
बहका...बहका..
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका...
****
नव गीत:
कैसी नादानी??...
संजीव 'सलिल'
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..

घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
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नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
****
बाल गीत:
माँ-बेटी की बात
संजीव 'सलिल'
*
रानी जी को नचाती हैं महारानी नाच.
झूठ न इसको मानिये, बात कहूँ मैं साँच..

बात कहूँ मैं साँच, रूठ पल में जाती है.
पल में जाती बहल, बहारें ले आती है..

गुड़िया हाथों में गुड़िया ले सजा रही है.
लोरी गाकर थपक-थपक कर सुला रही है.

मारे सिर पर हाथ कहे: ''क्यों तंग कर रही?
क्यों न रही सो?, क्यों निंदिया से जंग कर रही?''

खीज रही है, रीझ रही है, हो बलिहारी.
अपनी गुड़िया पर मैया की गुड़िया प्यारी..

रानी माँ हैरां कहें: ''महारानी सो जाओ.
आँख बंद कर अनुष्का! सपनों में मुस्काओ.

तेरे पापा आ गए, खाना खिला, सुलाऊँ.
जल्दी उठाना है सुबह, बिटिया अब मैं जाऊँ?''

बिटिया बोली ठुमक कर: ''क्या वे डरते हैं?'
क्यों तुमसे थे कह रहे: 'तुम पर मरते हैं?

जीते जी कोई कभी कैसे मर सकता?
बड़े झूठ कहते तो क्यों कुछ फर्क नहीं पड़ता?''

मुझे डांटती: ''झूठ न बोलो तुम समझाती हो.
पापा बोलें झूठ, न उनको डांट लगाती हो.

मेरी गुड़िया नहीं सो रही, लोरी गाओ, सुलाओ.
नाम न पापा का लेकर, तुम मुझसे जान बचाओ''..

हुई निरुत्तर माँ गोदी में ले बिटिया को भींच.
लोरी गाकर सुलाया, ममता-सलिल उलीच..
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नवगीत:
उत्सव का मौसम
-- संजीव 'सलिल'
*
उत्सव का मौसम
बिन आये ही सटका है...
*
मुर्गे की टेर सुन
आँख मूँद सो रहे.
उषा की रूप छवि
बिन देखे खो रहे.
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है.....
*
नाक बहा, टाई बाँध
अंगरेजी बोलेंगे.
अब कान्हा गोकुल में
नाहक ना डोलेंगे..
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है...
*
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है.
पद-मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है..
मलिन बिम्ब देख-देख
मन-दर्पण चटका है...
*
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है.
राजनीति कहे साध्य
केवल खलनायक है.
पगडंडी भूल
राजमार्ग राह भटका है...
*
मँहगाई आयी
दीवाली दीवाला है.
नेता है, अफसर है
पग-पग घोटाला है.
अँगने को खिड़की
दरवाजे से खटका है...
****

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