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बुधवार, 5 अगस्त 2020

रक्षा बंधन के दोहे

रक्षा बंधन के दोहे:
संजीव 'सलिल'
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चित-पट दो पर एक है, दोनों का अस्तित्व.
भाई-बहिन अद्वैत का, लिए द्वैत में तत्व..
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दो तन पर मन एक हैं, सुख-दुःख भी हैं एक.

यह फिसले तो वह 'सलिल', सार्थक हो बन टेक..
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यह सलिला है वह सलिल, नेह नर्मदा धार.

इसकी नौका पार हो, पा उसकी पतवार..
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यह उसकी रक्षा करे, वह इस पर दे जान.

'सलिल' स्नेह' को स्नेह दे, कर निसार निज जान ..
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बहिना नदिया निर्मला, भाई घट सम साथ .

नेह नर्मदा निनादित, गगन झुकाये माथ.
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कुण्डलिनी ने बांध दी, राखी दोहा-हाथ.

तिलक लगाकर गीत को, हँसी मुक्तिका साथ..
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राखी की साखी यही, संबंधों का मूल.

'सलिल' स्नेह-विश्वास है, शंका कर निर्मूल..
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सावन मन भावन लगे, लाये बरखा मीत.

रक्षा बंधन-कजलियाँ, बाँटें सबको प्रीत..
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मन से मन का मेल ही, राखी का त्यौहार.

मिले स्नेह को स्नेह का, नित स्नेहिल उपहार..
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आकांक्षा हर भाई की, मिले बहिन का प्यार.

राखी सजे कलाई पर, खुशियाँ मिलें अपार..
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राखी देती ज्ञान यह, स्वार्थ साधना भूल.

स्वार्थरहित संबंध ही, है हर सुख का मूल..
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मेघ भाई धरती बहिन, मना रहे त्यौहार.

वर्षा का इसने दिया, है उसको उपहार..
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हम शिल्पी साहित्य के, रखें स्नेह-संबंध.

हिंदी-हित का हो नहीं, 'सलिल' भंग अनुबंध..
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राखी पर मत कीजिये, स्वार्थ-सिद्धि व्यापार.

बाँध- बँधाकर बसायें, 'सलिल' स्नेह संसार..
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भैया-बहिना सूर्य-शशि, होकर भिन्न अभिन्न.

'सलिल' रहें दोनों सुखी, कभी न हों वे खिन्न..
...
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४
२०४ विजय अपार्टमेन्ट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१

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