हरियाणवी-पंजाबी लोकगीतों में छंद-छटा
- चंद्रकांता अग्निहोत्री
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परिचय: जन्म: पंजाब। आत्मजा: श्रीमती लाजवन्ती जी-श्री सीताराम जी। जीवनसाथी: श्री केवलकृष्ण अग्निहोत्री। काव्य गुरु: डॉ. महाराजकृष्ण जैन, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, ॐ नीरव जी। लेखन विधा: लेखन, छायांकन. पेंटिंग। प्रकाशित: ओशो दर्पण,वान्या काव्य संग्रह, सच्ची बात लघुकथा संग्रह, गुनगुनी धूप के साये गीत-ग़ज़ल।पत्र-पत्रिकाओं में कहानी , लघुकथा, कविता , गीत, आलोचना आदि। उपलब्धि: लघुकथा संग्रह सच्ची बात पुरस्कृत । संप्रति: से.नि. प्रध्यापक/पूर्वाध्यक्ष हिंदी विभाग, राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सेक्टर 11,चंडीगढ़।संपर्क: ४०४ सेक्टर ६, पंचकूला, १३४१०९ हरियाणा।चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: agnihotri.chandra@gmail.com।
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भारतीय संस्कृति और धर्म की शिखर पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता' की रचनास्थली और धर्माधर्म की रणभूमि रहा हरयाणा प्रांत देश के अन्य प्रांतों की तरह लोककला और लोकसंस्कृति से संपन्न और समृद्ध है। हरयाणवी जीवन मूल्य मेल-जोल, सरलता, सादगी, साहस, मेहनत और कर्मण्यता जैसे गुणों पर भी आधारित है। हरियाणा की उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताएँ होने के कारण विकास और जनकल्याण के संबंध में हरियाणा आज भी अग्रणी राज्यों में से एक है। इस प्रांत के ग्राम्यांचलों में साँझी माई की पूजा की जाती है। साँझी माई की पूजा के लिए सभी लड़कियाँ व महिलायें एकत्र हो साँझी माई की आरती उतारती हैं। उनके मधुर लोक गीतों से पूरा वातावरण गूँज उठता है। सांझा माई का आरता २२१२ २१२ की लय में निबद्ध होता है ( आदित्य जातीय छंद, ७-५ पदांत गुरु -सं.)
आरता हे आरता/साँझी माई! आरता/आरता के फूलां /चमेली की डाहली/नौं नौं न्योरते/नोराते दुर्गा या सांझी माई
हरियाणा के लोक गीतों में लोरी का बहुत महत्व है। लोरी शब्द संस्कृत भाषा से आया है। यह 'लील' शब्द का अपभ्रंश है, इसका अर्थ झूला झुलाते हुए, मधुर गीत गाकर बच्चे को सुलाना है। इन गीतों को सुनकर हृदय ममता से भर जाता है। (निम्न लोरी गीत का २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है, जिसमें वाचिक परंपरानुसार यति-स्थान बदलता रहता है, अंत में २८-१३ मात्रिक पंक्तियाँ हैं। इसे दो छंदों का मिश्रण कहा जा सकता है -सं.)
लाला लाला लोरी, ढूध की कटोरी २२ /दूध में बताशा, लाला करे तमाशा २२ / चंदा मामा आएगा, दूध-मलाई खाएगा २८ / लाला को खिलाएगा१३
ममता भरे हृदय से नि:सृत मनमोहक स्वर-माधुर्य लोरी शब्द को सार्थक कर देता है। (निम्न लोरी ३० मात्रिक महातैथिक जातीय रुचिरा छंद में निबद्ध है जिसमें १४-१६ पर यति तथा पदांत गुरु का विधान है- सं.)
पाया माsह पैजनियाँ १४, लल्ला छुमक–छुमक डोलेगा १६/ दादा कह के बोलेगा १४, दादी की गोदी खेलेगा १६।
हरयाणवी लोकगीतों का वैशिष्ट्य भावों की सहज अभिव्यक्ति है तो आधुनिक रचनाओं में शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोश की भावनाएँ मुखरित हुई हैं। कवि छैला चक्रधर बहुगुणा हरियाणवी (जयसिंह खानक) ने प्रस्तुत गीत में आज की राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है। कवि का आक्रोश उसके हृदय की व्यथा पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त है। (३१ मात्रिक छंद में १६-१५ पर यति व पदांत में दो गुरु का विधान रखते हुए अश्वावतारी जातीय छंद में इसे रचा गया है -सं.)
कदे हवाले कदे घुटाले, एक परखा नई चला दी
लूट-लूट के पूंजी सारी, विदेशां मैं जमा करादी
निजीकरण और छंटणी की, एक नइये चाल चला दी
सरकार महकमें बेच रही, या किसनै बुरी सला' दी
या नींव देश की हिला दी, कोण डाटण आळे होगे
हो लिया देश का नाश, आज ये मोटे चाळे होगे
हरियाणवी भाषा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी ऐसी नहीं है कि अन्य भाषा-भाषियों को समझ में न आए। निम्न रचना में नायिका के मन की सूक्ष्म तरंगों को कवि कृष्ण चन्द ने सुंदर शब्दों में ढाला है। अति सुंदर भाव, शब्द संयोजन तथा व्यंजनात्मक शैली हृदयग्राही है। (विधान ३१ मात्रिक, १७-१४ पर यति, गुरुलघु या लघुगुरु (संभवत:३ लघु या २ गुरु वर्जित, अश्वावतारी जातीय छंद -सं.)
आज सखी म्हारे बाग मैं हे१७ किसी छाई अजब बहार १४
हे ये हंस पखेरू आ रहे | १७
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं,१७ ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै १७ मिलैं कर आपस मैं प्यार १४
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे १७
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे.....
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे बड़ी प्यारी सुरत हे इसी,
जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
विवाह-शादी में एक से एक बढ़कर गीत गाये जाते हैं। देखिये एक २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद की एक झलक:
मैं तो गोरी-गोरी, बालम काला-काला री! १२-१४
मेरे जेठ की बरिये, सासड़ के खाया था री! १३-१४
वा तो बरफियाँ की मार, जिबे धोला-धोला री! १३-१३
जेठ के स्थान पर ससुर, बालम, देवर आदि रखकर बहू अपनी सास से सबके बारे में पूछती है। इन लोकगीतों में हास-परिहास तथा चुहुलबाजी का पुट प्रधान होता है।
देश में हो रही बँटवारा नीति पर कई कवियों की कलम चली है। प्रस्तुत है संस्कारी छंद में एक गीत:
देश में हो रइ बाँटा-बाँट / बनिया बामन अर कोइ जाट १६-१६
सावन के महीने में मैके की याद आना स्वाभाविक है। यौगिक छंद (यति १५-१३) में रचित इस लोकगीत में बाबुल के घर की मौज-मस्ती का सजीव चित्रण हुआ है:
नाना-नानी बूँदिया सा,वण का मेरा झूलणा १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, बाबल जी के राज में १५-१३
सँग की सखी-शेली है सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, भैया जी के राज में १५-१३
गोद-भतीजा है मन्ने सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
यौगिक छंद (यति १४-१४) में एक और मधुर गीत का रसामृत पान करें:
कच्चे नीम की निमोली सावण कदकर आवै रे
बाबल दूर मत व्याहियो, दादी नहीं बुलावण की
बाब्बा दूर मत व्याहियो, अम्मा नहीं बुलावण की
मायके का सुख भुलाए नहीं भूलता, इसलिए हरियाणा की लड़की सबसे प्रार्थना करती है की उसका विवाह दूर न किया जाए। ऐसा न हो कि वह सावन के महीने में मायके न आ सके।
हरियाणावी गीतों में लयबद्धता, गीतिमयता, छंदबद्धता व् मधुरता के गुण पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित हैं। इस अंचल की सभ्यता व संस्कृति को इन लोकगीतों में पाया जा सकता है। इन गीतों में सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य भी देखा जा सकता है। करतार सिंह कैत रचित निम्न गीत में दलितोद्धार के क्षेत्र में अग्रणी रहे आंबेडकर जी को याद किया गया है:
बाबा भीम को करो प्रणाम रे १८ / बोलो भीम भीम भीम भीम रे...टेक / भारत का संविधान बनाया, १७ / सभी जनों को गले लगाया १६ / पूरा राख्या ध्यान रे... १३ बोलो भीम भीम... / इनका मिशन घणा लाग्या प्यारा १८ / भीम मिशन तै मिल्या सहारा १७ / सब सुणो करकै ध्यान रे १४ बोलो भीम भीम.../ बाबा साहब की ज्योत जगाओ, १८ / इनके मिशन को सफल बनाओ १७ / थारा हो ज्यागा कल्याण रे १७ / बोलो भीम भीम.../ करतार सिंह ने शबद बनाया १७ / सभा बीच मैं आकै गाया १६ / जिसका कोकत गांव रे १३ / बोलो भीम भीम...
पंजाबी काव्य में छंद छटा:
लोकगीत मिट्टी की सौंधी खुशबू की तरह होते हैं, जैसे अभी-अभी बरसात ने धरती को अपनी रिमझिम से सहलाया हो, जैसे हवा के झोंको ने अभी अभी कोई सुंदर गीत गाया हो या पेड़ों से गुजरती मधुर बयार ने हर पत्ते को नींद से जगाया हो तो फिर क्यों न बज उठे पत्तों की पाजेब। ऐसा ही हमारा लोक साहित्य, साहित्य तो साहित्य है लेकिन लोकसाहित्य जनमानस के अति निकट है, उसकी धड़कन जैसा, उसकी हर सांस जैसा, ऐसे कि जैसे हर दर्द, सबका दर्द, हर ख़ुशी, सबकी ख़ुशी। पंजाबी लोककाव्य जैसे माहिया, गिद्दा, टप्पे, बोलियाँ आदि प्रदेश की सीमा लाँघकर देश-विदेश में पहचाने और गाये जाते हैं:
माहिया:
माहिया पंजाब का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकगीत है। प्रेमी या पति को 'माहिया वे' सम्बोधित किया जाता है। इस छंद में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष होते हैं। अब अन्य रस भी सम्मिलित किये जाने लगे हैं। इस छंद में प्रायः प्रेमी-प्रेमिका की नोक-झोंक रहती है। जो अभिव्यक्तियाँ हैं जो कभी न कही जा सकीं, जो दिल के किसी कोने मे पड़ी रह गईं, जिन्हें समाज ने नहीं समझावही व्यथा कई रूपों में प्रकट होती है। पत्नी को ससुराल, अपने माही के साथ ही जाना है, वह अपने आकर्षण-विकर्षण को छिपाती नहीं है:
पैली-पैली वार मैनू नाई लैण आ गया(तीन बार) / नाई दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोल्या न जाए। नाई वे... नाई ते बड़ा शुदाई, मैं एहदे नाल नईजाणा ३
दूजी-दूजी बार मैनू सौरा लैण आ गया। सौरे दे नाल मेंरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए। सौरा वे....सौरा मुहं दा कौड़ा, मैं एहदे नाल नई जाणा ३
तीजी-तीजी वार मैनू जेठ लैण आ गया ३,जेठे दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए।, कुंडा खोलया न जाए (घूंघट उठाना )
जेठ वे.... जेठ दा मोटा पेट , मैं अहदे नाल नई जाणा
चौथी-चौथी वार मैनू दयोर लैण आ गया।, दयोर दे नाल मेरी जांदी ए बलां (मुसीबत)
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए
दयोर वे ..दयोर दिल दा चोर ....मैं अहदे नाल नई जाणा (देवर)
पंजवी वार मैनू आप लैण आ गया, माहिये दे नाल मैं टुर जाणा
घुंड चकया वि जाय ,मुंहों बोल्या वि जाय ,कुंडा खोल्या वि जाए
माहिया वे.... माहिया ढोल सिपाहिया मैं तेरे नाल टुर जाणा |
माहिया: यह पंजाबी का सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। यह एक मात्रिक छंद है। इसकी पहली और तीसरी पंक्ति में १२-१२ मात्राएं (२२११२२२) तथा दूसरी पंक्ति में १० (२११२२२) मात्राएँ रहती हैं। तीनों पंक्तियों में सभी गुरु भी आ सकते हैं। पहले और तीसरे चरण में तुकांत से चारुत्व वृद्धि होती है। प्रवाह और लय अर्थात माहिया का वैशिष्ट्य है। इस छंद में लय और प्रवाह हेतु अंतिम वर्ण लघु नहीं होना चाहिए। सगाई-विवाह आदि समारोहों में माहिया छंद पर आधारित गीत गाए जाते हैं।
तुम बिन सावन बीते १२ / आना बारिश बन १० / हम हारे तुम जीते १२
कजरा यह मुहब्बत का / तुमने लगाया है / आँखों में कयामत का। -सूबे सिंह चौहान ..
खुद तीर चलाते हो / दोष हमारा क्या / तुम ही तो सिखाते हो। -कृष्णा वर्मा
अहसास हुए गीले / जुगनू सी दमकी / यादों की कंदीलें।
स्व. श्री प्राण शर्मा जी लन्दन के इस माहिए में संसार की नश्वरता का वर्णन है:
कुछ ऐसा लगा झटका / टूट गया पल में / मिट्टी का इक मटका।
पारंपरिक माहिया को नयी जमीन देते हुए संजीव सलिल जी ने सामयिक-सामाजिक माही लिखे हैं:
हर मंच अखाडा है / लड़ने की कला गायब / माहौल बिगाड़ा है.
सपनों की होली में / हैं रंग अनूठे ही / सांसों की झोली में.
पत्तों ने पतझड़ से / बरबस सच बोल दिया / अब जाने की बारी
चुभने वाली यादें / पूँजी हैं जीवन की / ज्यों घर की बुनियादें
है कैसी अनहोनी? / सँग फूल लिये काँटे / ज्यों गूंगे की बोली
भावी जीवन के ख्वाब / बिटिया ने देखे हैं / महके हैं सुर्ख गुलाब
चूनर ओढ़ी है लाल / सपने साकार हुए / फिर गाल गुलाल हुए
मासूम हँसी प्यारी / बिखरी यमुना तट पर / सँग राधा-बनवारी
देखे बिटिया सपने / घर-आँगन छूट रहा / हैं कौन-कहाँअपने?
हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार-छन्दाचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने माहिया का प्रयोग गीत लेखन में करते हुए मुखड़ा और अंतरा दोनों माहिया छंद में रचकर सर्वप्रथम यह प्रयोग किया है:
मौसम के कानों में / कोयलिया बोले / खेतों-खलिहानों में।........मौसम के कानों में वाह !
आओ! अमराई से / आज मिल लो गले, / भाई और माई से।....बहुत खूब
आमों के दानों में / गर्मी रस घोले, बागों-बागानों में--- सुंदर चित्रात्मकता
होरी, गारी, फगुआ / गाता है फागुन, / बच्चा, बब्बा, अगुआ।...अनमोल फागुन
सलिल जी ने एक और आयाम जोड़ा है माहिया ग़ज़ल का:
माहिया ग़ज़ल:
मापनी: ३ x ( १२-१०-१२)
मत लेने मत आना / जुमला, वादों को / कह चाहा बिसराना
अब जनता की बारी / सहे न अय्यारी / जन-मत मत ठुकराना
सरहद पर सर हद से / ज्यादा कटते क्यों? / कारण बतला जाना
मत संयम तुम खोओ / मत काँटे बोओ / हो गलत, न क्यों माना?
मंदिर-मस्जिद झगड़े / बढ़ने मत देना / निबटा भी दो लफड़े
भाषाएँ बहिनें हैं / दूरी क्यों इनमें? / खुद सीखो-सिखलाना
जड़ जमी जमीं में हो / शीश रहे ऊँचा / मत गगनबिहारी हो
परिवार न टूटें अब / बच्चे-बूढ़े सँग / रह सकें न अलगाना
अनुशासनखुद मानें / नेता-अफसर भी / धनपति-नायक सारे
बह स्नेह-'सलिल' निर्मल / कलकल-कलरव सँग / कलियों खिल हँस-गाना
टप्पे:
कोठे ते आ माइया / मिलना तां मिल आ के / नईं तां खसमां नूं खा माइया। (एक गाली )
की लैणा ए मित्रां तों / मिलन ते आ जांवा / डर लगदा ए छितरां तों। (जूते )
चिट्टा कुकड़ बनेरे ते (मुर्गा ) / बांकिये लाडलिए (सुंदर) / दिल आ गया तेरे ते |
१२-१३ मात्राओं व समान तुकांत की तथा दूसरी पंक्ति २ कम मात्राओं व भिन्न तुकांत की होती है. कुछ महियाकारों ने तीनों पंक्तियों का समान पदभार रखते हुए माहिया रचे हैं. डॉ. आरिफ हसन खां के अनुसार 'माहिया का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिये फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल-बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किये जा सकते हैं. [तफ़सील के लिये मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर (इन पंक्तियों के लेखक) की किताब ’मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब (अध्याय) माहिए के औज़ान]।'
बोलियाँ:
बारी बरसी खटन गया सी खट के लियांदी लाची |(कमाने,फल )
गिद्दा तां सजदा जे नचे मुंडे दी चाची (लड़का ,दूल्हा )
मेरे जेठ दा मुंडा नी बड़ा पाजी / नाले मारे अखियां नाले आखे चाची
नी इक दिन शहर गया सी / औथों कजल लियाया (वहां से )
फिर कहंदा / की (क्या) कहंदा? / नी कजल पा चाची, / नी अख मिला चाची २
बल्ले-बल्ले नि तोर पंजाबन दी (चाल )/ जुत्ती खल दी मरोड़ा नइयों झलदी / तोर पंजाबन दी। (चाल)
बल्ले- बल्ले कि तेरी मेरी नहीं निभणी।/ तूँ तेलण मैं सुनियारा / तेरी मेरी नईं निभणी
बल्ले-बल्ले तेरी मेरी निभ जाऊगी / सारे तेलियां दी जंज बना दे /के तेरी-मेरी निभ जाऊगी |
एक समय सब अपने रिश्तों के प्रति समर्पित थे। पति कैसा भी हो पत्नी के लिए वही सब कुछ होता था। प्रस्तुत गीत में सास के प्रति उपालम्भ है क्योंकि वह तो अपने सभी बच्चों से प्रेम करती है, जबकि बहू को तो अपना पति ही सबसे प्रिय है |
काला शा काला, / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो |(अर्थात काले रंग पर सुनहरी बहुत जचता है )
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो एबी दो शराबी, / जेहड़ा मेरे हान दा ओह खिड़िया फुल गुलाबी|
काला शा काला / ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो टीन दो कनस्तर / जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया है दफ्तर |
काला शा काला ओह काला शा काला
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, /दो कम्बल ते दो खेस | जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया परदेस |
काला शा काला....ओह काला शा काला / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो
पंजाबी लोकगीतों माहिया, टप्पे,बोलियां, गिद्दा, भांगड़ा आदि में मन की हर इच्छा को सहजता-सरलता व ईमानदारी से प्रस्तुत किया जाता है।
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