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गुरुवार, 25 जून 2020

समीक्षा के भेदक तत्व

समीक्षा के भेदक तत्व
डॉ०आलोक रंजन कुमार

शास्त्रीय समीक्षा तथा स्वच्छंदतावादी समीक्षा के भेदक तत्व--

शास्त्रीय समीक्षाशास्त्र के रूप में समीक्षा की परंपरा अति प्राचीन है। "शास्त्र" शब्द को परिभाषित करते हुए "शासनात शास्त्रम्" तथा "शंसनात शास्त्रम्" दोनों बातें कही गई हैं। वस्तुतः शास्त्र शासन भी करता है और अनुशंसा (संस्तुति) भी। भारतवर्ष में आचार्य भरत के समय विक्रम संवत दूसरी सदी तथा पाश्चात्य जगत में प्लेटो के काल से ही क्रमशः काव्य और कला के रूप में साहित्य के लिए निकष की स्थापना होती रही है। परवर्ती रचनाकार उनका अनुसरण करते रहे हैं। आज भी कुछ तथावत् तथा कुछ परिवर्तित रूपों में आलोचनाशास्त्र साहित्य रूपों का नियमन तथा उसका परीक्षण करता है। हां , इतनी बात अवश्य है कि आचार्य भरत के शब्दों में- लोक जीवन का अनुकरण है "लोकानुकरणम् नाट्यम्" तथा प्लेटो के शब्दों में - "वह प्रकृति का अनुकरण है"- (इमिटेशन ऑफ नेचर)। लोक मान्यताओं की परिवर्तनशीलता तथा पाश्चात्य मान्यताओं के प्रभाव स्वरूप भारतीय मान्यताएं भी बदलती रही हैं। तदनुसार साहित्य की समीक्षा भी भिन्न-भिन्न ढंग से होती रही हैं।
संस्कृत वांग्मय में प्रतिभा के दो रूप माने गए हैं --
(१).कारयित्रि प्रतिभा तथा, (२).भावयित्री प्रतिभा ।

(१). कारयित्री प्रतिभा के बल पर रचनाकार सृजन करता है।
(२).भावयित्री प्रतिभा के बल पर पाठक तथा आलोचक उसका मूल्यांकन करते हैं । आलोचक इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि कोई रचनाकार मानव हृदय की अनुभूतियों को किस सौंदर्य और सीमा के साथ उद्घाटित करने में सफल हुआ है।
आलोचना के दो रूप माने जाते हैं --
(1). सैद्धांतिक आलोचना,
(2). व्यावहारिक आलोचना।

(1). सैद्धांतिक आलोचना के अंतर्गत साहित्य रचना के सिद्धांतों का निरूपण होता है। इसके अंतर्गत रचनाओं के प्रतिमान गठित किए जाते हैं।
(2). व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत उन सिद्धांतों के आधार पर किसी कृतिकार अथवा उसकी कृति विशेष का परीक्षण किया जाता है।
संस्कृत में सैद्धांतिक समीक्षा की तो सुदीर्घ परंपरा मिलती है । परंतु व्यावहारिक आलोचना /समीक्षा का कोई रूप वहां नहीं मिलता। व्यवहारिक समीक्षा का विकास हिंदी में शुक्ल युग से प्रारंभ हुआ। हिंदी में इसकी दीर्घ परंपरा है ।
सैद्धांतिक समीक्षा के अंतर्गत शास्त्रीय - समन्वयात्मक, स्वच्छंदतावादी, उपयोगितावादी, मनोविश्लेषणात्मक तथा समाजशास्त्रीय इत्यादि कई प्रकार की समीक्षा पद्धतियों का विकास हुआ है।
हिंदी आलोचना के जनक के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को प्रायः सभी विद्वान् स्वीकारते हैं। इन्होंने सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार की समीक्षा की है।
सैद्धांतिक समीक्षा के अंतर्गत ये शास्त्रीय समीक्षक माने जाते हैं । उनकी "रस- मीमांसा" तथा "चिंतामणि" में "कविता क्या है?" शीर्षक निबंध शास्त्रीय समीक्षा के उदाहरण हैं । आगे भी शास्त्रीय समीक्षा से संबंधित जो भी ग्रंथ लिखे गए हैं, उसके शलाका पुरुष के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को ही स्वीकार किया गया है। वैसे तो हिंदी साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पूर्व भी रीतिकालीन कवि - आचार्यों ने लक्षण ग्रंथ की रचना की है, जिसे शास्त्रीय समीक्षा के रूप में स्वीकार किया जाता है। किंतु वह परंपरा डॉ० राम विनोद सिंह के शब्दों में - "अनगढ़-सी" है। वस्तुतः हिंदी में शास्त्रीय समीक्षा के पुरोधा आचार्य शुक्ल जी ही हैं , जिनका आगमन द्विवेदी युग के अंत में हुआ है। हिंदी आलोचना के इतिहास में शुक्ल जी को स्वमेव एक युग मानना समीचीन होगा।
आचार्य शुक्ल के पूर्व रीतिकालीन आचार्यों ने संस्कृत की शास्त्रीय समीक्षा के छ: संप्रदायों में से केवल चार अर्थात रस, छंद, अलंकार और ध्वनि संप्रदायों का अनुसरण करने का प्रयास किया। द्विवेदी युग में इसका विस्तार हुआ किंतु यहां भी शास्त्रीय समीक्षा संस्कृत के प्रभाव से मुक्त एवं आत्मनिर्भर नहीं है। शुक्ल जी ने साहित्य के नवबोध के साथ ही बदलती हुई भारतीय सामाजिकता से प्रभाव ग्रहण किया तथा साहित्य को लोकमंगल से जोड़कर उसके स्वरूप को लोचदार और कारण सापेक्ष बनाया ।
आचार्य शुक्ल जी की शास्त्रीय समीक्षा अपने काल के साहित्य आदर्शों तथा पारंपरिक साहित्य सिद्धांतों के समीकरण से निर्मित है। शुक्ल जी यह महसूस करते हैं कि शास्त्रीय समीक्षा अपने देश की समस्त सांस्कृतिक परंपरा से जुड़कर ही अधिक सार्थक एवं संगत बन गई है। परंतु कुछ विद्वानों का आरोप है कि आचार्य शुक्ल तथा ,उनकी समीक्षा नैतिक वादी है जो पारंपरिक भाव ।बोध का अंध समर्थन और नवबोध का प्रतिकार करती है। नैतिकता वादी दृष्टि प्रायः जीवन के व्यवहार पक्ष की अवहेलना करती है तथा यथार्थ से दूर वह आदर्शों में जीती है। साथ ही स्वरूप उपदेशात्मक हो जाता है। कुल मिलाकर हिंदी की शास्त्रीय समीक्षा साहित्य के पारंपरिक प्रतिमानों, प्राचीन एवं अर्वाचीन भावबोधों तथा पाश्चात्य एवं प्राचीन तथा नवीन मान्यताओं के समीकरण से निर्मित है। जीवन आदर्शों का पोषक तथा उससे जुड़ कर चलने वाली समीक्षा पद्धति है।
आचार्य शुक्ल जी की समीक्षा पद्धति रसवादी है। इन्होंने रस को ही काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया है। रीति काल में प्राय: अलंकारवादी समीक्षा की होड़ सी रही है। किंतु आचार्य शुक्ल के काल में तथा शुक्लोत्तर हिंदी समीक्षा का स्वरूप प्राय: रसवादी तथा लोक मांगलिक रहा है।
शास्त्रीय समीक्षकों की परंपरा में आचार्य शुक्ल के पश्चात् गुलाब राय( काव्य के रूप: सिद्धांत और अध्ययन), चंद्रबली पांडे, पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, लक्ष्मीनारायण सुधांशु (काव्य में अभिव्यंजनावाद ,जीवन के तत्व एवं काव्य के सिद्धांत), रामकृष्ण सिलीमुख, आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र( वांग्मय विमर्श), पंडित रमाशंकर शुक्ल रसाल, हरिऔध , माधव प्रसाद मिश्र, डॉ श्यामसुंदर दास, डॉ नगेंद्र आदि की सुदीर्घ परंपरा आती है।
स्वच्छंदतावादी समीक्षा-
आचार्य शुक्ल की शास्त्रीय समीक्षा के परंपरावादी एवं आदर्श परक दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया रूप में विकसित स्वच्छंदतावादी समीक्षा पद्धति प्रकाश में आई । शुक्ल जी का रसवादी दृष्टिकोण इतिवृत्तात्मक साहित्य के अभिव्यंजना कौशल तथा मूल्यांकन की नैतिकतावादी दृष्टि स्वच्छंदतावादी समीक्षकों को मान्य नहीं । प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् (1914 से 1919) भारतीय जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव आया तथा उसमें प्रभावित नए ढंग के काव्य का सूत्रपात हुआ तथा काव्य कला संबंधी नई धारणाएं सामने आईं। पारंपरिक मान्यताओं से हटकर साहित्यकारों ने आत्मानुभूति को साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान की। 1920 के आसपास दार्शनिक आभा से अभिमंडित, नूतन कोमल कल्पनाओं से सुसज्जित, आत्मपरक साहित्य के प्रणयन होने लगे, जो आगे चलकर छायावादी साहित्य के नाम से अभिहित हुआ।इनके मूल्यांकन में आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित शास्त्रीय समीक्षा पद्धति असमर्थ रही। इन समीक्षकों ने न तो वैसे साहित्यकारों के प्रति सहानुभूति दिखलाई और ना तो उन्हें इसकी सही परख ही हो सकी । फलत: छायावादी साहित्य को अनेक तरह के आरोपों का शिकार होना पड़ा। फलत: वैसे साहित्यकारों को अपने विरोधियों का उत्तर देने के लिए आलोचना के क्षेत्र में उतरना पड़ा और उन्होंने साहित्य के नए प्रतिमान गठित किए।
स्वच्छंदतावादी समीक्षा काव्य और शिल्प दोनों ही क्षेत्रों में नवीन मार्ग का अनुसरण करती है। यहां समष्टिगत अनुभूतियों और मान्यताओं की जगह व्यक्तिगत अनुभूतियों को साहित्य में स्थान दिया गया। स्वतंत्रता की भावना तथा विद्रोह की प्रवृत्ति स्वच्छंदतावाद की मुख्य विशेषता है । साहित्यकार अपनी रचना में व्यक्तिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए पूर्णत: स्वतंत्र है। वस्तुतः एक सफल कलाकार की व्यष्टिपरक अनुभूति साहित्य जगत में आकर स्वमेव व्यष्टिगत हो जाती है और समग्र लोक जीवन को प्रभावित करती है ।
पंत, प्रसाद, निराला तथा महादेवी ने स्वयं अपनी रचनाओं में छायावादी साहित्य पर लगाए गए आरोपों के उत्तर देते हुए लंबी-लंबी भूमिकाएं लिखी तथा स्वतंत्र रचनाओं के रूप में युगीन काव्य की प्रेरणा , अनुभूति , अभिव्यक्ति एवं काव्य सौष्ठव पर विचार किया। यहीं से हिंदी साहित्य में स्वच्छंदतावादी समीक्षा का विकास हुआ।
हिंदी में स्वच्छंदतावादी समीक्षा के उद्भावक के रूप में सुमित्रानंदन पंत को माना जाता है । इन्होंने सर्वप्रथम 1926 ईस्वी में "पल्लव* की भूमिका में स्वच्छंदतावादी काव्य-शिल्प पर विचार किया। पंत जी के अनुसार-" कविता की भाषा चित्रात्मक होनी चाहिए । काव्य में शब्द और अर्थ का अभिन्न संबंध होता है तथा भावों की अभिव्यक्ति और भाषा सौष्ठव मुक्त छंद में अधिक सुघड़ता से व्यक्त किया जा सकता है।" पंत जी ने साहित्य और जीवन में अन्योन्याश्रय संबंध माना है ।
स्वच्छंदतावादी समीक्षकों की परंपरा में छायावाद चतुष्टय के कवियों के अतिरिक्त आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का नाम अग्रगण्य है। इन्होंने शुक्ल जी की आलोचना को सीमित बतलाया तथा छायावाद के सौंदर्य बोध एवं भाषा शिल्प पर भी नूतन दृष्टि डाली। आचार्य वाजपेई के पश्चात् शांतिप्रिय द्विवेदी , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० नागेंद्र प्रवृत्ति आलोचकों के नाम इसी परंपरा में आते हैं।

शास्त्रीय एवं स्वच्छंदतावादी समीक्षा के भेदक तत्व-
१). सैद्धांतिक समीक्षा के अंग होते हुए भी जहां शास्त्रीय समीक्षा परंपरावादी है वहां स्वच्छंदतावादी समीक्षा परंपरा मुक्त है । वह परंपराओं और रूढ़ियों के प्रति विद्रोहात्मक है।
२). शास्त्रीय समीक्षा जहां परंपराओं और आदर्शों के प्रति मोह ग्रस्त है वहां स्वच्छंदतावादी समीक्षा पारंपरिक मान्यताओं से हटकर नवीन उद्भावनाओं का आग्रह है। फलत: कविवर प्रसाद कहते हैं-
"पुरातनता का यह निर्भीक
सहन करती न प्रकृति पल एक,
नित्य नूतनता का आनंद
किए हैं परिवर्तनों में टेक।"
३). शास्त्रीय समीक्षा जहां आदर्शवादी है वहां स्वच्छंदतावादी समीक्षा यथार्थवादी।
४). शास्त्रीय समीक्षा साहित्य में समष्टिपरक अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान करने का आग्रही है, वहां स्वच्छंदतावादी मान्यताएं व्यक्तिगत अनुभूतियों विचारों तथा कल्पनाओं की अभिव्यक्ति की पूरी छूट देती है।
५). स्वच्छंदता वादी समीक्षक कला को साहित्य का बाह्य रूप मानते हैं तथा जीवन को उसका अंतः स्वरूप । अतः साहित्य में कृतिकार की निजी संवेदना ही अभिव्यक्ति पाएगी। डॉ०शांति प्रिय द्विवेदी के शब्दों में -"कला साहित्य का बाह्य रूप है, जीवन उसका अंत रूप। कला अभिव्यक्ति है जीवन अभिव्यक्त।"
६). शास्त्रीय समीक्षा के उद्भावक आचार्य शुक्ल ने जहां अपनी समीक्षा का केंद्रबिंदु तुलसी और उनके रामचरितमानस को माना है वहां स्वच्छंदतावादी समीक्षकों का केंद्रबिंदु छायावादी साहित्य है।
७).स्वच्छंदतावादी समीक्षा साहित्य में व्यक्ति का उदात्त कल्पना, कलात्मक उत्कर्ष, प्रकृति चित्रण आदि की पूरी छूट देते हैं तथा कवि को शास्त्र एवं परंपरा के हर बंधन से उन्मुक्त । जबकि शास्त्रीय समीक्षक आदर्श के मोह का त्याग नहीं करते, वे सामाजिक अनुभूतियों, लोक मर्यादाओं तथा परंपराओं के प्रति आग्रही हैं।
समग्रत: हम कह सकते हैं कि स्वच्छंदतावादी समीक्षा सैद्धांतिक समीक्षा के क्षेत्र में एक आंदोलन है जो प्राचीन रूढ़ियों का विरोध कर हर क्षण नवीन उद भावनाओं तथा उन्मुक्त भावनाओं का स्वागत करती है।

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