कुल पेज दृश्य

सोमवार, 8 अप्रैल 2019

राहुल सांकृत्यायन

राहुल एक जिजीविषा  

-   सुनील दत्ता


Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_02    आज के इस विराट पृथ्वी के फलक पर प्रकृति अपने गर्भ में अनेको रहस्य छुपाये रहती है | प्रकृति समय- समय पर इस खुबसूरत कायनात को नये- नये उपहारों से नवाजती आई है |कभी बड़े वैज्ञानिक, ऋषि, महर्षि, दर्शन वेत्ता साहित्य सृजन शिल्पी और इस खुबसूरत कायनात में रंग भरने वाले व्यक्तित्व से सवारती चली आ रही है | ऐसे ही एक बार सवारा था जनपद आज़मगढ़ को ९ अप्रैल १८९३ को केदार पांडेय ( राहुल सांकृत्यायन ) के रूप में। राहुल सांकृत्यायन विश्व- विश्रुत विद्वान् और अनेको भाषाओं के ज्ञाता हुए थे |ज्ञान के विविध क्षेत्रो में उनका अवदान अतुलनीय है | भाषा और साहित्य के अज्ञात गुहाधकारो को आलोकित करने, इतिहास और पुरातत्व के अछूते क्षेत्रो को उदघाटित करने, विश्व- भ्रमण का कीर्तिमान बनाते हुए यात्रा वृतान्तो का विपुल साहित्य- सृजन और यात्रा- वृत्त को “ घुमक्कड़ शास्त्र “ के रूप में शास्त्र- प्रतिष्ठा देने, इसके साथ ही अपनी जीवन- यात्रा के पांच भागो में एक अनुपम आत्मकथा लिखने और अनेको महत्वपूर्ण ज्ञात- अज्ञात महापुरुषों की जीवनी प्रस्तुत करने से लेकर पुरातत्व, इतिहास, समाज दर्शन और अर्थशास्त्र के जीवंत पहलुओ को उदघाटित करने वाली विश्व प्रसिद्द कहानियों और उपन्यासों के सृजन, दर्शन एवं राजनीति पर समर्थ साहित्य रचना के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी, किसान- आन्दोलन की अगुवाई, राष्ट्रभाषा हिन्दी और जनपदीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक सिपाही की भाँती सक्रिय संघर्ष करते हुए उन्होंने विदेशो के विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य के रूप में अध्यापन और अपने समर्थ पद- संचरण से देश और विदेश के दुर्गम क्षेत्रो को अनवरत देखा- परखा |  गुरुदेव के “ एकला चलो रे “ का भाव इनके समग्र जीवन पर था |इतने कार्यो को एक साथ सम्पन्न करना एक साधारण आदमी के वश का कार्य नही हो सकता | वे चलते- फिरते विश्वकोश थे और कर्म शक्ति के कीर्तिमान थे | ऐसे महामानव शताब्दियों के विश्व- पटल पर अवतरित होते है राहुल उन्ही महापुरुषों की श्रृखला में एक थे |


     राहुल जी के पूर्वज सरयूपार गोरखपुर जनपद के मलाव के पाण्डेय थे “ जो कभी आजमगढ़ के इस अंचल में आ बसे थे | मलाव से सर्वप्रथम गयाधर पाण्डेय आये और वह बस गये जिसे चक्रपाणीपुर कहते है | चक्रपाणी पाण्डेय उन्ही के पूर्वज थे जिनके नाम पर इस गाँव का नाम चक्रपाणीपुर पड़ा | सरयूपारीण ब्राह्मणों में सोलह प्रतिष्टित गोत्र है |राहुल की माता का नाम कुलवन्ती देवी और पिता गोवर्धन पाण्डेय एक बहन तथा चार भाइयो में सबसे बड़े राहुल जी निजामाबाद से मिडिल स्कुल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद वे आजमगढ़ के क्रिश्चियन मिशन स्कूल ( वेस्ली कालेज ) में अंग्रेजी पढने गये | उनका मन वहा नही लगा इसी कारण उन्होंने वाराणसी के डी. ए. वी स्कूल में प्रवेश लिया, परन्तु वहा भी वे अधिक दिन टिक न सके | राहुल जी का बचपन उनके ननिहाल पन्दहां में बीता | नाना रामशरण पाठक फौजी रह चुके थे | इसीलिए वो अपने सैनिक जीवन के किस्से- कहानिया उन्हें सुनाया करते थे | बाल्यावस्था के राहुल को विभिन्न देशो- प्रदेशो के वर्णनों के किस्सागोई को सुनकर, उन्हें अपनी आँखों से देखने की इच्छा ने ही उनमे यायावरी का मानसिक आधार तैयार किया |
     सैर की दुनिया की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहा
    जिन्दगानी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहा | 
    शायद इस शेर ने ही केदार पाण्डेय को राहुल का स्वरूप प्रदान किया |

    केदार से राहुल

उनकी जीवन यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण है, कनैला के केदार पांडे का महापंडित राहुल साकृत्यायन में रूपांतरण | जीवन की यह यात्रा अन्य यात्राओं से कितनी लम्बी है ! कितनी दुर्गम ! कितनी साहसिक ! कितनी रोमांचक ! और कितनी सार्थक ! लेकिन यह यात्रा कोरी “ यात्रा “ नही है और न ही “ यायावरी “ या “घुमक्कड़ी “ ! राहुल जी बहुत बड़े घुमक्कड़ थे, इसमें कोई संदेह नही | कभी- कभी लगता है की उन्होंने अपने चारो ओर कवच की तरह घुमक्कड़ी का एक मिथक गढ़ लिया था | केदार पांडे घुमक्कड़ी के कारण महापंडित राहुल सांकृत्यायन नही बने ! घुमक्कड़ होने से पहले केदार पांडे घर के भगोड़े थे | सिद्धार्थ की तरह केदार नाथ भी एक दिन घर से भाग निकले | कारण निश्चय ही और था, लेकिन वह नही जिसका अत्यधिक प्रचार किया है : “ बचपन में “नवाजिन्दा बाजीन्दा की कहानी ( खुदाई का नतीजा ) पढ़ी | उसमे बाजीन्दा के मुँह से निकले “सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा “ इस शेर ने मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला, यद्धपि वह लेखक के अभिप्राय के बिलकुल विरुद्ध था | “ यह घटना १९०३ की है | उस समय केदारनाथ की उम्र दस वर्ष की थी |

    १९०४ की गर्मी चल रही थी |   बहसा- बहसी के बाद कई घंटा रात चढ़े तिलक चढा | व्याह भी हो गया | उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह तमाशा था | जब मैं सारे जीवन पर विचारता हूँ तो मालूम होता है, समाज के प्रति विद्रोह का प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने पहला काम किया | १९०८ में जब मैं १५ साल का था, तभी से मैं इसे शंका की नजर से देखने लगा था, १९०९ के बाद से तो मैं गृहत्याग का बाकायदा अभ्यास करने लगा, जिसमे भी इस तमाशे  का थोड़ा- बहुत हाथ जरुर था | १९०९ के बाद घर शायद ही कभी जाता था, १९१३ के बाद को तो वह भी खत्म- सा हो गया, और १९१७ की प्रतिज्ञा के बाद तो आजमगढ़ जिले की भूमि पर पैर तक नही रखा | अपनी आत्म कथा “ मेरी जीवन यात्रा “ भाग एक में उन्होंने लिखा है - “ उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह “ तमाशा “ था | चार साल बाद ही जब मेरी उम्र १५ वर्ष हुई, तभी मैं “इस तमाशे“ को शक की नजर से देखने लग गया था | १९०९ में अर्थात एक साल बाद ही से मैंने इस बन्धन से निकल भागने के लिए घर को छोड़ देने का संकल्प और प्रयत्न शुरू किया | एक साल और बीतते- बीतते तो मैंने साफ़ तौर से और निश्चित रूप से यह मानना और कहना शुरू कर दिया कि मेरा विवाह हुआ ही नही |  बारह वर्ष की अवस्था से ही उनके मन में घर त्यागने के विचार आने लगे | उन्होंने कई बार गृह- त्याग का प्रयास किया भी परन्तु परिवार वालो द्वारा पकड लाये जाते | इसी प्रयास में १४ वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये | जहा से बड़ी मुश्किल से उन्हें लाया गया | काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे | सन १९१२ में एक दिन अकस्मात भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे | कुछ समय बाद वहा के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया |  मन न लगने पर रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन के लिए १९१३-१४ में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े |
Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_03
    विद्रोही मन वहा भी नही टिका तो आर्य समाज स्वीकार कर वाराणसी वापस आये तथा संस्कृत व्याकरण एवं काव्य का अध्ययन करने लगे | पुन: १९१५ ई. में आगरा भोजदन्त विद्यालय ( आर्य मुसाफिर खाना ) में मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू, अरबी एवं लाहौर जाकर फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया | १९१६ ई. में यहाँ की शिक्षा पूरी कर ली | यही पर आजमगढ़ के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द ( बलदेव चौबे ) से उनकी दोस्ती हुई |राहुल १९१६ से १९१९ में लाहौर में संस्कृत अध्ययन की दृष्टि से रह रहे थे |  इसी दौरान गांधी जी ने १९१९ में रौलट एक्ट का विरोध शुरू किया | इसी समय अमृतसर में जालिया वाला बाग़ का खूनी काण्ड भी हुआ | लाहौर में रहने के कारण प्रत्यक्ष राहुल को इन बर्बर घटनाओं की अनुगूज सुनाई पड़ी | उन्होंने आजादी की लड़ाई के नागपुर प्रस्ताव तथा अन्य मसविदो को पढ़ना शुरू किया और स्वयं स्वतंत्रता संग्राम में एक सेनानी के रूप में कूद पड़े | १९२१ से १९२५ तक राहुल राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे | १९२२ में इन्हें छ: माह की सजा पर राजनैतिक कैदी के रूप में बक्सर जेल में रक्खा गया | १९२३ में ब्रिटिश सरकार विरोधी वक्तव्य देने के कारण उन्हें दो वर्ष की सजा पर हजारीबाग जेल में रक्खा गया | वहाँ से वो १९२५ में मुक्त हुए | इसके बाद राहुल का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होने लगा |
घुमक्कड़ी जीवन
   १८२७-२८ के दौरान वे श्री लंका में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए | वहा वे बौद्ध भिक्षु बन गये तथा पालि भाषा का अध्ययन कर बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर बौद्ध भिक्षु बन गये तथा भगवान बुद्ध के पुत्र “ राहुल “ के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया | उनका मूल गोत्र सांकृत था, अत: उससे अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए उन्होंने नाम के आगे बौद्ध परम्परा के अनुसार सांकृत्यायन शब्द भी जोड़ लिया | बौद्ध धर्म ग्रंथो के गहन अध्ययन- मनन के कारण उन्हें “ त्रिपिटीकाचार्य “ की उपाधि प्रदान की गयी | लंका में उन्नीस माह रहने के बाद बौद्ध धर्म- ग्रंथो की खोज में वे १९२९ में नेपाल होते हुए तिब्बत गये |जहाँ भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध- ग्रन्थो की खोज की | राहुल बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु १९३२-३३ में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले | १९३६ में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके १९३७ में पुन: रूस चले गये | कुछ ग्रन्थो की खोज में १९३८ में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये | सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपन्थी विचार- धारा की तरफ हो गयी |
    भारत आ कर वे पुन: किसानो- मजदूरो से जुड़ गये तथा १९३९ में अमवारी सत्याग्रह के कारण जेल गये | वहाँ से छूटने के बाद पुन: गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये | जहा २९ माह तक कारावास में रहे | गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे | जिसका पालन करते हुए १९४३ तक बाहर ही रहे | १९४४ से १९४७ तक लगभग २५ महीने वे सोवियत संघ के लेलिनग्राद विश्व विद्यालय में संस्कृत तथा पालि के प्रोफ़ेसर रहे | वहा उन्होंने एलना से विवाह कर लिया जिससे “ इगोर राहुलोविच्च “ नामक पुत्र का जन्म हुआ | १९४७ में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया | हिन्दी के प्रश्न को लेकर विवाद हो जाने के कारण उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया |जिसे उन्होंने स्वीकार किया पर राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रश्न पर कोई समझौता उन्हें स्वीकार नही था।  सोवियत संघ की तत्कालीन व्यवस्था के कारण वे पत्नी एलना और पुत्र इगोर को भारत नही ला सके | राहुल जी ने मसूरी में हैपीविला के हार्नकिल्प नामक बंगले को खरीदकर वही रहने लगे | अपने एकाकीपन और अपने कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने टंकक कमला पेरियार से विवाह कर लिया | जिससे १९५३ में पुत्री ज्या तथा १९५५ में पुत्र जेता का जन्म हुआ | कमला पेरियार के साथ उनकी तीसरी शादी थी |

Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_01    राहुल जी १९५८ में साढे चार माह की यात्रा पर चीन गये | उसी वर्ष “ मध्य एशिया का इतिहास” नामक उनकी पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्रदान किया गया | १९५९ में वे कमला जी के अनुरोध पर मसूरी छोड़कर दार्जिलिंग चले गये | उसी वर्ष उन्हें श्री लंका के विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं बौद्ध दर्शन विभाग का अध्यक्ष बनाया गया जिस पद पर वे मृत्युपर्यन्त रहे |     हिन्दी की सेवा के लिए भागलपुर विश्व विद्यालय ने अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में उन्हें “ डाक्टरेट “ की मांड उपाधि से सम्मानित किया | राष्ट्रभाषा परिषद बिहार ने “ मध्य एशिया का इतिहास “ के लिए पुरस्कृत किया | काशी विद्वत सभा ने उन्हें “ महापंडित “ का अलंकरण दिया तो हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग ने “साहित्य वाचस्पति” का २६ जनवरी १९६१ को भारत सरकार ने पद्मभूषण का अलंकरण प्रदान किया | सरस्वती ने अपने हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर मानपत्र देकर सम्मानित किया | जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को सामने लाता है |मानपत्र में लिखा था- “आपने इस शती के तीसरे दशक में जब सरस्वती में लेख लिखना प्रारम्भ किया तब आचार्य द्दिवेदी ने साश्चर्य जिज्ञासा की थी कि हिन्दी की यह नवीन उदीयमान प्रतिभा कौन है ? तब से आप बराबर सरस्वती की सेवा करते आ रहे है | आप संस्कृत, हिन्दी और पालि के विद्वान् है | तिब्बती, रुसी और चीनी भाषाओं में निष्ठात है | राजनीति, इतिहास और दर्शन शास्त्र के पंडित है | आपने तिब्बती भाषा में सैकड़ो अज्ञात संस्कृत ग्रंथो का उद्दार किया | हिन्दी के प्रमुख बौद्ध ग्रंथो का अनुवाद कर हिन्दी का भण्डार भरा | “ एशिया का वृहद इतिहास ( भाग एक व दो ) लिखकर हिन्दी के बड़े अभाव को पूरा किया | उपन्यास, कहानी, निबन्ध यात्रा- साहित्य लिखकर आपने अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया | आपकी निष्ठा हम सबके लिए अनुकरणीय है | आप केवल हिन्दी संसार के ही नही बल्कि सारे देश के गौरव है इस अवसर पर सरस्वती के पुराने लेखक तथा देश के महान पण्डित एवं साहित्यकार के रूप में आपका सम्मान कर हम अपने को गौरवान्वित समझते है |
विराट व्यक्तित्व
     राहुल जी का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था | कहा जाता है की उन्हें देशी- विदेशी ३६ भाषाओं का ज्ञान था | विभिन्न भाषाओं को सीखने के लिए उन्होंने दिन- रात परिश्रम किया तथा अनेक कष्ट शे | उन्हें बंजारों की भाषा सीखने के लिए उनकी भैस व मुर्गिया चरानी पड़ी व उनकी मार भी सहनी पड़ी | प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने एक प्रसंग में कहा था “ राहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि सम्बन्धी हो या प्राकृत, अपभ्रंश सम्बन्धी हो या संस्कृत अपने सारे ज्ञान को हिन्दी में निचोड़ दिया था |  निराला के शब्दों में कहे तो- “हिन्दी के हित का अभिमान वह, दान वह” . प्रगतिशीलता का प्रश्न नामक निबन्ध में राहुल जी ने लिखा है | “ आज के साहित्यिक कलाकार या विचारक का लक्ष्य बिंदु जनता होनी चाहिए “ यह जनता उनका लक्ष्य बिंदु ही नही प्रस्थान बिंदु भी था | इसी के बीच से और इसी को ध्याम में रखकर उन्होंने साहित्य के विषय में अपने विचार व्यक्त किये तथा कुछ साहित्यकारों पर मूल्याकनपरक टिप्पणिया की | इस बात की उन्हें कभी चिंता नही रही, कि लोग उन पर प्रचारवादी होने का आरोप लगायेंगे | भाषा के सम्बन्ध में राहुल जी का विचार था की भाषा विशिष्ठ सम्पन्न कुछ लोगो की सर्जना नही है, बल्कि जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है | जनता द्वारा गढ़े गये शब्दों, मुहावरों और कहावतो को छोड़कर यदि साहित्य रचना का प्रयास किया गया तो वह साहित्य निष्प्राण होगा | इसे लेकर दो मत नही हो सकते है | यदि लेखक चाहता है कि उसकी भाषा अजनबी न हो उसमे विद्युत् धारा दौड़ती रहे तो उसे जनभाषा से सम्पर्क बनाकर रखना होगा | इसी कारण वे जनपदीय बोलियों के साहित्य और शब्दावली को आगे बढाने के पक्षधर थे | राहुल जी ने जिस प्रकार की विषम परिस्थितियों में रहकर हिन्दी के सेवा की वह अनुकरणीय है | एक ओर जहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर पुस्तके लिखी, वही शासन शब्दकोश, तिब्बती- हिंदी शब्दकोश जैसे शब्दकोशों का निर्माण तथा तिब्बती, चीनी, रुसी आदि भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद का भी कार्य किया | हिन्दी उनके जीवन में स्थायी- भाव की तरह रची- बसी रही | उन्होंने इस बात को स्वंय भी स्वीकार किया है | “ अन्य बातो के लिए तो मैं बराबर परिवर्तन शील रहा, किन्तु मेरे जीवन में एक हिन्दी का स्नेह ही ऐसा है जो स्थायी रहा है “


    यह एक सामान्य नियम है कि हर महान व्यक्ति की तत्कालीन समाज द्वारा उपेक्षा तथा अवहेलना की जाती है और राहुल जी भी इससे बच नही सके | डा . मुल्कराज आनन्द ने लिखा है कि मैं रूस के कुछ कवियों को जानता हूँ जिन्होंने राहुल के शब्दों का दाय ग्रहण किया और उनकी वाणी जुल्म के विरुद्ध गूंज उठी तथा समतावादी समाज- निर्माण में सहायक हुई | राहुल के बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व में बड़ी महानता थी | डा . भागवत शरण उपाध्याय के अनुसार वह स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजली देकर संस्कृत से अरबी, फ़ारसी से अंग्रेजी, सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करता है | उनमे अदभुत ग्रहण शक्ति थी, जिससे उन्होंने इन भाषाओं के ज्ञान- भण्डार में घिसी- पिटी बातो को छोड़कर उनकी मेधावी प्रज्ञा के सर्वश्रेठ सर्वोत्तम और सबसे जटिल सारतत्वों का मधु संचय निचोड़ निकाला (राहुल स्मृति ४२७) अन्य सभी बातो को अलग कर दे तो तिब्बत से प्राचीन ग्रंथो की जो थाती राहुल भारत ले आये थे वे ही उनको अमरता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है | राहुल की कहानिया अन्यो की भाँती व्यक्ति की कहानिया नही, अपितु जातियों और युगों की कहानिया है | जैसे अपने दो डग से राहुल ने धरती का कोना- कोना नाप डाला, उसी प्रकार अपनी अन्तर्प्रज्ञा से उन्होंने ८००० वर्ष के अतीत का भावबोध किया और अपने मांस- चक्षु से उस कालखण्ड के बदलते युगों के नर- नारी, परिवार- समाज, गण- समूह और राजशाही सामन्तशाही, खान- पान एवं संस्कृतियों का प्रत्यक्ष दर्शन किया | आधुनिक युग में केवल वे ही ऐसे अधिकारी व्यक्ति थे जो यह साधिकार कह सकते थे कि पिछले आठ हजार वर्षो के इतिहास को मैं अपनी आँखों से स्पष्ट देख रहा हूँ | इसी विराट दृष्टि का दर्शन उनकी “ वोल्गा से गंगा “ की बीस कहानियों में देखने को मिलता है | ” वोल्गा से गंगा” की कहानियों का फलक अन्तराष्ट्रीय है | मध्य एशिया से वोल्गा नदी के तटवर्ती भू- क्षेत्र से एशिया के ऊपरी भू- भाग, पामीर के पठार, ताजकिस्तान, अफगानिस्तान- ग्नाधार ( कंधार ) कुरु, पंचाल, श्रास्व्ती, अयोध्या, नालंदा, कन्नौज, अवन्ती ( मालवा ) दिल्ली, हरिहर क्षेत्र, मेरठ, खनु पटना के विस्तृत भू- खण्ड और ६००० ई . पूर्व से लेकर १९४२ ई की भारतीय सवतंत्रता की महाक्रान्ति तक के कालखण्ड को इसमें समेटा गया है | इस संग्रह में बीस कहानिया है जो सभी अपने में स्वतंत्र है पर वे कमश: एक ऐतिहासिक विकास का चित्र प्रस्तुत करती है जिसमे आर्य जाति के विकास की कथा अंकित है |

    ”मराठी लेखक डा प्रभाकर ताकवाले इन कहानियों के सम्बन्ध में लिखते है : ”वोल्गा से गंगा “ प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है | हिन्दी साहित्य में इतना विशाल आयाम लेकर लिखी यह प्रथम कृति है - - कामायनी में प्रसाद जी लाक्षणिक अवगुठन के प्रेमी होने के कारण उतने सुलझे हुए नही लगते, जितने राहुल जी “ वोल्गा से गंगा “ में है | राहुल जी आम आदमी की ऊँगली पकड़कर ठीक “आदम और इव “ तक पाठको को ले गये है - यह अदभुत कहानी- संग्रह एक नई दुनिया एक मटिरियल इन्टरप्रटेशन आफ हिस्ट्री- हमारे सामने उपस्थित करता है | कला, इतिहास, समाजशास्त्र, भूगोल, राजनीति, विज्ञान, दर्शन और न जाने कितने ज्ञान- विज्ञानों के अंगो का दोहन इन कहानियों में हमे मिलता है ( राहुल स्मृति पृष्ठ १६७ )
Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_04    राहुल जी का एक पुराना कहानी संग्रह “ सत्तमी के बच्चे “ है इसकी कहानिया भी उपयुक्त दोनों कहानी संग्रहों के सांचे में ढली है | इसमें राहुल जी ने अपने ननिहाल पन्दहां ग्राम की बाल स्मृतियों को कथा के रूप में चित्रित किया है | सत्तमी के बच्चे संग्रह की सबसे मार्मिक कहानी “ सत्तमी के बच्चे” ही है | उस गाँव की सत्तमी अहिरिन की दयनीय आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो अपने बच्चो को भर पेट भोजन और दवा तक का प्रबन्ध नही कर पाती है और उसके चार बच्चे अकाल ही काल कलवित हो जाते है |     ”डीहबाबा “ की कहानी में जीता भर के माध्यम से भर जाती की कर्मठता और स्वामिभक्ति के साथ उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण किया है | ”पाठक जी “ उनके नाना का चरित्रगत संस्मरण है और पुजारी जी इसी प्रकार का उनके पिता जी का संस्मरण है | इनका भी उद्देश्य उच्च वर्ग की ब्राह्मण जाती की ठसक और मिथ्या अंह भावना के साथ उनकी भी गरीबी का चित्रण करना है | “जैसिरी” भी पन्दहां के ही एक सच्चे चरित्र है जिनमे अदभुत प्रतिभा थी | पर गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी प्रतिभा का विकास नही हो पाया |
    ”दलसिंगार” राहुल जी के रिश्ते में पड़ने वाले नाना थे | ...उनके रोचक स्मरण इसमें है | “सतमी के बच्चे “ कहानी संग्रह में पात्रो के जीवन संघर्ष और आर्थिक संघर्ष को चित्रित किया गया है | एक प्रकार से एक छोटे ग्राम्य जीवन के पट पर बुनी गयी ये कहानिया विश्व के विशाल फलक पर चित्रित होने वाली “ वोल्गा से गंगा “ की कहानियों की एक पृष्ठभूमि है |

    इस दृष्टि से चार कहानी संग्रहों के साथ उन्होंने नौ उपन्यास - १- बाईसवी सदी १९२३, २- जीने के लिए १९४०,  ३. सिंह सेनापति १९४४,  ४. जय यौधेय १९४४
५- भागो नही, दुनिया को बदलो १९४४, ६- मधुर वन १९४४, ७- राजस्थानी रनिवास १९५३, ८- विस्मृत यात्री १९५४, ९- दिवोदास १९६०, १०- निराले हीरे की खोज १९६५।  
     इनमे “ बाईसवी सदी “ और “ भागो नही दुनिया को बदलो “ में औपन्यासिक तत्व तो है पर वस्तुत: ये साम्यवाद के परचार्थ लिखी गयी पुस्तक है जिनका साहित्यिक दृष्टि से कम राजनितिक विचार धारणा की दृष्टि से अधिक महत्व है | अपने वैचारिक परिवर्तन की दिशाओं का संकेत तो उनकी जीवन- यात्रा के पृष्ठों पर मिलता ही है, साथ ही वे अपनी दुर्बलताओ को भी बेबाक ढंग से उसमे प्रगत करते चलते है | उसमे छिपाव और दुराव का बराबर अभाव मिलता है | वे अपनी सीमाओं को भी प्रगत करते है : वे व्यवहार में विनम्र एवं मृदुभाषी अवश्य थे पर अपनी वैचारिक मान्यताओं में इतने दृढ थे की उसमे अव्यवहारिकता का दोष लगना स्वाभाविक था ( खंड ४ पृष्ठ ४४९ )
    राहुल जी के सर्जनात्मक साहित्य में कथा और यात्रा साहित्य के पश्चात उनके जीवनी साहित्य का स्थान माना जा सकता है | हिन्दी में जब जीवनी साहित्य इस प्रकार हम यह कह सकते है की राहुल दर्शन, पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में भी मौलिक लेखक है जो अनुसन्धान के लिए संदर्भ सामग्री छोड़ गये है | उनके विचारों से सहमत होना न सहमत होना, दूसरी बात है पर उनके ज्ञान का उपयोग तथा उन पर आगे कार्य करना विद्वत- जगत की महती आवश्यकता है | हमे गर्व है राहुल सर्व समाज और सम्पूर्ण दुनिया के तो थे है पर उनकी जन्मभूमि हमारे पास है |


    हम आभारी है जायसी के हस्ताक्षर डा. कन्हैया सिंह जी का जिन्होंने राहुल जी पे लिखने के लिए मुझे सामग्री उपलब्ध कराई |

कोई टिप्पणी नहीं: