लघुकथा
रहस्य*
एकदा भारत वर्षे न भूतो न भविष्यति देवराज से अधिक शक्तिशाली व्यक्तित्व के नेतृत्व में त्रिलोक की सर्वोत्तम सरकार शासन करती भई।
नारद मुनि ने सरकार की सुकीर्ति सुनी तो निकल पड़े सुरेंद्र से अधिक प्रतापी नरेंद्र की मानवंदना करने। मार्ग में भक्तों ने बताया कि महाप्रतापी शासन के पाँच वर्षों में पाँच कल्पों से अधिक विकास हुआ है। अब अगले सभी चुनावों में यही सरकार चुनी जाना है। विपक्ष मुक्त भारत बनाना ही कोटि-कोटि जनगण का लक्ष्य है।
जब यही सरकार हमेशा चुनी जाना है तो चुनाव ही क्यों कराना? देवराज की तरह हमेशा के लिए एक बार में ही सत्ता सूत्र क्यों ग्रहण न कर लेना चाहिए? नारद जी ने पूछा।
आप भी न पूरे बौड़मनाथ हैं, कुछ नहीं समझते, यह लोकतंत्र है। जो महिमा लोक से चुने जाने की है वह स्वयंभू बने रहने की नहीं है। स्वयंभू बने रहने पर पाकिस्तान की तरह सत्ताधीश उखाड़ फेंके जाते हैं जबकि लोकतंत्र में बार-बार चुने जाने से सत्ता सुरक्षित बनी रहती है। देवराज को युद्ध लड़ने पड़ते थे न, राक्षस मारते सो अलग। जान बचाने के लिए कभी ब्रम्हा, कभी विष्णु ,कभी महेश, कभी दुर्गा की शरण लेनी पड़ती थी। लोकतंत्र में लड़ती सेना है, यश सत्तासीन का बढ़ता है। सफलता अपनी, असफलता औरों की।
लेकिन
लेकिन वेकिन कुछ नहीं, अपन मतदाता पत्र बनवा लो और कमल की जयजयकार करो अन्यथा देश में घुसपैठ करने के आरोप में धर लिए जाओगे। नारद जी ने भक्त की बात मानने में ही भलाई समझी। देवेंद्र को कई युद्धों में असुरों से लड़ते देखे था, पराजय से बचने में मदद भी की थी किन्तु नरेंद्र की इस अद्भुत युद्धकला को नहीं समझ प् रहे थे मदद कैसे करें? भक्त ने उनकी दुविधा समझी और ले गया एक मतदान केंद्र में। नारद जी की एक अंगुली में काली स्याही लगा दी गयी और उन्होंने बताये अनुसार एक यंत्र की एक कुंजी दबा दी। जब तक कुछ समझ पाते बेचारे बाहर निकल दिए गए। भक्त ने कहा ली जिए आपने अब तक देवेंद्र को सहायता की थी, अब नरेंद्र की भी सहायता कर दी। बहुत धन्यवाद, मैं बाकी मतदाताओं की खबर लेता हूँ।
नारद के रोक पाने के पहले ही भक्त हो गया नौ दो ग्यारह और नारद जी एंटीना की तरह खड़ी चोटी को सहलाते हुए कोशिश करने पर भी नहीं समझ पा रहे हैं लोकतंत्री युद्ध के दाँव-पेंच और विजयी होने का रहस्य।
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संवस
२३.४.२०१०
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