शोधलेख:
मानव जाति की गौरव नारी रत्न महारानी कैकेयी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक विश्व कायस्थ समाज, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम / राकाम
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कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान' समय की बलिहारी कि मानव सभ्यता की सर्वकालिक महानतम नारियों में से एक कैकेयी मैया की गौरव गाथा से उन्हीं का कायस्थ कुल अपरिचित हैं। माँ की उपेक्षा करनेवाली जाति कभी फूलती-फलती नहीं। कायस्थों ने आदि माता द्वय नंदिनी-इरावती और कैकेयी की उपेक्षा निरंतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी की है। यह एक बड़ा कारण है कि किसी समय भारत के अधिकांश भाग पर राज्य करने वाले कायस्थ आज संसद और विधान सभाओं में एक-एक स्थान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संक्षिप्त आलेख में महामाता कैकेयी की कथा से परिचित करने का प्रयास है। आचार्य डॉ. मुंशीराम शर्मा 'सोम' ने कैकेयी को रामायण का आदि-अंत और सार माना है।
कैकेयी और कायस्थ
कैकेयी के कायस्थ होने का प्रमाण ऋग्वेद में मिलता है-
स्वायुधरचवस सुरणार्थं चतु: समुद्र वरुणारथीणाम।
चकृत्वशस्यभूरिवाणस्यम्यं चित्रवृशणरविंदा: ।। [ऋग्वेद १०-४७-४८२]
एक अन्य प्रमाण शब्दकल्पद्रुम काण्ड ६ से प्रस्तुत है-
वाहयौश्चक्षत्रियं जाता: कायस्थ जगतीतले।
चित्रगुप्त: स्थिति: स्वर्गे चित्रोहि भूमण्डले।।
चैत्रस्थ: सुतस्तस्म यशस्वी कुल दीपक:।
ऋषि वंशे समुद्गते गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यों महाप्रशश्चित्रकूटा चलाधिया:।।
मातृकुल
चंद्र के पुत्र 'विधु' व् पुत्रवधु इला की संततियों से चंद्र वंश आगे बढ़ा। इला-बुध से पुरुरवा तथा पुरुरवा-उर्वशी से आयु उत्पन्न हुआ जिनके पुत्र नहुष तथा पेटर ययाति हुए। ययाति की दो पत्नियां देवयानी तथा शर्मिष्ठा हुईं। शर्मिष्ठा के पुत्र अनु की इक्कीसवीं पीढ़ी में महामानस का जन्म हुआ। आगे इसी वंश में महादानी राजा शिवि के चार पुत्र विषदर्भ, कैकेय, मदर तथा सौवीर हुए। कैकेय का राज्य पश्चिमोत्तर भारत में सिंधु नद की पश्चिमी सहायक नदी कुर्मी के किनारे निचले भीग में बन्नू की दून में था। इस राज्य का नाम वैदिक काल में 'कूर्म' रहा है। इसका ऊपरी भाग आज भी 'कुर्रम' तथा निचला भाग 'बन्नू' कहलाता है। इसी की सीध में पूर्व में कैकय जनपद था। यह आधिनिक झेलम, गुजरात तथा शाहपुर जिलों का केंद्रीय भाग [अब पाकिस्तान में] है। वाल्मीकि रामायण में सर्ग ३८ श्लोक १६ में शरदण्डा नदी पार करने का वर्णन है। यही नदी प्राचीन काल में शराबती कुरुक्षेत्र की 'चित्तांग नदी' कहलाती रही है। अयोध्या तथा कैकेय राज्यों के मध्य व्यापारिक संबंध थे।
कैकय नरेश कैकेय की सुरूपवती कन्या को 'सुरूपा' नाम उचित ही दिया गया। विवाह पश्चात वधुओं की उनके मायके के नाम से पुकारने की प्रथा आज भी है जैसे मैनपुरीवाली चची, बनारसवाली भाभी आदि। तत्कालीन प्रथानुसार कोसल राजकुमारी को विवाह पश्चात् अयोध्या में 'कौसल्या' तथा कैकय राजकुमारी को 'कैकेयी' संबोधन मिले, यही प्रसिद्ध होते गए और उनके मूल नाम विस्मृत हो गए। कैकेय पुत्री कैकेयी का विवाह सूर्यवंशी पराक्रमी अयोध्यापति दशरथ से हुआ। दशरथ की तीन प्रमुख क्रमश: रानियाँ कौशल्या (कोशलनरेश की पुत्री), कैकेयी तथा सुमित्रा हुईं। 'पद्म पुराण' के अनुसार भरत की माता का नाम सुरूपा है। 'पउम चरिउ' के अनुसार कैकेयी का ही नाम सुमित्रा भी है। संभवत: विवाह पश्चात् कैकेयी के सद्गुणों को देखते हुए उन्हें सुरूपा तथा सुमित्रा कहा गया। वे परम लावण्यमयी, परम विदुषी, मिलनसार, मिठभाषिणी, वीरांगना, दूरदर्शी तथा आत्मोत्सर्ग हेतु उद्यत रहनेवाली युग निर्मात्री नारी रत्न रहीं है।
कैकेयी का आत्मोत्सर्ग और दशरथ से विवाह
आज के संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह वैदिक काल में विविध देशों, प्रदेशों और संस्कृतियों में टकराव, युद्ध और रक्तपात टालकर सामन्यजस्य और सद्भाव बनाये रखने के लिए एक कुल (संघ) कार्यरत था। दशरथ तथा कैकेय दोनों ही इसके सदस्य थे। भगवान् परशुराम की शिष्य कैकेयी अचूक बाण विद्या, रथ सञ्चालन, युद्धनीति निर्माण आदि की धनी थी। वह विवाहपूर्व भी शिकार पर जाती थी तथा भयानक हिंस्र पशुओं से जूझती थी। उसके साहस व पराक्रम की कथाएं दूर-दूर तक कही-सुनी जाती थीं। देवासुर संग्राम में असुरों पर जय पाकर दशरथ भी प्रसिद्ध हो चुके थे। कैकेयी विवाह के समय किश्री थीं जबकि दशरथ अधेड़ और पूर्व विवाहित। दशरथ में एक दोष विलासी होना था जबकि कैकेयी तपस्विनी की तरह संयमी थीं। रक्ष संस्कृति के विस्तार को रोककर देव संस्कृति की सुरक्षा और विकास के लिए भविष्य में एक पराक्रमी राजकुमार की आवश्यकता को देखते हुए त्रिकाल दर्शी ऋषियों ने एक योजना तैयार की। दशरथ के वृद्ध होने के पूर्व उस राजकुमार को उनकी विरासत मिले और वह पिता का स्थान लेकर राक्षसों का दमन करे। दशरथ विवाहित किंतु निस्संतान थे। उनकी पत्नी कौसल्या सामान्य सरल हृदया स्त्री थीं। वे किसी पुत्र को रणनीति विशारद नहीं बना सकती थीं। पर्याप्त मनमंथन पश्चात् ऋषियों ने कैकेयी व्दशरथ के विवाह से उत्पन्न संतान में यह संभावना देखकर योजना बनाई। कैकेय अपनी सुलक्षणा पुत्री को अधेड़ अवस्था से दशरथ के साथ ब्याने को तैयार नहीं थे किन्तु कैकेयी को यह ज्ञात होने पर उसने अपने देश और संस्कृति के संरक्षण हेतु इस प्रस्ताव को स्वीकृति देकर आत्मोत्सर्ग का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। दशरथ ने कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कैकेयी के पुत्र को अवधनरेश बनाने का वचन दिया।
कैकेयी के वरदान
विवाह पश्चात् उसने दशरथ को फिर युद्ध की और उन्मुख करने के लिए खुद उनके साथ युद्धक्षेत्र में जाना आरंभ किया वह दशरथ के रथ का अति निपुणता से रथ सञ्चालन करती और अवसर पर शस्त्र प्रहार कर उनके प्राण भी बचाती। एक देवासुर संग्राम में दशरथ के रथ के चक्र की धुरी निकल गयी। कैकेयी ने आव देखा न ताव, तत्क्षण लौह कवच से ढँकी अपनी अँगुली लगाकर चके को निकलने से रोक लिया और दूसरे हाथ से रथ चलाती रही। इससे उसकी प्रत्युत्पन्नमति, धीरज, साहस और बलिदान भाव का परिचय मिलता है। दशरथ लड़ते रहे कैकेयी मुंह में वल्गा थाम एक हाथ की अंगुली धुरी में फँसाये, दूसरे हाथ से अस्त्र देती रही। युद्ध जीतने पर दशरथ का ध्यान उनकी और गया। वे भावविवहल हो गए। कैकेयी ने न केवल उनके प्राण बचाये थे अपितु विजय भी दिलाई थी। उन्होंने कैकेयी को मनचाहे वरदान दिए पैट कैकेयी ने कुछ न चाहा, बहुत आग्रह किये जाने पर कैकेयी ने दशरथ का मान रखते हुए वरदान भविष्य के लिए रख लिए।
कैकेयी और दशरथ पुत्र
कैकेयी की कीर्ति पताका सर्वत्र फहरा रही थी। परोक्षत: अयोध्या का राज्य सञ्चालन भी उसी के हाथों में था। इस पर भी वह सौतिया डाह से मुक्त अन्य दोनों रानियों को बड़ी-छोटी बहिन मानकर पूर्ण समर्पण भाव से दायित्व निर्वहन करती रही। दशरथ में विलासजनित दुर्बलता को देखते हुए श्रृंगी ऋषि को उपचार हेतु नियुक्त किया गया। उनके उपचारों से दशरथ पूण: स्वस्थ हुए। श्रृंगी ऋषि ने तीनों रानियों को भी दिव्य औषधियों का सेवन कराया। कैकेयी में ईर्ष्या भाव होता तो वह वरदानों का प्रयोग कर अपने सिवाय किसी रानी को संतान न प्राप्त होने देती किंतु वह इस सबसे बहुत ऊपर थीं। संतान होने पर भी उसने केवल अपने पुत्र को शिक्षित नहीं किया अपितु तीनों रानियों के चारों पुत्रों को समान मानते हुए शास्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी और दिलवाई। यही नहीं उसने ऋषि विश्वामित्र द्वारा राक्षसों के आतंक से मुक्ति के लिए राजकुमार माँगे जाने पर दशरथ के मन कर देने पर भी उन्हें सहमत कराया, अपने पुत्र के स्थान पर यह अनुभव और यश पाने का अवसर कौसल्या पुत्र राम को दिया। इस सबसे स्पष्ट है की कैकेयी का मन निर्मल और वृत्ति तापसी थी। वह दशरथ को आत्मकेंद्रित होकर पुत्रों को संघर्ष से दूर रखने के पक्ष में न थी क्योंकि उसने विवाह देव संस्कृति की रक्षा और रक्ष संस्कृति के नाश हेतु ही किया था। यदि दशरथ अपने मन की कर पाते तो यह उद्देश्य पूर्ण न होता। ऋषि मंडल दशरथ से निराश हो रहा था।
कैकेयी का आत्म-बलिदान
सद्गुणों से संपन्न दशरथ पुत्र कैशौर्य से तरुणाई की और बढ़ रहे थे। वीतरागी राजा जनक की पुत्रियों से उनके विवाह कराकर ऋषिमण्डल दो पुत्रों को राक्षसों से युद्ध हेतु भेजकर शेष दो पुत्रों को अयोध्या की सुरक्षा व्यवस्था में लगाए रखना चाहते थे। दशरथ अब आत्म केंद्रित हो अपने कुल के साथ शांति का जीवन जीना चाहते थे। ऐस होने पर रक्ष-सेना देवलोक को ध्वंस करने लगती। ऋषियों ने फिर कैकेयी की सहायता चाही। दशरथ ने महामंत्री सुमंत्र (कायस्थ) से विमर्श कर ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक की तैयारी की। उन्होंने समय वह चुना जब भरत और शत्रुघ्न कैकय देश (ननिहाल) गए थे। कैकेयी को सूचना तक नहीं दी गयी। ऋषि मंडल ने मंथरा के माध्यम से कैकेयी को पूरी योजना सूचित की। यह कैकेयी की अग्निपरीक्षा की घड़ी थी, पति का साथ देकर स्वार्थ साधे या पति को रोककर देव संस्कृति की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करे। बलिपंथी कैकेयी ने वही किया जो विवाह पूर्व किया था, निजी हित पर देश और संस्कृति के हित को वरीयता देना। उसने दशरथ को मनाना चाहा, न मानने पर वरदानों का उपयोग किया। दशरथ विवाह पूर्व दिए गए वचन (वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय संधि की तरह) को भंग कर रहे थे। वे कैकेयी को अँधेरे में रखकर ऋषिमण्डल की योजना को विफल करने का कारण बन रहे थे। इससे समूची देव संस्कृति के नाश होने का खतरा आसन्न था चूंकि लंकापति रावण देव लोक को घेरकर (जैसे चीन भारत को घेर रहा है) नाश करने की योजना पर दिन-ब-दिन काम कर रहा था। कैकेयी ने संस्कृति और देश पर आये खतरे को टालने के लिए खुद की प्रतिष्ठा और मान को निछावर करते हुए वर माँग लिए।
मूल्यांकन
राम को ऋषिमण्डल की योजना की कुछ जानकारी विश्वामित्र से मिल गयी थी। वे कैकेयी के त्याग से अवगत थे। इसलिए कैकेयी द्वारा वदान लिए जाने पर भी वे न केवल कैकेयी के प्रति विनयशील और आज्ञा पालक बने रहे अपितु पितृभक्त होते हुए भी दशरथ के विरोध की अनदेखी कर वन चले गए। दुर्भाग्य से दशरथ का आकस्मिक निधन हो गया। शेष दोनों रानियों या तीनों राजकुमारों से ऋषि मंडल की योजना गुप्त रखी गयी थी। फलत:, वे कैकेयी के त्याग को न जान सके। अज्ञानता के कारण ही भारत ने कैकेयी को आरोपित और लांछित किया। दशरथ निधन के बाद भी चित्रकूट में मिलने पर राम ने सगी माँ कौसल्या से भी पहले कैकेयी से भेंट की। दोनों रानियों ने सौत होते हुए भी कैकेयी से कभी गिला-शिकवा नहीं किया। यहाँ तक कि कर्मव्रती कैकेयी दे दशरथ के निधन के बाद राजमहल छोड़कर नंदी ग्राम में उसी भरत के साथ निवास कर राज्य सञ्चालन में मदद की जो उन्हें दोषी समझ रहा था जबकि शेष दोनों रानियां और सीता की तीनों बहिनें राजमहल में थीं। राम की वन यात्रा, सीता हरण और लंका युद्ध के समाचार कैकेयी को मिलते रहे थे। वह फिर शास्त्र धारण कर या अयोध्या की सेना भेजकर युद्ध का निर्णय करा सकती थी किन्तु तब राम को यश नहीं मिलता। उन्होंने धैर्य के साथ ऋषि मंडल की योजना को क्रियान्वित होने यश पाने दिया। रावण-वध के पश्चात् अयोध्या लौटने पर राम फिर कौसल्या से पहले कैकेयी से मिले और कृतज्ञता ज्ञापित की चूँकि वे कैकेयी की बलिदानी भूमिका से अवगत थे।
कैकेयी के गुप्त बलिदान से अनभिगायता तथा राम पर दैवत्व आरोपित किये जाने पर उनके प्रति अंध भक्ति भाव के करम राम के पश्चात्वर्ती कैकेयी के चरित्र की उदात्तता को नहीं समझा तथापि कुछ मनीषियों ने सत्य जानने के प्रयास किये और कैकेयी की म्हणता को पहचाना है। पद्म श्री युग तुलसी रामकिंकर जी महाराज ने कैकेयी पर २६५ पृष्ठीय ग्रंथ की रचना की है। महाकवि इंदु सक्सेना ने कैकेई शीर्षक महाकाव्य की रचना की है। वेदप्रताप सिंह 'प्रकाश' ने कैकेयी पर केंद्रित प्रबंध काव्य 'अनुताप' में उनका मूल्यांकन किया है। कैकेयी के मातृकुल के कायस्थ राजाओं ने कई पीढ़ियों तक कश्मीर और आस पास के क्षेत्रों पर राज्य किया। काल के दुष्प्रभाव से ब्राम्हणों ने अन्य वर्गों के साथ मिलकर कायस्थों को सत्ता-च्युत किया। कायस्थ भागकर उत्तर भारत और वहां से मध्य प्रदेश, बिहार, ब्नगल महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में पहुंचे। यह भी कहा जाता है कि 'इतिहास अपने आप को दोहराता है।' अनुमानत:: जिन कश्मीरी पंडितों को यवन आतंकवादियों ने खदेड़ बाहर किया है, वही कश्मीरी पंडित पुरातन काल में कश्मीर से कायस्थों की राज सत्ता छिनने के कारण बने थे।
हमारा कर्तव्य
इतिहास की बातें इतिहास तक सीमित रहने देकर आज कायस्थ समाज का अकर्तव्य अपने मूल स्वरुप को जानने और अपनी मातृ शक्तियों को प्रतिष्ठित कर पूजन एक है ताकि मातृ-आशीष से वे पुन: समृद्ध और सुखी हो सकें। कैकेयी मैया के चरित्र पर चितन-मनन कर अपनी बच्चियों का नामकरण किया जाना चाहिए। कैकेयी मैया के नाम पर पुरस्कार, अलंकरण और छात्रवृत्तियाँ स्थापित की जाना चाहिए।
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
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