चिंतन सलिला:
धर्म
संजीव 'सलिल'
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आत्मीय!
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आत्मीय!
वन्दे मातरम.
महाभारतकार के अनुसार 'धर्मं स: धारयेत' अर्थात वह जो धारण किया जाए वह धर्म है.
प्रश्न हुआ: 'क्या धारण किया जाए?'
उत्तर: 'वह जो धारण करने योग्य है.'
प्रश्न: 'धारण करने योग्य है क्या है?
उत्तर: वह जो श्रेष्ठ है?
प्रश्न: श्रेष्ठ क्या है?
उत्तर वह जो सबके लिए हितकर है.
डॉ. राम मनोहर लोहिया के अनुसार धर्म लंबे समय की राजनीति और राजनीति तत्कालीन समय का धर्म है.
उक्तानुसार धर्म सदैव प्रासंगिक और सर्वोपयोगी होता है अर्थात जो सबके लिए नहीं, कुछ या किसी के लिए हितकर हो वह धर्म नहीं है.
साहित्य वह जो सबके हित सहित हो अर्थात व्यापक अर्थ में साहित्य ही धर्म और धर्म ही साहित्य है.
साहित्य का सृजन अक्षर से होता है. अक्षर का उत्स ध्वनि है. ध्वनि का मूल नाद है... नाद अनंत है... अनंत ही ईश्वर है.
इस अर्थ में अक्षर-उपासना ही धर्मोपासना है. इसीलिये अक्षर-आराधक को त्रिकालदर्शी, पूज्य और अनुकरणीय कहा गया, उससे समाज का पथ-प्रदर्शन चाह गया, उसका शाप अनुल्लन्घ्य हुआ. अकिंचन गौतम के शाप से देवराज इंद्र भी न बच सका.
धर्म समय-सापेक्ष है. समय परिवर्तन शील है. अतः, धर्म भी सतत गतिशील और परिवर्तन शील है, वह जड़ नहीं हो सकता.
पञ्च तत्व की देह पञ्चवटी में पीपल (ब्रम्हा, नीम (शक्ति, रोगाणुनाशक, प्राणवायुदाता), आंवला (हरि, ऊर्जावर्धक ), बेल (शिव, क्षीणतानाशक ) तथा तथा आम (रसवर्धक अमृत) की छाया में काया को विश्राम देने के साथ माया को समझने में भी समर्थ हो सकती थी.
मन के अन्दर जाने का स्थान ही मन्दिर है. मन मन्दिर बनाना बहुत सरल है किन्तु सरल होना अत्यंत कठिन है. सरलता की खोज में मन्दिर में मन की तलाश ने मन को ही जड़ बना दिया.
शिव वही है जो सत्य और सुन्दर है. असत्य या असुंदर शिव नहीं हो सकता. शिव के प्रति समर्पण ही 'सत' है.
शिव पर शंका का परिणाम सती होकर ही भोगना पड़ता है. शिव अर्थात सत्य पर संदेह हो तो मन की शांति छिन जाती है और तन तापदग्धता भोगता ही है.
शिव पर विश्वास ही सतीत्व है. शंकर शंकारि (शंका के शत्रु अर्थात विश्वास) है. विश्वास की संगिनी श्रद्धा ही हो सकती है. तभी तो तुलसी लिखते हैं: 'भवानी-शंकरौ वन्दे श्रृद्धा-विश्वास रूपिणौ' किसी भी काल में श्रृद्धा और विश्वास अप्रासंगिक कैसे हो सकते हैं?
जिसकी सत्ता किसी भी काल में समाप्त न हो वही तो महाकाल हो सकता है. काल से भी क्षिप्र होने पर ही वह काल का स्वामी हो सकता है. उसका वास क्षिप्रा तीर पर न हो तो कहाँ हो?
शिव सृजन से नाश और नाश से सृजन के महापथ निर्माता हैं. श्रृद्धा और विश्वास ही सम्मिलन की आधार भूमि बनकर द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाती हैं. श्रृद्धा की जिलहरी का विस्तार और विश्वास के लिंग की दृढ़ता से ही नव सृजन की नर्मदा (नर्मम ददाति इति नर्मदा जो आत्मिक आनंद दे वह नर्मदा है) प्रवाहित होती है.
संयम के विनाश से सृजन का आनंद देनेवाला अविनाशी न हो तो और कौन होगा? यह सृजन ही कालांतर में सृजक को भस्म कर देगा (तेरा अपना खून ही आखिर तुझमें आग लगाएगा).
निष्काम शिव काम क्रीडा में भी काम के वशीभूत नहीं होते, काम को ह्रदय पर अधिकार करने का अवसर दिए बिना क्षार कर देते हैं किन्तु रति (लीनता अर्थात पार्थक्य का अंत) की प्रार्थना पर काम को पुनर्जीवन का अवसर देते हैं. निर्माण में नाश और नाश से निर्माण ही शिवत्व है.
इसलिए शिव अमृत ग्रहण न करने और विषपायी होने पर भी अपराजित, अडिग, निडर और अमर हैं. दूसरी ओर अमृत चुराकर भागनेवाले शेषशायी अमर होते हुए भी अपराजित नहीं रणछोड़ हैं.
सतीनाथ सती को गँवाकर किसी की सहायता नहीं कहते स्वयं ही प्रलय के वाहक बन जाते हैं जबकि सीतानाथ छले जाकर याचक हो जाते हैं. सती के तप का परिणाम अखंड अहिवात है जबकि सीता के तप का परिणाम पाकर भी खो देना है.
सतीनाथ मर्यादा में न बंधने के बाद भी मर्यादा को विस्मृत नहीं करते जबकि सीतानाथ मर्यादा पुरुषोत्तम होते हुए भी सीता की मर्यादा की रक्षा नहीं कर पाते.
शिव रात्रि की प्रासंगिकता अमृत और गरल के समन्वय की कला सीखकर जीने में है.
शेष अशेष...
१३-३-१३
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