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बुधवार, 15 अगस्त 2018

ॐ doha shatak raj kumar mahobia


दोहा शतक
नयी  प्रगति  के  मंच  से
राजकुमार महोबिया


























जन्म: २. १. १९७२, उमरिया, मध्य प्रदेश। 
आत्मज: स्व.रतिबाई-स्व.छोटेलाल महोबिया।  
जीवन संगिनी: श्रीमती रेनू महोबिया।  
काव्य गुरु:श्री विजय बागरी। 
शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिंदी, अंग्रेजी साहित्य) बी.एड.
विशिष्ट कार्य: जल संवर्धन के लिए स्वतंत्र कार्य पर ई.टी.वी.म.प्र. द्वारा विशेष रिपोर्ट का प्रसारण,२० नाटकों का मंचन, बाल नाटक लेखन  
प्रकाशन: विविध साझा संकलनों एवं पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत।  
उपलब्धि: भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा रजत पदक, शहीद हेमू कलाणी सम्मान, डॉ. भीमराव अंबेडकर सम्मान, बुंदेलखंड कनेक्ट समिट अवार्ड झाँसी, उ.प्र.,नवदर्पण सृजन  भूषण, वातायन विभूति व अन्य।   
संप्रति: उच्च श्रेणी शिक्षक (अंग्रेजी) शास. उ. मा. वि. करकेली, ज़िला उमरिया, म.प्र.।
संपर्क: आर.टी.ओ.कार्यालय के पीछे, शहपुरा मार्ग, वार्ड क्र. १२, विकटगंज, उमरिया, म. प्र.।
चलभाष: ७९७४८५१८४४, ९८९३८७०१९०।
*
राजकुमार महोबिया नर्मदांचल के उभरते हुए प्रतिभावान दोहाकार हैं। वन प्रांतर, ग्राम्यांचल और नगरीय परिवेश तीनों से समान संवेदना होने के कारण उनके दोहे सबके लिए सहज ग्राह्य होने के साथ एक पक्षीय नहीं हैं। वन में पलाश (वृक्ष संपदा) के अंधाधुंध काटे जाने का दुष्परिणाम बसंत  का आनंद घटने ही नहीं मिटने भी लगा है, मानो बसंत ने वैराग्य ले लिया हो। सरस-सहर और सरक अभिव्यक्ति की बानगी देते ये दोहे पाठक को रसानंद की प्रतीति करता है- 
वन में खिले पलाश का, जब से हुआ कटाव।
जोगी-जोगी हो गये, बासंती ठहराव।।
युवा दोहाकार का श्रृंगार की और आकर्षण स्वाभाविक है। श्रृंगार भाव की प्रबलता के साथ शालीनता का निर्वाह दुष्कर होता है किंतु राजकुमार इस दुष्कर कार्य को सहजता से संपन्न कर अपनी सामर्थ्य के प्रति आशान्वित करते हैं-  
मुस्कानों  में  श्लेष  हैं, नयन  यमक-आभास ।
मुख-द्युति में उपमान तो,देह लचक अनुप्रास ।।
राज कुमार मिथकों का प्रयोग करते हुए अपनी बात सामने रखते हैं। मीरा के विष पान के संदर्भ में 'प्रीत-पाहुनी' उनकी मौलिक सोच को दर्शाता है- 
विष  के  प्याले  पर  लिखी, मीरा  की  तकदीर ।
प्रीत  पाहुनी  के  लिए,  पत्थर   खिंची  लकीर ।।
आम लोगों की आपदा पर बहुत आराम के साथ दर्द व्यक्त करनेवाली संसद के देश में ऊपर से नीचे तक यही ढोंग पलते देख दोहाकार मौन नहीं रह पता और पर्यावरण-संरक्षण के नाम पर हो रहे प्रपंचों को संकेतित कर कहता है- 
जल, जंगल रक्षार्थ नित, मिशन, सभा  परपंच ।
तश्तरियाँ  काजू  सजी, बिसलरियों  के  मंच ।।
पर्यावरण से जुडी भूजल-ह्रास की समस्या का मूल इंगित करते हुए राम कुमार उसके समाधान का भी संकेत करते हैं-  
बढ़ता घर, आँगन, गली, नित कंक्रीट बिछान ।
कैसे भू की कोख में, हो जल  का  अभिधान ।।
अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होने की चर्चा कर प्रेस और नेता अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं किन्तु कल की कौन कहे, प्यास की त्रासदी आज ही मार-काट तक आ पहुँची है- 
मारकाट   तक  आ  गई,  पानी   की   दरकार ।
कामर  में  लाठी  छुपी,   मटकों   में  तलवार ।।
तथाकथित प्रगति का उद्घोष सुनकर प्रकृति के प्रतिनिधि सूरज के रोष का रूपक प्रयोग कर दोहाकार नीतिकारों को प्रकृति सेपंगा न लेने के प्रति सचेत करते हैं-   
नयी  प्रगति  के  मंच  से,  मानव   का  उद्घोष ।
सुन  सूरज  करने  लगा, अग्नि  रूप  ले  रोष ।।
राजकुमार के दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, तथ्यपरकता, भाषिक प्रवाह, शाब्दिक अनुशासन तथा लय का होना उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करता है।   
*
*1--* 
श्वेतवरण,  कमलासिनी,  कर   वीणा   झंकार ।
वर   दे, विद्या  के  भुवन,  जीवन  ले  आकार ।।
*2--* 
विद्या,  बुद्धि,  विवेक  का, रहे  शीश  पर हाथ ।
वीणा, पुस्तक   धारिणी,  सदा   नवाऊँ  माथ ।।
*3--* 
उर के तम का शमन कर, कर माँ नया उजास ।
चमक  उठे  श्वेताभ  से,  सपनों  का  आकाश ।।
*4--* 
विघ्न विहीना, मातु  कर, जीवन की  हर  खोर ।
उर के आँगन अवतरित, कर माँ ! नया अँजोर ।।
*5--* 
पीर    परायी   गा   सकूँ,   दे   माँ   ऐसी   राग ।
उर  की  वीणा  में   बजे,   तार-तार   अनुराग ।।
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*6--* 
कैसे   अपने   दिन   कटे,   कैसी   बीती   रात ।
दोहे-दोहे    में   लिखी,   हमने     सारी   बात ।।
*7--* 
तीन काल, चौदह भुवन, मनुज, देव,  दिनमान ।
किया  लोक,  परलोक  सब,  दोहों  ने  संधान ।।
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      *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                          संपर्क -- 7974851844.

*प्रभाती जागरण के दोहे*
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*8--* 
सूरज अपनी  चाल पर, कभी  न  दिखे  अधीर ।
है चिन्ता  किस  बात  की, जो  सहाय  रघुवीर ।।
*9--* 
तम  के   काले  उदधि  से,  धरती  ले  अवतार ।
काग  मुँडेरे   कर   रहा,  सूरज   के   जयकार ।।
*10--* 
सूरज   आँगन  भोर  से,  खेल   रहा   फुटबाल ।
घर  की  खिड़की  खोल के, आओ दें करताल ।।
*11--* 
रजनी  जूड़ा  बाँध  कर, चली  गयी  निज गाँव ।
भोर    हमारी    देहरी,   धरे    लजाती    पाँव ।।
*12--* 
चिड़िया चूँ-चूँ कर  रही, तू  भी  तो  कुछ  बोल ।
सूरज पाहुन  द्वार पर,  घर की खिड़की  खोल ।।
*13--* 
नयी   प्रात   के  रूप   में,  सौंप   गई   उपहार ।
आओ  मिल  ज्ञापित  करें, रजनी का  आभार ।।
*14--* 
गाय-दुहन, हल, बैल औ', प्रात भजन सँग योग ।
अपनी  मर्जी  सब   करें,  सूरज  का  .उपयोग ।।
*15--* 
बैठ   चौंतरा   द्वार   के,   छेड़   प्रभाती    राग ।
हरबोला  सूरज  कहे, अरे  मनुज ! अब  जाग ।।
*16--* 
सूरज   आया   हाट   में,  लादे   सर   पर  धूप ।
बदले  में  वो  ले  गया, यश-अक्षत,  भर  सूप ।।
*17--* 
पकड़ निशा की  तर्जनी , सूरज गया  विदेश ।
उसे  गाँव  तक   छोड़कर,  लौटा  अपने  देश ।।
*18--* 
खत्म हुआ फिर आज भी,रजनी का अवसाद ।
भानु  पुरोहित  बाँटता,  किरणों  का  परसाद ।।
*19--* 
चार पहर  का तम रहा, निश दिन का आलेख ।
नित्य प्रात  सूरज   करे, वसुधा का अभिषेक ।।
*20--* 
काजल  सारा धुल गया, निखरा  नया  प्रभात ।
सूरज   आया   पार  कर,  भरे  समंदर  सात ।।
*21--* 
जैसे-जैसे   हो   रहा,  किरणों    का   विस्तार ।
वैसे-वैसे   सूर्य   का,  धरती   पर   अधिकार ।।
*22--* 
चार  पहर   से  कर  रही, उजियारे  का  जाप ।
चिड़िया चहकी, जब सुनी, सूरज की पदचाप ।।
*23--* 
सूरज  यश  के   बैंक  में,  किरणें  करें  निवेश ।
हम भी अपनी आय  का, जमा  करें  अवशेष ।।
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     *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                          संपर्क -- 7974851844.

*जीवन-दर्शन के दोहे*
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*24--* 
एक  दिवस  को हारकर, दूजे की फिर आस ।
केवल  इतना  ही  रहा,  जीवन  का  उद्भाष ।।
*25--* 
नियति  नियत चलती रहे, अंजानी-सी लीक ।
हुई कभी लेकिन  नहीं, जीवन  की  तस्दीक़ ।।
*26--* 
पर  के  हित जीवन रहा, मुझे  सिर्फ प्रारब्ध ।
अनसुलझा हरदम रहा, जीवन का उपलब्ध ।।
*27--* 
टुकड़े-टुकड़े  टूटकर,  बिखर   गये  अरमान ।
टुकड़ों  में  करता  रहा, जीवन  की पहचान ।।
*28--* 
ताम्र-पात्र   नैना,   भरे,   अश्रु-नीर   सम्मान ।
किन्तु  रहे  पत्थर  सदा, पत्थर  के भगवान ।।
*29--* 
झोंका एक समीर का, विलग  डाल  से  फूल ।
यूँ समझो कब,किस घड़ी, हो जाए तन  धूल ।।
*30--* 
सपना बनकर ही  रही,  सपनों की  बख्शीश ।
चली आखिरी साँस तक,जीवन की तफ्तीश ।।
*31--* 
अंतर  को अनसुना  कर, चले  धार  विपरीत ।
घाट-घाट  उसकी  सदा,  मिट्टी   हुई  पलीत ।।
*32--* 
उजला-उजला तन रहा,अंतस् जिसका स्याह ।
मिली अंतत: कब  उसे, शीतल  छाँह-पनाह ।।
*33--* 
चिन्तन की  खिड़की रही, सदा-सदा  से  बंद ।
ओछे-ओछे    भाव    पर,   औने-पौने   छंद ।।
*34--* 
वेद  शास्त्र  .बैठे   रहे , लेकर   उच्च   विचार ।
मानव-समता पर रही, खिंची किन्तु  तलवार ।।
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     *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                          संपर्क -- 7974851844.

*जेठ मास के दोहे*
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*35--* 
लाश-लाश  नदिया  पड़ी, घाट-घाट   शमशान ।
चिता  धरा  की   रच  रहे, मौसम के भगवान ।।
*36--* 
चाकू-छुरियाँ  प्रात तो,  धूप   आग   के  बाण ।
जेठ  आज  यमराज  बन,  लेने  आया  प्राण ।।
*37--* 
उठता   धुआँ  दहार  से,  चिनगी-चिनगी  रेत ।
फटे  कलेजे   ताल   के,  पत्थर-पत्थर  खेत ।।
*38--* 
नयी  प्रगति  के  मंच  से,  मानव   का  उद्घोष ।
सुन  सूरज  करने  लगा, अग्नि  रूप  ले  रोष ।।
*39--* 
सूरज  क्यों   भिनसार  से,  आँखें   रहा  तरेर ।
मनुज जरा तो समझ तू, आज प्रकृति के फेर ।।
*40--* 
द्वार,  देहरी    बैठकर,  चिड़िया    करे  पुकार ।
अँजुरी  भर के  नीर  का,  कर  माता उपकार ।।
*41--*
प्यासे-प्यासे  कण्ठ   हैं, अटकी-अटकी  श्वास ।
मेघों   की  माला  जपे,  धरती   का   विश्वास ।।
*42--*
काँटा-काँटा    क्यारियाँ,    मिट्टी    सारी   रेत ।
चौमासे  उफने  नहीं,  कब  से  जी  भर  खेत ।।
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      *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
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*गाँव उगे सागौनों के दोहे*
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*43--*
सारा   भू-जल  पी   गये, जंगल  के  सागौन ।
व्यापारी   सरकार   से,  पूछे  आखिर  कौन ।।
*44--*
जंगल  अपने  गाँव  का, शहरी  उगा विलास ।
मारा -मारा  फिर  रहा,  अर्जी  लिये  पलास ।।
*45--*
महुआ, हल्दू, बट,धवा, ढाक,  देवतरु, साज ।
साजिश पर सागौन की, विस्थापित हैं आज ।।
*46--*
गाँव  हमारे   बो   दिए, साजिश   के सागौन ।
बरसज, कहुआ, साल  सब, रहे देखते मौन ।।
*47--*
जंगल-जंगल  में  गिरी,  विस्थापन  की गाज ।
सागौनों   के   शोर  में,  कौन   सुने आवाज ।।
*48--*
दरकिनार  हल  पहट औ', दादाजी की खाट ।
लगा  हमारे    गाँव  में,  सागौनों   का   हाट ।।
*49--*
जंगल  मेरे  गाँव  का,  मुझको   मना   प्रवेश ।
सागौनों   की   पेंच   पर,  सरकारी   आदेश ।।
*50--*
सोफे, टेबल  डायनिंग,  हल, पहटों  के शीश ।
नयी प्रगति के नाम पर, गाँवों  को  बख़्शीश ।।
*51--*
वन के लदे पलाश  का, जब से हुआ  कटाव ।
जोगी-जोगी    हो   गये,    बासंती   ठहराव ।।
*52--*
तेंदू, जामुन, चार,  औ',  ऊमर,  इमली, बेल ।
चालबाज़   सागौन  के,  हाथों  सबको जेल ।।
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    *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
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  *श्रृंगार के दोहे*
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*53--*
मुस्कानों  में  श्लेष  हैं, नयन   यमक-आभास ।
मुख-द्युति में उपमान तो,देह लचक अनुप्रास ।।
*54--*
लपट-झपट  गति पाँव की, चंचल चपला नैन ।
घूँघट   की   जंजीर   में,  मन   हिरना  बेचैन ।।
*55--*
सोंधी - सोंधी     सादगी,   तीखे - तीखे    नैन ।
अधरों    की   नमकीन  में ,  मीठे-मीठे   बैन ।।
*56--*
बँधे  केश  तो  प्रात  थी, खुले केश  तो  साँझ ।
प्रीत  पावनी  प्रार्थना, खनक  उठे  मन झाँझ ।।
*57--*
यौवन  की   दहलीज   पर,  बासंती  अहसास ।
महुआ-महुआ देह तो, चितवन खिले  पलास ।।
*58--*
चंद्र-बदन,  मुख   चंद्र  पर,  ऊपर   से  श्रृंगार ।
कामदेव  हिय  को  सदा, पड़ी   दोहरी   मार ।।
*59--*
मन पर वश बेवश दिखे, दिखें नयन  दो,  चार ।
हिय की गति हिय जानता, या  जाने  करतार ।।
*60--*
वर्षों    की    आराधना,   वर्षों    बाट   निहार ।
पल  भर की मुस्कान से, ज्ञापित  सब आभार ।।
*61--*
सजे   हृदय   की   देहरी,  जब   से   वंदनवार ।
प्रणय-पत्रिका   लिख   रहे,   नैनों   के   उद्गार ।।
*62--*
अंतस्    के   इकरार   पर,  बाहर   से   इंकार ।
फूल  प्रीत के बदन  पर, दो  दुनिया  का  भार ।।
*63--*
पिया-रमण  के शगुन का, एक  बार अभिसार ।
तन,मन की द्युति का हुआ,सहस गुना विस्तार ।।
*64--*
उँगली में उलझा सकुच,नत-मुख, आँचल छोर ।
झेंपि-झपत नैनन कसे, हिय से हिय  की  डोर ।।
*65--*
बेला-बेला   देह   तो,   साँसों   खिले     गुलाब ।
उर  के  बंद   किवाड़   में, भरा  प्रणय-सैलाब ।।
*66--*
विष  के  प्याले  पर  लिखी, मीरा  की  तकदीर ।
प्रीत  पाहुनी  के  लिए,  पत्थर   खिंची  लकीर ।।
*67--*
कामदेव   का   एक   दिन,  हुआ  सिर्फ  संसर्ग ।
सतसैया  के   लिख  गए,  जाने   कितने   सर्ग ।।
*68--*
नख-शिख  झरता देखकर, कनक  रूप-मकरंद ।
जोगी   निरा  कबीर भी,  लिखे   लावणी   छंद ।।
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*जल रक्षार्थ, कुछ दोहे*
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*69--*
जल, जंगल रक्षार्थ नित, मिशन, सभा  परपंच ।
तस्तरियाँ  काजू  सजी, बिसलरियों  के  मंच ।।
*70--*
बूँदों  को  मुहताज  है, नदियों   की   जलधार ।
झूठे  वादे  कर   रही,   सावन   की   सरकार ।।
*71--*
मारकाट   तक  आ  गई,  पानी   की   दरकार ।
कामर  में  लाठी  छुपी,   मटकों   में  तलवार ।।
*72--*
धुआँ-धुआँ    नदियाँ    हुईं,    रेत-रेत   अंगार ।
दहरों-दहरों   रुदन   है,  लाश-लाश   पतवार ।।
*73--*
जोगन-जोगन  हो  गया,  बारिश  का  माहौल ।
जब से जंगल  हो गया,  मानव  को  माखौल ।।
*74--*
बूँद-बूँद जल का करें,  हम  मिलकर  सम्मान ।
ताकि  नहीं  रूठें  कभी,  पानी   के  भगवान ।।
*75--*
भू-गत जल के हित करें, मिलकर यही उपाय ।
जितना खर्चें आप जल,  भू  में  उतना  जाय ।।
*76--*
बढ़ता घर, आँगन, गली, नित कंक्रीट बिछान ।
कैसे भू की कोख में, हो जल  का  अभिधान ।।
*77--*
कुआँ, ताल, पोखर, नदी, केवल बाकी  कीच ।
मतलब  पानी  के  लिए, महासमर  नजदीक ।।
*78--*
घाट-घाट    सूने    पड़े,   नदी-नदी    है   रेत ।
हरियाएँगे   किस   तरह,   भूखे-प्यासे   खेत ।।
*79--*
बूँद  नहीं,  अब  डाइनें, करें   कुओं  में  वास ।
भर  सावन  में  ले  रखा, बरखा  ने  संन्यास ।।
*80--*
रह-रहकर  आने लगी, अब यम  की पदचाप ।
बेलगाम   इंसान   को,  पानी  का अभिशाप ।।
*81--*
भू-जल-दोहन  के  लिए,  निश्चित  हो  कानून ।
रहे  सलामत,  संतुलन,  पानी   का  मजमून ।।
*82--*
रोज प्रकृति से कर रहा,धनिक वर्ग व्यभिचार ।
दीन-हीन  ही  झेलते,  जल-जंगल  की  मार ।।
*83--*
यहाँ   जरूरी  कण्ठ   हैं,  वहाँ  जरूरी  लान ।
जल-रक्षा   पर   दोगले, सरकारी  अभियान ।।
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*आज़ादी, सत्ता और विसंगतियों पर दोहे..*
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*84--*
आज़ादी  के  नाम  पर,  बंधक   है  तक़दीर ।
क़ैदी  मिले उजास सब, अधरों  पर  जंजीर ।।
*85--*
घायल  हर्ष,  हुलास हैं, कर्ज-कर्ज   मुस्कान ।
प्रजातंत्र में  प्रजा को,  मिले  यही  अवदान ।।
*86--*
आज़ादी कुछ को फली,बाकी सब को व्यर्थ ।
सिर्फ तिजोरी तक रहा,  लोकतंत्र  का अर्थ ।।
*87--*
वादों    के  मिष्ठान्न  पर,  होते   रहे   निहाल ।
हाथ पसारे  रह  गए, अपने  अड़सठ  साल ।।
*88--*
सत्ता      साहूकार    ने,  यूँ   सौंपी   जागीर ।
रही  हाथ मलती सदा, सपनों  की  तकदीर ।।
*89--*
पाँच साल के बाद फिर, पाँच साल  पछताव ।
परिवर्तन   के   नाम   पर,  गये  कुरेदे  घाव ।।
*90--*
नये   सुधारों   ने   किये,   ऐसे   नये   सुधार ।
सदा  सुधारों  को  रही,   सुधरे  की  दरकार ।।
*91--*
निःशुल्कों  के  नाम  पर,  सत्ता   के  षड्यंत्र ।
पंगु बुद्धि,छल-बल करें, फिक्स वोट का तंत्र ।।
*92--*
रँग  सियार  खुद हो  गए, बाँटे  जब  से  रंग ।
रंग-रंग    सत्ता   सजी,  और   हुई    बदरंग ।।
*93--*
सिर्फ वोट  की  चाह तक, मंचों  का  माहौल ।
पाँच साल तक, बाद में, सपनों का  माखौल ।।
*94--*
मंचों   पर  तो   गैर  के,  मुर्दे   गड़े   उखाड़ ।
नेपथ्यों  में   एक-सी  सूरत  के  सब   भाड़ ।।
*95--*
कह दें किसको बीस  या, किसे  कहें उन्नीस ।
मठाधीश  हैं  सब यहाँ, सारे  जय जगदीश ।।
*96--*
जनसेवा के नाम पर, क्या बढ़िया भ्रमजाल ।
राजनीति  की  टोपियाँ, सुर्ख  गुलाबी गाल ।।
*97--*
प्रजातंत्र  के  भुवन  में,  राजतंत्र  का  वास ।
संविधान  के   मूल  का,  कैसा  सत्यानाश ।।
*98--*
वंशवाद   के   घुस    गए,  संसद   में  लंगूर ।
प्रजातंत्र  की  अस्मिता,  लूट   रहे   भरपूर ।।
*99--*
पढ़ने-लिखने   में   गधे,  लंपटिया कमबख्त ।
सबके खातिर ढाल-सा, राजनीति का तख्त ।।
*100--*
"अच्छे दिन" किसके हुए, "पंद्रह लाखी"कौन ।
ठगे-ठगे-से   चेहरे,    अधर-अधर   हैं  मौन ।।
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   *......राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.*
                           संपर्क -- 7974851844.


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