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रविवार, 4 जनवरी 2015

lekh: geeta aur prabandhan

लेख:

श्रीमद्भगवद्गीता और प्रबंधन 

-आचार्य संजीव ‘सलिल’


श्रीमद्भगवद्गीता मानव सभ्यता और विश्व वाङ्मय को भारत का अनुपम कालजयी उपहार है। गीता के आरम्भ में कुरुक्षेत्र की समरभूमि में पाण्डव-कौरव सेनाओं के मध्य खड़ा पराक्रमी अर्जुन रण हेतु उद्यत् सेनाओं में अपने रक्त सम्बन्धियों, पूज्य जनों तथा स्नेहीजनों को देखकर विषादग्रस्त हो जाता है। ंिकंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को कर्तव्य बोध कराने के लिये श्रीकृष्ण जो उपदेश देते हैं, वहीं श्रीमद्भग्वदगीता में संकलित है। इन उपदेशों में विभ्रम ग्रस्त मन को संतुलित करने के लिये प्रबंधकीय उपाय अंतनिर्हित है।
वर्तमान दैनंदिन जीवन में प्रबंधन अपरिहार्य है। घर, कार्यालय, दूकान, कारखाना, चिकित्सालय, विद्यालय, शासन-प्रशासन या अन्य कहीं हर स्थान पर प्रबंधन कला के सूत्र-सिद्धान्त व्यवहार में आते हैं। समय, सामग्री, तकनीक, श्रम, वित्त, यंत्र, उपकरण, नियोजन, प्राथमिकताएँ, नीतियों, अभ्यास तथा उत्पादन हर क्षेत्र में प्रबंधन अपरिहार्य हो जाता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में मानवीय प्रयासों को सम्यक्, समुचित, व्यवस्थित रूप से किया जाना ही प्रबंधन है। किसी एक मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ पारस्परिक सक्रिय अंतर्संबंध में संलग्न करना ही प्रबंधन है। किसी मनुष्य की कमजोरियों, दुर्बलताओं, अभावों या कमियों पर विजय पाकर अन्य लोगों के साथ संयुक्त प्रयास करने में सक्षम बनाना ही प्रबंधन कला है। 
प्रबंधन कला मनुष्य के विचारों तथा कर्म, लक्ष्य तथा प्राप्ति योजना तथा क्रियान्वयन, उत्पादन तथा विपणन में साम्य स्थापित करना है। यह लक्ष्य प्राप्ति हेतु जमीनी भौतिक, तकनीकी या मानवीय त्रुटियों, कमियों अथवा विसंगतियों पर उपलब्ध न्यूनतम संसाधनों व प्रक्रियाओं अधिकतम प्रयोग करने की कला व विज्ञान है। 
प्रबंधन की न्यूनता, अव्यवस्था, भ्रम, बर्बादी, अपव्यय, विलंब ध्वंस तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का उपस्थित परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वोत्तम संभव उपयोग किया जाना अनिवार्य है। किसी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है। अतः, मानव प्रबंधन को सर्वोत्तम रणनीति माना जाता है। प्रागैतिहासिक काल की आदिम अवस्था से राॅबोट तथा कम्प्यूटर के वर्तमान काल तक किसी न किसी रूप में उपलब्ध संसाधनों का प्रबंधन हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम् तथा विश्वैक नीड़म् के सिद्धान्तों को मूर्त होते देखते वर्तमान समय में प्रबंधन की विधियाँ अधिक जटिल हो गयी हैं। किसी समय सर्वोत्तम सिद्ध हुये नियम अब व्यर्थ हो गये हैं। इतने व्यापक परिवर्तनों तथा लम्बी समयावधि बीतने के बाद भी गीता के प्रबंधक सूत्रों की उपादेयता बढ़ रही है। 
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रबंधनसूत्रः 
प्रबंधन के क्षेत्र में गीता का हर अध्याय महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। अब तक जनसामान्य गीता को धार्मिक-अध्यात्मिक ग्रंथ तथा सन्यास वृत्ति उत्पन्न करने वाला मानकर उससे दूर रहता है। अधिकांश घरों में गीता है ही नहीं, यह अलमारी की शोभा बढ़ाती है- पढ़ी नहीं जाती। गीता का संस्कृत में होना और भारतीय शिक्षा प्रणाली में संस्कृत का नाममात्र के लिये होना भी गीता व अन्य संस्कृत ग्रंथों के कम लोकप्रिय होने का कारण है। शिक्षालयों से किताबी अध्ययन पूर्ण कर आजीविका तलाशते युवकों-युवतियों को अपने भविष्य के जीवन संग्राम, परिस्थितियों, चुनौतियों, सहायकों वांछित कौशल अथवा सफलता हेतु आवश्यक युक्तियों की कोई जानकारी नहीं होती। विद्यार्थी काल तक माता-पिता की छत्र-छाया में जिम्मेदारियों से मुक्तता युवाओं को जीवन पथ की कठिनाइयों से दूर रखती है किन्तु पाठ्यक्रम पूर्ण होते ही उनसे न केवल स्वावलम्बी बनने की अपितु अभिभावकों को सहायता देने और पारिवारिक-सामाजिक- व्यावसायिक दायित्व निभाने की अपेक्षा की जाती है। 
व्यवसाय की चुनौतियों, अनुभव की कमी तथा दिनों दिन बढ़ती अपेक्षाओं के चक्रव्यूह में युवा का आत्मविश्वास डोलने लगता है और वह कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह संशय, ऊहापोह और विषाद की उस मनः स्थिति में पहुँच जाता है जहां से निकलकर आगे बढ़ने के कालजयी सूत्र श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये हैं। इन सूत्रों की पौराणिक- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से कुछ हटकर वर्तमान परिवेश में व्याख्यायित किया जा सके तो गीता युवाओं के लिये Career building & Managementका ग्रंथ सिद्ध होती है। 
आरम्भ में ही कृष्ण श्लोक क्र. 2/3 में ‘‘क्लैव्यं मा स्म गमः’’ अर्थात् कायरता और दुर्बलता का त्याग करो कहकर अपनी सामथ्र्य के प्रति आत्मविश्वास जगाते हैं। ‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं व्यक्लोतिष्ठ परंतप’’ हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता के सोपानों पर पग रखना संभव नहीं है। 
श्लोक 2/7 में ‘‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं’’ ‘अर्थात मैं शिष्य की भांति आपकी शरण में हूँ कहता हुआ अर्जुन भावी संघर्ष हेतु सूत्र ग्रहण करने की तत्परता दिखाता है। अध्ययनकाल में विद्यार्थी- शिक्षक सम्बन्ध औपचारिक होता है। सामान्यतः इसमें श्रद्धाजनित अनुकरण वृत्ति का अभाव होता है। आजीविका के क्षेत्र में पहले दिन से कार्य कुशलता तथा दक्षता दिखा पाना कठिन है। गीता के दो सूत्र ‘‘संशय छोड़ो’’ तथा ‘‘किसी योग्य की शरण में जाओ’’ मार्ग दिखाते हैं। 
कार्यारम्भ करने पर प्रारम्भ में गलती, चूक और विलंब और उससे नाराजी मिलना या हानि होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में ‘‘गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः’’-2/11 अर्थात् हर्ष-शोक से परे रहकर, लाभ-हानि के प्रति निरंतर तटस्थ भाव रखकर आगे बढ़ने का सूत्र उपयोगी है। ‘‘सम दुःख-सुख धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ‘‘2/15 अर्थात् असफलताजनित दुख या सफलताजनित को समभाव से ग्रहण करने पर ही अभीष्ट साफल्य की प्राप्ति संभव है। 
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य 
नो द्विजेत्प्राप्यचाप्रियम् 
स्थिर बुद्धिसंमूढ़ो
ब्रह्मचिद्बह्मणि स्थितः।। 
‘‘जो प्रिय (सफलता) प्राप्त कर प्रसन्न नहीं होता अथवा अप्रिय (असफलता) प्राप्त कर उद्विग्न (अशांत) नहीं होता वह स्थिरबुद्धि ईश्वर (जिसकी प्राप्ति अंतिम लक्ष्य है) में स्थिर कहा जाता है‘’- कहकर कृष्ण एक अद्भुत प्रबंधन सूत्र उपलब्ध कराते हैं 
प्रबंधन के आरम्भ में परियोजना सम्बन्धी परिकल्पनाएँ और प्राप्ति सम्बन्धी आँकड़ों का अनुमान करना होता है। इनके सही-गलत होने पर ही परिणाम निर्भर करता है। 
‘‘नासतो विद्यते भावो 
नाभावो विद्यते सतः।।2/16 अर्थात् असत् (असंभव) की उपस्थिति तथा सत् (सत्य, संभव) की अनुपस्थिति संभव नहीं। यदि परियोजना की परिकल्पना में इसके विपरीत हो तो वह परियोजना विफल होगी ही। शासकीय कार्यों में इस ‘सतासत्’ का ध्यान न रखा जाने का दुष्परिणाम हम देखते ही हैं किन्तु वैयक्तिक जीवन में ‘सतासत्’ का संतुलन तथा पहचान अपरिहार्य है। सुख-दुःखे समे कृत्वा,
लाभालाभौ, जयाजयो
ततो युद्धाय युज्यस्व, 
तैवं पापं वाप्स्यसि।। 
कर्मों का क्रम नष्ट नहीं होता। कर्मफल पुनः कर्म कराता है। धर्म (कर्मयोग) का अल्प प्रयोग भी बड़े पाप (हानि) भय से बचा लेता है। न्यूटन गति का नियम Each and every action has equal and oopsite reaction‘‘गीता के इस श्लोक की भिन्न पृष्ठभूमि में पुनरुक्ति मात्र है। प्रबंधन करते समय यह श्लोक ध्यान में रहे तो हर क्रिया की समान तथा विपरीत प्रतिक्रिया व उसके प्रभाव का पूर्वानुमान कर बड़ी हानि से बचाव संभव है। 
‘‘व्यवसायात्मिका बुद्धि 
रेकेह कुरुनंदन
बहुशाखा ह्यनंताश्च 
बुद्धयोत्यवसायिनम्।।2/41।। 
निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है और अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक होती हैं।’’ 
त्रैगुण्य विषया वेदा 
निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन 
निद्वंदो नित्यसत्वस्थो 
निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2/45।। 
ज्ञानियों (वैज्ञानिकों) का विषय त्रिगुण (सत, रज, तम) प्रकृति है। तू इन गुणों की प्रकृति से ऊपर उठकर ज्ञानवान बन। 
प्रबंधन कला में अनेक विकल्पों में से किसी एक का चयन कर उसे संकल्प बनाना उसकी प्रकृति अर्थात् गुणावगुणों का अनुमान कर ज्ञानवान बने बिना कैसे मिलेगी? 
कर्मण्येवाधिकारस्ते 
मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा 
ते संगोस्त्वकर्मणि।।2/46।। 
To actoion alone there has't a right. Its first must remain out of thy sight. Neither the fruit be the impulsed of thy action. Nor be thou attached to the life of ideal in action
सतही तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबंधन का लक्ष्य सुनिश्चित परिणाम पाना है जबकि श्रीकृष्ण कर्म करने और फल की चिंता न करने को कह रहे हैं। अतः ये एक दूसरे के विपरीत हैं किन्तु गहराई से सोचें तो ऐसा नहीं पायेंगे। श्लोक 48 में सफलता-असफलता के लोभ-मय से मुक्त होकर समभाव से कर्म करने, श्लोक 49 में केवल स्वहित कारक फल से किये कर्म को हीन (त्याज्य) मानने, श्लोक 50 में योगः कर्मसु कौशलं’’ कर्म में कुशलता (समभाव परक) ही योग है कहने के बाद श्रीकृष्ण कर्मफल से निर्लिप्त रहने वाले मनीषियों को निश्चित बुद्धि योग और बंधन मुक्ति का सत्य बताते हैं। 
इन श्लोकों की प्रबंध विज्ञान के संदर्भ में व्याख्या करें तो स्पष्ट होगा कि श्रीकृष्ण केवल फल प्राप्ति को नहीं सर्वकल्याण कर्मकुशलता को समत्व योग कहते हुये उसे इष्ट बतला रहे हैं। स्पष्ट है कि शत-प्रतिशत परिणाम दायक कर्म भी त्याज्य है। यदि उससे सर्वहित न सधे। कर्म में कुशलता हो तथा सर्वहित सधता रहे तो परिणाम की चिंता अनावश्यक है। गीता की इस कसौटी पर प्रबंधन तथा उद्योग संचालन हो तो उद्योगपति, श्रमिक तथा आम उपभोक्ता सभी को समान हितकारी प्रबंधन ही साध्य होगा। तब उद्योगपति पूँजी का स्वामी नहीं, समाज और देश के लिये हितकारी न्यासी की तरह उनका भला करेगा। महात्मा गांधी प्रणीत ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का मूल गीता में ही है। ‘समत्वं योग उच्यते’ (2/48) में श्री कृष्ण आसक्ति का त्यागकर सिद्धि-असिद्धि के प्रति समभाव की सीख देते हैं। 
वर्तमान शिक्षा प्रणाली बुद्धि का उपयोग केवल ‘स्वहित’ हेतु करने की शिक्षा देती है जबकि श्लोक 49-50 में समत्वपरक बुद्धि की शरण ग्रहण करने तथा स्वहित हेतु कर्म के त्याग तथा श्लोक 52-53 में मोह रूपी दलदल को पारकर निश्चल बुद्धि योग प्राप्ति की प्रेरणा दी गयी है। स्वार्थपरक ऐन्द्रिक सुखों से संचालित होने पर बुद्धि का हरण हो जाता है। अतः वैयक्तिक विषय भोग केा त्याज्य मानकर जब शेष जन शयन अर्थात विलास करते हों तब जागकर संयम साधना अभीष्ट है। ‘या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी’ (2/69) एक बार स्थित प्रज्ञता, निर्विकारता प्राप्त होने पर भोग से भी शांति नाश नहीं होता। (2/60) ‘‘निर्ममो निहंकारः स शांतिमधिगच्छति’’ (2/61) आसक्ति और अहंकार के त्याग से ही शांति प्राप्ति होती है। 
सारतः गीता के अनुसार बुद्धि एक उपकरण है। निश्चय अथवा निर्णय करने में समर्थ होने पर बुद्धि स्वहित का त्याग कर सर्वहित में निर्णय ले तो सर्वत्र शांति और उन्नति होगी ही। प्रबंधन की श्रेष्ठता मापने का मानदण्ड यही है। अध्याय 3 में कर्मयोग की व्याख्या करते हुये श्री कृष्ण नियत कर्म को करने (3/8), आसक्ति रहित होने (3/9), धर्मानुसार कर्माचरण की श्रेष्ठतम प्रतिपादित करते हैं। (3/35) ‘स्वधर्मों निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः।’ श्री कृष्ण का ‘धर्म’ अंग्रेजी का रिलीजन (सम्प्रदाय) नहीं कनजल (कर्तव्य) है। धर्म के अष्ठ लक्ष्य यज्ञ, अध्ययन, अध्यापन, दान-तप, सत्य, धैर्य, क्षमा व निर्लोभ वृत्ति है। समस्त कर्मों का लक्ष्य ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाचाय च दुष्कृताम्। अर्थात् सज्जनों का कल्याण तथा दुष्टों का विनाश है। प्रबंधन कला यह लक्ष्य पा सके तो और क्या चाहिये? 
गीता में त्रिकर्म प्राकृत, नैमित्तिक तथा काम्य अथवा कर्म, अकर्म तथा विकर्म का सम्यक् विश्लेषण है जिसे प्रबंधन में करणीय ;क्वद्ध तथा अकरणीय ;क्वदज कवद्ध कहा जाता है। गांधीवाद का साध्य-साधन की पवित्रता का सिद्धान्त भी गीता से ही उद्गमित है। गीता के अनुसार स्वहितकारक फल अर्थात् स्वार्थ की कामना से किया गया कर्म हेय तथा बंधन कारक है जबकि ऐसे फल की चिन्ता न कर सर्वहित में निष्काम भाव से किया गया कर्म मुक्तिकारक है। यह मानक पूंजीपति अपना लें तो जनकल्याण होगा ही। 
प्रबंधन के क्षेत्र में व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी जाति, धर्म, क्षेत्र, शिक्षा या सम्पन्नता से नहीं होता। केवल और केवल योग्यता या कर्मकुशलता ही मूल्यांकन का आधार होता है। यह मानक भी गीता से ही आयातित है। ‘‘विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।’’ 
अर्थात् विद्या- विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चण्डाल को समभाव से देखने वाला पण्डित है। विडंबना यह कि योग्यता को परखने वाला जौहरी पण्डित होने के स्थान पर जन्मना जाति विशेष में जन्मे लोगों को अयोग्य होने पर भी पंडित कहा जाता है। 
‘चातुर्चण्य मया स्रष्टम् गुण कर्म विभागशः’’ अर्थात् चारों वर्ण गुण-कर्म का विभाजन कर मेरे द्वारा बनाये गये हैं- कहकर कृष्ण वर्णों को जन्मना नहीं कर्मणा मानते हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में व्यक्ति को उसका स्थान जन्म नहीं कर्म के आधार पर मिलता है। यह मानक आम आदमी के जीवन में लागू हो तो हर घर में चारों वर्णों के लोग मिलेंगे, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, जाति प्रथा, आॅनर किलिंग जैसी समस्यायें तत्काल समाप्त हो जायेंगीं। श्लोक 29 अध्याय 6 के अनुसार ‘‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मिन। ईक्षते योग मुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः’’ अर्थात् योगमुक्त जीवात्मा सब प्राणियों को समान भाव से देखता है। सब सहयोगियों, सहभोगियों और उपभोक्ताओं को समभाव से देखने वाला प्रबंधक वेतन, कार्यस्थितियों, श्रमिक कल्याण, पर्यावरण और उत्पादन की गुणवत्ता में से किसी भी पक्ष की अनदेखी नहीं कर सकता। 
इसके पूर्व श्लोक 5 ‘‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानम वसादयेत्। आत्मैव हयात्मनो बन्धुर आत्मैव रिपुरात्मनः’’ में गीताकार मनुष्य को मनुष्य का मित्र और मनुष्य को ही मनुष्य का शत्रु बताते हुए स्वकल्याण की प्रेरणा देते हैं। कोई प्रबंधक अपने सहयोगियों का शत्रु बनकर तो अपना भला नहीं कर सकता। अतः श्रीकृष्ण का संकेत यही है कि उत्तम प्रबंधकर्ता अपने सहयोगियों से सहयोगी-प्रबंधकों के मित्र बनकर सद्भावना से कार्य सम्पादित करें। 
आज हम पर्यावरणीय प्रदूषण से परेशान हैं। लोकप्रिय प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान और उसमें हममें से हर एक की भागीदारी आवश्यक है। इसका मूल सूत्र गीता में ही है। अध्याय 7 श्लोक 4-7 में मुरलीधर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश (पंचमहाभूत) मन, बुद्धि और अहंकार इन 8 प्रकार की अपरा (प्रत्यक्ष/समीप) तथा अन्य जीव भूतों (प्राणियों) की पराम् (अप्रत्यक्ष/दूर) प्रकृतियों का सृष्टिकर्ता खुद को बताते हैं। विचारणीय है कि गिरि का नाश करने से गिरिधर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं। गोवंश की हत्या हो तो गोपाल की कृपा कैसे मिल सकती है? वन कर्तन होता रहे तो बनमाली कुपित कैसे न हों? केदारवन, केदार गिरि को नष्ट किया जाये तो केदारनाथ कुपित क्यों न हों। कर्म मानव का। दोष प्रकृति पर....... अब भी न चेते तो भविष्य भयावह होगा। इसी अध्याय में त्रिगुणात्मक (सत्व, रज, तम) माया से मोहित लोगों का आसुरी प्रकृति का बताते हैं। स्पष्ट है कि असुर, दानव या राक्षस कोई अन्य नहीं हम स्वयं हैं। हमें इस मोह को त्यागकर परमात्मतत्व की प्राप्ति हेतु पौरुष करना होगा। प्रकाश, ओंकार, शब्द, गंध, तेज और सृष्टि मूल कोई अन्य नहीं श्रीकृष्ण ही हैं। ‘आत्मा सो परमात्मा’ परमात्मा का अंश होने के कारण ये सब लक्षण हममें से प्रत्येक में हो। कोई प्रबंधक यह अकाट्य सत्य जैसे ही आत्मसात् कर अपने सहकर्मियों को समझा सकेगा, कर्मयोगी बनकर सर्वकल्याण के समत्व मार्ग पर चल सकेगा। अध्याय 8 श्लोक 4 में श्रीकृष्ण ‘‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर’’ अर्थात् शरीर में परमात्म ही अधियज्ञ (यज्ञ करने वाला/कर्म करने वाला) है कहकर सिर्फ कौन्तेय को नहीं हर जननी की हर संतति को सम्बोधित करते हैं। प्रबंधक अपने प्रतिष्ठान में खुद को परमात्मा और हर कर्मचारी/उपभोक्ता को अपनी संतति समझे तो शोषण समाप्त न हो जायेगा। 
प्रबंधकों के लिये एक महत् संकेत श्लोक 14 में है। ‘‘अनन्यचेताः सततं यो’’ सबमें परमात्मा की प्रतीति क्षण मात्र को हो तो पर्याप्त नहीं है। अभियंता हर निर्माण और श्रमिकों में, चिकित्सक हर रोगी में, अध्यापक को हर विद्यार्थी में, पण्डित को हर यजमान में, पुरुष को हर स्त्री में परमात्मा की प्रतीति सतत हो तो क्या होगा? सोचिए... क्या अब भी गीता को पूज्य ग्रंथ मानकर अपने से दूर रखेंगे या पाठ्य पुस्तक की तरह हर एक के हाथ में हर दिन देंगे ताकि उसे पढ़-समझकर आचरण में लाया जा सके। 
नवम् अध्याय का श्री गणेश ही अर्जुन को वृत्ति से (पर दोष दर्शन) से दूर रखने से होता है। हम किसी की कमी दिखाने के लिये उसकी ओर तर्जनी उठाते हैं। यह तर्जनी उठते ही शेष 3 अंगुलियां मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा कहाँ होती है। वे ‘आत्म’ अर्थात स्वयं को इंगित कर खुद में 3 गुना अधिक दोष दर्शाती हैं। यहाँ प्रबन्धकों के लिये, अध्यापकों के लिये, अधिकारियों के लिये, प्रशासकों के लिये, उद्यमियों के लिये, गृह स्वामियों के लिये अर्थात् हर एक के लिये संकेत है। जितने दोष सहयोगियों, सहभागियों, सहकर्मियों, अधीनस्थों में हैं, उनके प्रति 3 गुना जिम्मेदारी हमारी है। अध्याय 10 में श्रीकृष्ण स्वदोष दर्शन की अतिशयता से उत्पन्न आत्महीनता की प्रवृत्ति से प्रबंधक को बचाते हैं। श्लोक 4-5 में कहते हैं ‘‘बुद्धिज्र्ञान संमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। सुखं दुखं भवोऽभावोभयं चाभयमेव च।’’ अहिंसा समता तुष्टिस्तयो दानं यशोऽयशः। भवति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।’’ अर्थात बुद्धि, ज्ञान, मोहमुक्ति, क्षमा, सत्य, इंद्रिय व मन पर नियंत्रण, शांति, सुख-दुख, उत्पत्ति-मृत्यु भय तथा अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप (परिश्रम) दान, यश, अपयश आदि स्थितियों का कारक परमात्मा अर्थात् आत्मा अर्थात् प्रबंधन क्षेत्र का प्रबंधक ही है। 
गीता में सर्वत्र समत्व योग अंतर्निहित है। ऊपरी दृष्टि से सभी के दोषों का पात्र होना और सब गुणों का कारण होना अंतर्विरोधी प्रतीत होता है किन्तु इन दोनों की स्थिति दिन-रात की तरह है, एक के बिना दूसरा नहीं। दीप के ऊपर प्रकाश और नीचे तमस होगा ही। हमें से प्रत्येक को बाती बनकर तम को जय कर प्रकाश का वाहक बनने का पथ गीता दिखाती है। 
अध्याय 11 श्लोक 33 में श्रीकृष्ण अर्जुन को निमित्त मात्र बताते हैं। प्रबंधक के लिये यह सूत्र आवश्यक है। आसंदी पर बैठकर किये गये कार्यों, लिये गये निर्णयों तथा प्राप्त उपलब्धियों के भार से आसंदी से उठते ही मुक्त होकर घर जाते ही एक-एक पत्र पारिवारिक सदस्यों को दें तो परिवारों का बिखराव खलेगा। होता यह है कि हम घर में कार्यालय और कार्यालय में घर का ध्यान कर दोनों जगह अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाते। यह निमित्त भाव इस चक्रव्यूह को भेदने में समर्थ है। निमित्त भाव की पूर्णता निर्वेद्रता (श्लोक 55) में है। यह अजातशत्रुत्व भाव बुद्ध, महावीर में दृष्टव्य है। 
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-आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ समन्वयम् 204 विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001 salil.sanjiv@gmail.com


प्रबंधन से आशय मानवीय प्रयासों से निर्धारित समय अवधि में इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति करना है। कुछ लोगों की कुछ काल तक उन्नति की पश्चिम प्रणीत प्रबंधकीय अवधारणा व्यक्ति के उन्नयन तथा समाज के कल्याण का लक्ष्य पाने में विफल रही है। गीता के प्रथम अध्याय में विषादग्रस्त अर्जुन की सी मनोदशा का सामना सक्रिय जीवन जी रहे सभी मनुष्यों को कभी न कभी करना पड़ता है। गीता में श्रीकृष्ण दुविधाग्रस्त मनःस्थिति का सामना कर उससे निकलकर लक्ष्य प्राप्ति की राह सुझाते हैं। 
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