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शनिवार, 1 नवंबर 2014

navgeet:

नवगीत :

क्यों प्रतिभा के 
पंख कुतरना चाह रहे हो? 

खुली हवा दो 
कुछ सपने साकार हो सकें 
निराकार हैं जो 
अरमां आकार ले सकें 
माटी ले माटी से  
मूरत नयी गढ़ सकें 
नीति-नियम, आचारों का 
आधार ले सकें 

क्यों घर में कर कैद 
खुदी को दाह रहे हो?

बीता भर लम्बा है 
जीवनकाल तुम्हारा 
कब आये पल 
महाकाल ने लगे गुहारा 
माटी में मिलना ही 
तय है नियति सभी की 
व्यर्थ गुमां क्यों 
दे पाओगे सदा सहारा?
नयन मूंदकर 
ले सागर की थाह रहे हो 

***



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