गीत:
हो कहाँ तुम छिपे बैठे
आओ! भर लूँ बाँह में मैं
मूक लहरें दे रहीं है नील नभ को भी निमंत्रण
सुनें गर्जन घोर शंकित हो रहे संयम किनारे
नियति के जलपोत को तृणवत न कर, कुछ तरस खा रे
उठा तरकश सिंधु ने शर साध छेड़ा आज हँस रण
हो रहा हूँ प्रिय मिलन बिन
आज हुदहुद डाह में मैं
राम! शर संधान से कर शांत दो विक्षुब्ध मम मन
गहूं नीलोफर पुलक मैं मिटा दूँ आतंक सारा
कभी जैसा दशानन ने सिया हरकर था पसारा
द्वारका के द्वार का संकट हरूँ कर अमिय मंथन
भारती की आरती जग,
जग करे हूँ चाह में मैं
***
हो कहाँ तुम छिपे बैठे
आओ! भर लूँ बाँह में मैं
मूक लहरें दे रहीं है नील नभ को भी निमंत्रण
सुनें गर्जन घोर शंकित हो रहे संयम किनारे
नियति के जलपोत को तृणवत न कर, कुछ तरस खा रे
उठा तरकश सिंधु ने शर साध छेड़ा आज हँस रण
हो रहा हूँ प्रिय मिलन बिन
आज हुदहुद डाह में मैं
राम! शर संधान से कर शांत दो विक्षुब्ध मम मन
गहूं नीलोफर पुलक मैं मिटा दूँ आतंक सारा
कभी जैसा दशानन ने सिया हरकर था पसारा
द्वारका के द्वार का संकट हरूँ कर अमिय मंथन
भारती की आरती जग,
जग करे हूँ चाह में मैं
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें