विशेष आलेख:
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
जगवाणी हिंदी को
माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत
छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की
सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी
किया. हिंदी सहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय
अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर
गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक,
साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य,
रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर
बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का
पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से
पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के
प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने
कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास
सफल होगा.
संस्कृत
काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति,
वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही
हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. असंस्कृत साहित्य में
अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति
अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना
गया.
'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.
यत्नोस्यां कविना कार्यः को लं कारो नया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः
डॉ. महेंद्र
भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर
प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों
में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब
और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता
सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना
नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.
शब्दालंकारों की छटा:
डॉ. महेंद्र
भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा
पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को
रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान
प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.
शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.
'मैं तुम्हें
अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे
विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना
नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में
मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में
'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.
एक या अनेक
वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ.
महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स
की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी
मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की
आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते
झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि
इसके जीवंत उदाहरण हैं.
अपेक्षाकृत कम
प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल
नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .
गीतों की काया
को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने.
दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण
को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह
दी' .
इन गीतों में
'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता
है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो
ली.'
महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.
समानार्थी
शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की
हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके
कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.
शब्द की
भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी
की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी
होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी),
'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.
'श्लेष
वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय
बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर
जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद
सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का
समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'
चित्रमूलक
अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा
चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो
चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने
महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद
अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक
अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा
किया है. बानगी देखें:
डॉ. महेंद्र
भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान
दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा
अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर
तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.
प्रस्तुत-अप्रस्तुत
के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से
अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार /
झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम /
श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम
/ दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन
तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका
गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.
रूपक अलंकार
उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी
दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों
में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद
दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख
संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी
चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक
कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे
फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि,
जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष
जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.
डॉ. महेंद्र
भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक
उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी /
अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक
के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'
डॉ. महेंद्र
भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है.
किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति
पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही
जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो
गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन
बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.
कारण के बिना
कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की
व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर
आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.
'तुम्हारे पास
मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है.
यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.
डॉ. महेंद्र
भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक
प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं
होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारन उनके गीतों
में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह,
विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.
'चाँद मेरे!
क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर
छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन
में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को
प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.
स्मरण अलंकार का
प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ
किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि
में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी
तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि
अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.
तत्सम-तद्भव
शब्द-भ्नादर के धनि डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने
में निपुण हैं. इस कारन गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना
स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात
री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया,
स्वर्गिक धन आदि.
सच यह है कि डॉ.
भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के
लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह
असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं
जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम
शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी
सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.
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