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प्रतिनिधि दोहा कोष :9 आचार्य संजीव
इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन, प्रणव भारती, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया, सोहन परोहा 'सलिल', साज़ जबलपुरी तथा श्यामल सुमन के दोहे। आज अवगाहन कीजिए श्री शशिकांत गीते रचित दोहा सलिला में :
*दोहाकार ९ : शशिकांत गीते
*जन्म: मध्य प्रदेश।
आत्मजा : गीते।
शिक्षा: एम. ए. ।
सृजन विधा: गीत, गजल, दोहा आदि।
प्रकाशित कृति: ।
संपर्क: मध्य प्रदेश। चलभाष:
ईमेल:
अपना सब कुछ आज जो, कल जाएगा डूब। प्यासा पानी से मरे, ये किस्सा भी खूब।।
अगुआ सारे व्यस्त हैं, झंझट लेगा कौन। रजधानी में बज रहा, खन-खन करता मौन।।
उस मेधा का क्या हुआ, जिसने खोजी आग। जाने क्यों मद्धिम हुआ, सप्त सुरोंका राग।।
पैसे से पैसा बना, सटका धन्ना सेठ। भूखे, भूखे ही रहे, हाथों टूटी प्लेट।।
पानी तो आया नहीं, डूब गए संबंध। बातों से आने लगी, मार-काट की गंध।।
कैसा रोना- पीटना, कैसा हाहाकार। नई सदी की नींव के, तुम हो पत्थर यार।।
सूख गई है ”मांजरी”, कटे किनारे पेड। प्यास किनारे पर पडी़, उठती हृदय घुमेड़।।
सड़कें ही क्या जिन्दगी, अपनी खस्ता हाल। पानी, बिजली, भूख के, थक कर चूर सवाल।।
खेतों में फसलें नहीं, भूखे-प्यासे पेट। इंद्रदेव जी, बाँध का, जल्दी खोलो गेट।।
जंगल चोरी हो रहे, नदियाँ अपहृत ईश। राजधानी में जम गये, दल-बल सहित कपीश।।
लोकतंत्र के नाम पर, कम्प्यूटर-रोबोट। बटन दबे औ छापते, पट-पट अपने वोट।।
घाटी में रहना यहाँ, घट्टी में ज्यों बीज। घुन बेचारा पिस रहा, नहीं पास तजबीज।।
हर वातायन बंद है, हवा हुई है कुंद। भीतर तक गहरा गई, इक जहरीली धुंध।।
पतवारें हैं छोड़ दी, हाथों में बंदूक। धारा पर नजरें नहीं, कैसी बीहड़ चूक।।
जिनसे हम हैं डर रहे, अपने जैसे लोग। हम तो फिर भी स्वस्थ हैं, उनको कितने रोग।।
बडा़ कठिन है तैरना, धारा के विपरीत। कूडा़ बहता धार में, तू धारा को जीत।।
शरद पूर्णिमा चाँदनी, है चकोर मन खिन्न। धूप- चाँदनी के असर, नहीं रह गए भिन्न।।
चीजें क्या, जीवन यहाँ, नहीं रह गया शुद्ध। भ्रमित, अबोधी, मोह में, बने घूमते बुद्ध।।
सोन चिरैया दाब कर, खूनी पंजों बाज। अंधकार के देश को, उड़ता बे आवाज।।
जो कहते थकते नहीं, चलना सीखो साथ। मौका आते ही वही, पहले छोड़ें हाथ।।
जीवन के हर युद्ध में, वे ही रहते खेत। अलग-अलग जीवन जियें, भले रहें समवेत।।
शरद पूर्णिमा चाँदनी, है चकोर मन खिन्न। धूप-चाँदनी के असर, नहीं रह गए भिन्न।।
चीजें क्या, जीवन यहाँ, नहीं रह गया शुद्ध। भ्रमित, अबोधी, मोह में, बने घूमते बुद्ध।।
सोन चिरैया दाब कर, खूनी पंजों बाज। अंधकार के देश को, उड़ता बेआवाज।।
असली मंजिल दूर है, अब तो मानुष चेत। मूँगे-मोती के लिये, छोड़ छानना रेत।।
तट पर यदि मोती मिलें, हो कौडी़ के तीन। गहराई की साधना, फिर क्यों करते दीन।।
रोटी सूरज-चंद्रमा, रोटी ही जगदीश। गोदामों में कै़द हैं, कैसे अपने ईश।।
ईर्ष्या है मकडा़ बडा़, फाँसे मानुष जाल। हड्डी तक चूसे मुआ, रहने दे बस खाल।।
अनुभव से ही कह रहा, नहीं किताबी बात। काम, क्रोध, मद, मोह, तो, विषधर की ही जात।।
कह दूँ आखिर लोभ तो, भैरव जी का पेट। जितनी डालो कम पडे़, पैगोंवाली भेंट।।
राखी धागा सूत का, पक्का जैसे तार। पावनता निस्सीम है, दुनिया भर का प्यार।।
घड़ी देखकर ताकती, बहना अपलक द्वार। भैया चाहे व्यस्त हों, आएँगे इस बार।।
अम्मा-बापू चल बसे, भैया का परिवार। भौजी ने बदला सभी, मैकेका व्यवहार।।
जात-पात, छोटा-बड़ा, नहीं धरम अरु नेम। सिखा हुमायूँ भी गया, बहन-भ्रात का प्रेम।।
बहना प्यारी मित्र है, है माँ का प्रतिरूप। गरमी में छाया घनी, सरदी में है धूप।।
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