संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है? – डॉ.मृदुल कीर्ति
बीजं माम सर्व भूतानाम ———–गीता ७/१०
सब प्राणियों का अनादि बीज मुझे ही जान.
आठ भेदों वाली– पञ्च तत्त्व, मन, बुद्धि, अहम्
यह मेरी अपरा प्रकृति है.–गीता ७–४/५
पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में ही इस जिज्ञासा के
सूत्र छिपे हैं
कि संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है?
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पांच स्थूल तत्व हैं.
रूप ,गंध, रस,स्पर्श और ध्वनि यह पांच इनकी तन्मात्राएँ हैं.
इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं.
इन पाँचों तत्वों में आकाश का ध्वनि तत्व अन्य सभी तत्वों में समाहित
है.
आकाश सर्वत्र है, क्योंकि ज्यों-ज्यों जड़ता घटती है,
त्यों-त्यों गति उर्ध्व गामी होती है.
आकाश की तन्मात्रा ( निहित विशेषता ) नाद है.
नाद अर्थात ध्वनि, ध्वनि अर्थात स्वर.संस्कृत में ‘र’ का अर्थ प्रवाह होता है,
‘स्व’ अर्थात अपना मूल तत्त्व. ‘नाद’ आकाश की तन्मात्रा है
जो
आकाश की मूल तत्व शक्ति है, अपना मूल ध्वनि प्रवाह है.
अतः आदि शक्ति का स्वर स्रोत, भूमा की ध्वनि है,
तब ही उद्घोषित है कि ‘नाद ही ब्रह्म है.’
नाद –आकाश की वह तन्मात्रा है,
जो ब्रह्म की तरह ही शाश्वत, विराट, अगम्य, अथाह और आत्म-भू है.
आकाश सर्वत्र है अतः नाद भी
सर्वत्र है.
वाणी — नाद- शक्ति, ही वाणी की ऊर्जा है और वाणी का सार्थक रूप
शब्दों में ही रूपांतरित होता है.
शब्द अक्षरों से बने हैं..
अतः मन जिज्ञासु होता है कि अक्षरों का मूल स्रोत्र क्या है?
अक्षरों का मूल स्रोत
वासुदेव का उदघोष
“अक्षरानामकारोस्मि” —-गीता १०/ ३३
अक्षरों में अकार मैं ही हूँ और बिना आखर के
शब्द संसार की रचना नहीं हो सकती.
कदाचित अक्षर नाम इसीलिये हुआ कि
‘क्षर’ (नाश) ‘अ’ (नहीं) जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है.
अतः बोला हुआ कुछ भी नाश नहीं होता.
सो जैसे ब्रह्म
अविनाशी है वैसे ही अक्षर भी अविनाशी हैं.
अतः ” शब्द और ब्रह्म” सहोदर है गर्भा शब्द
ब्रह्मा की नाभी से अक्षरों का निःसृत माना जाना इसी तथ्य की पुष्टि है.
देह
विज्ञान और आध्यात्म संयोजन के बिंदु संयोजन की जब बात होती है तो मूलाधार
से सहस्त्रधार तक के बिन्दुओं में तीसरा बिंदु ‘मणिपुर’ क्षेत्र का है,
जो ‘नाभी’ से प्रारंभ होता है. नाभी क्षेत्र
दिव्य ऊर्जा से पूर्ण है और सृजन का भी स्रोत बिंदु है.
गर्भस्थ शिशु को भोजन नाभि से ही मिलता है.
वेदों में मूल स्रोत्र के सन्दर्भ में “हिरण्य गर्भा ” शब्द प्रयुक्त हुआ है.
ब्रह्मा की नाभी से निःसृत होने का यही संकेत है.
यहीं
पर ‘कुण्डलिनी’ है जो अनंत दिव्य मणियों से पूरित है.
यहीं से आखर का उच्चारण भी आरम्भ होता है.
पुष्टि के लिए आप ‘अ ‘ अक्षर का उच्चारण करें तो
‘नाभि’ क्षेत्र स्पंदित होता है.
नाभि क्षेत्र को छुए बिना आप ‘अ ‘ बोल ही नहीं सकते. अतः
‘अकारो विष्णु रूपात’
स्वयं
सिद्ध है.
अ से म तक की अक्षर यात्रा ही ‘ओम’ का बोध कराती है,
क्योंकि ‘ओइम’ में व्योम की सारी नाद शक्ति समाहित है.
सबसे अधिक ध्यान योग्य तथ्य है कि ओम के कोई रूप नहीं होते.
परब्रह्म के एकत्व का प्रमाण भाषा विज्ञानं के माध्यम से भी है.
बिना अकार के कोई अक्षर नहीं होता
अर्थात बिनाब्रह्म शक्ति के किसी आखर का अस्तित्व नहीं है.
आप ‘क’ बोलें तो वह क +अ = क ही है.
यही ‘ अक्षरों में ब्रह्म के अस्तित्व की अकार रूप में प्रमाणिकता है.
अक्षरों का प्राण तत्व ब्रह्म ही है.
यही वह बिंदु है जहॉं से वेद निःसृत हुए है
क्योंकि नाद का श्रुति से
सम्बन्ध है और हम श्रुति परंपरा के वाहक भी तो हैं.
ब्रह्मा द्वारा ऋषि मुनियों को ध्वनि संचेतना से ही ज्ञान संवेदित हुए.
ये अनुभूति क्षेत्र की उर्जा से ही अनुभव में उजागर होकर
वाणी द्वारा व्यक्त हुए.
पाणिनि अष्टाध्यायी में लिखा है कि ‘पाणिनी व्याकरण’ शिव ने उपदिष्ट की थी.
‘वेद’ सुनकर ही तो हम तक आये हैं. तब ही वेदों को श्रुति’ भी कहते है.
जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही वाणी भी अविनाशी है.
तब ही उपदिष्ट किया जाता है कि ‘दृष्टि, वृत्ति और वाणी ‘ सब प्रभु में जोड़ दो,
क्योकि वाणी कई जन्मों तक पीछा करती है.
वाणी की प्रतिक्रिया से प्रारब्ध भी बनते है,
इसकी ऊर्जा से वर्तमान और भविष्य भी बनते हैं.
संस्कृत भाषा की विशेषताएं
संस्कृत भाषा का मूल भी दिव्यता से ही निःसृत है.——————-
सम और कृत दो शब्दों के योग से संस्कृत शब्द बना है.
सम का अर्थ सामायिक अर्थात हर काल, युग में
एक सी ही रहने वाली.विधा. समय के प्रभाव से
परे
अर्थात कितना ही काल बीते इसके मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं होता.
जो स्वयं में ही पूर्ण और सम्पूर्ण है. कृ क्रिया ‘कृत’ के लिए प्रयुक्त हुआ है.
संस्कृत में सोलह स्वर और छत्तीस व्यंजन हैं.
ये जब से उद्भूत हुए तब से अब तक इनमें अंश भर भी परिवर्तन नहीं हुए हैं.
सारी वर्ण
माला यथावत ही है.
मूल धातु (क्रिया) में कोई परिवर्तन नहीं होता
यह बीज रूप में सदा मूल रूप में ही प्रयुक्त होती है.
जैसे ‘भव’ शब्द है सदा भव ही रहेगा,
पहले और बाद में शब्द लग सकते हैं जैसे अनुभव , संभव , भवतु आदि.
संस्कृत व्याकरण में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता.
जैसे ब्रह्म अविनाशी वैसे ही संस्कृत भी अविनाशी है.
नाद की परिधि में आते ही ‘अक्षर’ ‘अक्षर’ हो जाते हैं,
महाकाश में समाहित ब्रह्ममय हो जाते हैं.
सूक्ष्म और तत्व मय हो जाते हैं.
इस पार गुरुत्वमय तो उस पार तत्वमय ,
नादमय और ब्रह्ममय क्षेत्र का पसारा है.
डॉ.मृदुल कीर्ति
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