मुक्तक सलिला :
संजीव
*
*
करे असत की नित्य वकालत झूठ घोर अन्याय
चोरी-सीनाजोरी हर दिन लिखे नया अध्याय
पहले मारे सैनिक फिर पारित निंदा प्रस्ताव-
पाकिस्तान बना रावण-दुर्योधन का पर्याय
*
शिष्टाचार भूलकर करते अन्यों को आरोपित
संसद से सद्भाव-सत्य भी होते 'सलिल' विलोपित
सेवा का ले नाम, पा रहे मेवा हँस अपराधी-
अशालीन हो मूर्ख करें शालीनों को संबोधित
*
हाय सियासत! किया देश का तूने बन्टाढार
येन-केन हर कोई चाहता बना सके सरकार
एक अंगुली औरों पर तीन तुझी पर उठतीं, देख-
सोच न क्या तुझको सुधार की है तत्क्षण दरकार
*
अशालीन आक्रोश न घर खुद का रख सके सुरक्षित
वही जिए जो सत-संयम पर खुद को करे परीक्षित
'सलिल' शब्द है ब्रम्ह, पूजिए तब जब सच पहिचानें-
दम्भ विद्वता का कर दम्भी होता सदा उपेक्षित
*
ऐसी जीत न देना ईश्वर, जिसमें सच की हार
सत्य-विजय हित, हार करे नर-नाहर हँस स्वीकार
कथ्य भाव रस बिम्ब छंद को आत्मार्पित कर धन्य-
'सलिल' हो सके, दैव! सदय मन-मन्दिर दे उजियार
*
हे अनाम! मैं अंश तुम्हारा, जग देता है नाम
सुख-संतोष न पाने देता, कहता है कर काम
कोरी चादर पर डाले है पल-पल अनगिन रंग-
ज्यों की त्यों रख सका न तू ,कह यही करे बदनाम
*
संजीव
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श्री प्रकाश की दीप्ति तिमिर का अंत करेगी सत्य यही
अहम् न चिर स्थाई होता, कहती धरती महामही
हो सचेत कर रही गगन भू समुद गगन को एक सतत
बहती सलिल धार रह निर्मल, कही कुसुम ने कथा यही
*
क्या होगा बदलाव, नाग जायें आयेंगे साँप
क्या होगा बदलाव, नाग जायें आयेंगे साँप
सोच-सोच कर सलिल-कलेजा बेबस जाता काँप
दल का तंत्र समाप्त बन सके राष्ट्रीय सरकार-
शायद तब ही लोकतंत्र की हो पाए जयकार *
करे असत की नित्य वकालत झूठ घोर अन्याय
चोरी-सीनाजोरी हर दिन लिखे नया अध्याय
पहले मारे सैनिक फिर पारित निंदा प्रस्ताव-
पाकिस्तान बना रावण-दुर्योधन का पर्याय
*
शिष्टाचार भूलकर करते अन्यों को आरोपित
संसद से सद्भाव-सत्य भी होते 'सलिल' विलोपित
सेवा का ले नाम, पा रहे मेवा हँस अपराधी-
अशालीन हो मूर्ख करें शालीनों को संबोधित
*
हाय सियासत! किया देश का तूने बन्टाढार
येन-केन हर कोई चाहता बना सके सरकार
एक अंगुली औरों पर तीन तुझी पर उठतीं, देख-
सोच न क्या तुझको सुधार की है तत्क्षण दरकार
*
अशालीन आक्रोश न घर खुद का रख सके सुरक्षित
वही जिए जो सत-संयम पर खुद को करे परीक्षित
'सलिल' शब्द है ब्रम्ह, पूजिए तब जब सच पहिचानें-
दम्भ विद्वता का कर दम्भी होता सदा उपेक्षित
*
ऐसी जीत न देना ईश्वर, जिसमें सच की हार
सत्य-विजय हित, हार करे नर-नाहर हँस स्वीकार
कथ्य भाव रस बिम्ब छंद को आत्मार्पित कर धन्य-
'सलिल' हो सके, दैव! सदय मन-मन्दिर दे उजियार
*
हे अनाम! मैं अंश तुम्हारा, जग देता है नाम
सुख-संतोष न पाने देता, कहता है कर काम
कोरी चादर पर डाले है पल-पल अनगिन रंग-
ज्यों की त्यों रख सका न तू ,कह यही करे बदनाम
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