ग़ज़ल :
क्या करेंगे....
आनन्द पाठक,जयपुर
जो मिले अनुदान रिश्वत में बँटे है
फ़ाइलों में चल रही परियोजनाएं
रोशनी के नाम दरवाजे खुले हैं
हादसों की बढ़ गई संभावनाएं
पत्थरों के शहर में कुछ आइनें हैं
डर सताता है कहीं वो बिक न जाएं
आप की हर आहटें पहचानते हैं
जब कभी जितना दबे भी पाँव आएं
चाहता है जब कहे वो बात कोई
बेझिझक हम ’हाँ’ में उसकी ’हाँ’ मिलाएं
वो इशारों से नहीं समझेगा ’आनन’
जब तलक आवाज न अपनी बढ़ाएं
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