सम्भोग से समाधि तक
*************** संभोग एक शब्द या एक स्थिति या कोई मंतव्य विचारणीय है ......... सम + भोग समान भोग हो जहाँ अर्थात बराबरी के स्तर पर उपयोग करना अर्थात दो का होना और फिर समान स्तर पर समाहित होना समान रूप से मिलन होना भाव की समानीकृत अवस्था का होना वो ही तो सम्भोग का सही अर्थ हुआ फिर चाहे सृष्टि हो वस्तु हो , मानव हो या दृष्टि हो जहाँ भी दो का मिलन वो ही सम्भोग की अवस्था हुयी समाधि सम + धी (बुद्धि ) समान हो जाये जहाँ बुद्धि बुद्धि में कोई भेद न रहे कोई दोष दृष्टि न हो निर्विकारता का भाव जहाँ स्थित हो बुद्धि शून्य में स्थित हो जाये आस पास की घटित घटनाओं से उन्मुख हो जाये अपना- पराया मेरा -तेरा ,राग- द्वेष अहंता ,ममता का जहाँ निर्लेप हो एक चित्त एक मन एक बुद्धि का जहाँ स्तर समान हो वो ही तो है समाधि की अवस्था सम्भोग से समाधि कहना कितना आसान है जिसे सबने जाना सिर्फ स्त्री पुरुष या प्रकृति और पुरुष के सन्दर्भ में ही उससे इतर न देखना चाहा न जानना गहन अर्थों की दीवारों को भेदने के लिए जरूरी नहीं शस्त्रों का ही प्रयोग किया जाए कभी कभी कुछ शास्त्राध्ययन भी जरूरी हो जाता है कभी कभी कुछ अपने अन्दर झांकना भी जरूरी हो जाता है क्योंकि किवाड़ हमेशा अन्दर की ओर ही खुलते हैं बशर्ते खोलने का प्रयास किया जाए जब जीव का परमात्मा से मिलन हो जाये या जब अपनी खोज संपूर्ण हो जाए जहाँ मैं का लोप हो जाए जब आत्मरति से परमात्म रति की और मुड जाए या कहिये जीव रुपी बीज को उचित खाद पानी रुपी परमात्म तत्व मिल जाए और दोनों का मिलन हो जाए वो ही तो सम्भोग है वो ही तो मिलन है और फिर उस मिलन से जो सुगन्धित पुष्प खिले और अपनी महक से वातावरण को सुवासित कर जाए या कहिये जब सम्भोग अर्थात मिलन हो जाये तब मैं और तू का ना भान रहे एक अनिर्वचनीय सुख में तल्लीन हो जाए आत्म तत्व को भी भूल जाए बस आनंद के सागर में सराबोर हो जाए वो ही तो समाधि की स्थिति है जीव और ब्रह्म का सम्भोग से समाधि तक का तात्विक अर्थ तो यही है यही है यही है काया के माया रुपी वस्त्र को हटाना आत्मा का आत्मा से मिलन एकीकृत होकर काया को विस्मृत करने की प्रक्रिया और अपनी दृष्टि का विलास ,विस्तार ही तो वास्तविक सम्भोग से समाधि तक की अवस्था है मगर आम जन तो अर्थ का अनर्थ करता है बस स्त्री और पुरुष या प्रकृति और पुरुष की दृष्टि से ही सम्भोग और समाधि को देखता है जबकि दृष्टि के बदलते बदलती सृष्टि ही सम्भोग से समाधि की अवस्था है ब्रह्म और जीव का परस्पर मिलन और आनंद के महासागर में स्वयं का लोप कर देना ही सम्भोग से समाधि की अवस्था है गर देह के गणित से ऊपर उठ सको तो करना प्रयास सम्भोग से समाधि की अवस्था तक पहुंचने का तन के साथ मन का मोक्ष यही है यही है यही है जब धर्म जाति , मैं , स्त्री पुरुष या आत्म तत्व का भान मिट जाएगा सिर्फ आनंद ही आनंद रह जायेगा वो ही सम्भोग से समाधि की अवस्था हुयी जीव रुपी यमुना का ब्रह्म रुपी गंगा के साथ सम्भोग उर्फ़ संगम होने पर सरस्वती में लय हो जाना ही आनंद या समाधि है और यही जीव , ब्रह्म और आनंद की त्रिवेणी का संगम ही तो शीतलता है मुक्ति है मोक्ष है सम्भोग से समाधि तक के अर्थ बहुत गहन हैं सूक्ष्म हैं मगर हम मानव न उन अर्थों को समझ पाते हैं और सम्भोग को सिर्फ वासनात्मक दृष्टि से ही देखते हैं जबकि सम्भोग तो वो उच्च स्तरीय अवस्था है जहाँ न वासना का प्रवेश हो सकता है गर कभी खंगालोगे ग्रंथों को सुनोगे ऋषियों मुनियों की वाणी को करोगे तर्क वितर्क तभी तो जानोगे इन लफ़्ज़ों के वास्तविक अर्थ यूं ही गुरुकुल या पाठशालाएं नहीं हुआ करतीं गहन प्रश्नो को बूझने के लिए सूत्र लगाये जाते हैं जैसे वैसे ही गहन अर्थों को समझने के लिए जीवन की पाठशाला में अध्यात्मिक प्रवेश जरूरी होता है तभी तो सूत्र का सही प्रतिपादन होता है और मुक्ति का द्वार खुलता है यूँ ही नहीं सम्भोग से समाधि तक कहना आसान होता है ******** |
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 29 अप्रैल 2013
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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