सरस रचना:
मधुर मिलन
कुसुम वीर
*
नीलवर्ण आकाश अपरिमित
सिंध कंध आनन अति शोभित
निरख रहा नीरव नयनों से
सौन्दर्य धरा का हरित सुषमित
हरित धरा की सौंधी खुशबू
सुरभित गंध विकीर्ण हुई
नीलाभ्र गगन की आभा में
पुलकित होकर वह विचर रही
प्रकृति के प्रांगण में हरपल
भाव तरंगें उमड़ रहीं
पलकों पर अगणित स्वप्न सजा
मन आँगन में थीं जा बैठीं
कल्पना के स्वर्णिम रंगों से
नव चित्र उकेर वो लाई थी
जगती के अनगिन रूपों में
शुभ्र छटा बिखराई थी
दूर गगन था निरख रहा
धरती की निश्छल सुन्दरता
धरा मिलन को आतुर हो
उमगाता था कुछ जी उसका
तृषित नयन से निरख रहा
भू का स्वर्णिम नूतन निखार
मौन निमंत्रण धरा मिलन को
करता था वो भुज पसार
छोड़ अहम् को गगन तभी
मन विहग उड़ा जा क्षितिज अभी
धरा मिलन को आतुर हो
व्योम छोड़ कर गया जभी
देख क्षितिज में मधुर मिलन
द्युतिमय हो गया सकल भू नभ
श्यामल रक्तिम सी आभा में
सारी सृष्टि हो गई मगन
अहंकार टूटा था नभ का
प्रेम - प्रीति की रीति मे
बांध सका है किसको कोई
दंभ पाश की नीति में
------------------------------ --------------
"Kusum Vir" <kusumvir@gmail.com>
सिंध कंध आनन अति शोभित
निरख रहा नीरव नयनों से
सौन्दर्य धरा का हरित सुषमित
हरित धरा की सौंधी खुशबू
सुरभित गंध विकीर्ण हुई
नीलाभ्र गगन की आभा में
पुलकित होकर वह विचर रही
प्रकृति के प्रांगण में हरपल
भाव तरंगें उमड़ रहीं
पलकों पर अगणित स्वप्न सजा
मन आँगन में थीं जा बैठीं
कल्पना के स्वर्णिम रंगों से
नव चित्र उकेर वो लाई थी
जगती के अनगिन रूपों में
शुभ्र छटा बिखराई थी
दूर गगन था निरख रहा
धरती की निश्छल सुन्दरता
धरा मिलन को आतुर हो
उमगाता था कुछ जी उसका
तृषित नयन से निरख रहा
भू का स्वर्णिम नूतन निखार
मौन निमंत्रण धरा मिलन को
करता था वो भुज पसार
छोड़ अहम् को गगन तभी
मन विहग उड़ा जा क्षितिज अभी
धरा मिलन को आतुर हो
व्योम छोड़ कर गया जभी
देख क्षितिज में मधुर मिलन
द्युतिमय हो गया सकल भू नभ
श्यामल रक्तिम सी आभा में
सारी सृष्टि हो गई मगन
अहंकार टूटा था नभ का
प्रेम - प्रीति की रीति मे
बांध सका है किसको कोई
दंभ पाश की नीति में
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"Kusum Vir" <kusumvir@gmail.com>
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