कविता
मानोशी चटर्जी
*
मैं जब शाख़ पर घर बसाने की बात करती हूँ
पसंद नहीं आती
उसे मेरी वह बात,
जब आकाश में फैले
धूप को बाँधने के स्वप्न देखती हूँ,
तो बादलों का भय दिखा जाता है वह,
उड़ने की ख़्वाहिश से पहले ही
वह चुन-चुन कर मेरे पंख गिनता है,
धरती पर भी दौड़ने को मापता है पग-पग,
और फिर जब मैं भागती हूँ,
तो पीछे से आवाज़ देता है,
मगर मैं नहीं सुनती
और अकेले जूझती हूँ...
पहनती हूँ दोष,
ओढ़ती हूँ गालियाँ,
और फिर भी सर ऊँचा कर
खु़द को पहचानने की कोशिश करती हूँ
क्या वही हूँ मैं?
चट्टान, पत्थर, दीवार ...
अब कुछ असर नहीं करता...
मगर मैंने तय किये हैं रास्ते
पाई है मंज़िल
जहाँ मैं उड़ सकती हूँ,
शाख़ पर घर बसाया है मैंने
और धूप मेरी मुट्ठी में है...
Manoshi Chatterjee <cmanoshi@gmail.com>
2 टिप्पणियां:
kusumvir@gmail.com
बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है आपने मानोशी जी,
बधाई l
सस्नेह,
कुसुम वीर
achal verma
प्रिय मानोशी जी,
अब आप मुठी खोलें और धूप को
चारो ओर निखर जाने दें । आप की कविता सचमुच ही
बहुत आकर्षक बन पडी है और भावों की गहराई देखते ही बनती है ।
ऐसे ही लिखती रहें और भी जल्दी जल्दी मंच पर आ सकें तो
चार चाँद लग जाए यहाँ पर॥
अचल
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