नवगीत:
गाए राग वसंत
ओमप्रकाश तिवारी
चेहरा पीला आटा गीला
मुँह लटकाए कंत,
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाए राग वसंत ।
मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में
कब बेबात छिने ;
सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएं
शाम तलक श्रीमंत ।
चीनी साठ दाल है सत्तर
चावल चढ़ा बाँस के उप्पर
वोट माँगने सब आए थे
अब दिखता न कोई पुछत्तर;
चने हुए अब तो लोहे के
काम करें ना दंत ।
नेता अफसर और बिचौले
यही तीन हैं सबसे तगड़े
इनसे बचे-खुचे खा जाते
भारत में भाषा के झगड़े ;
साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।
मुँह लटकाए कंत,
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाए राग वसंत ।
मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में
कब बेबात छिने ;
सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएं
शाम तलक श्रीमंत ।
चीनी साठ दाल है सत्तर
चावल चढ़ा बाँस के उप्पर
वोट माँगने सब आए थे
अब दिखता न कोई पुछत्तर;
चने हुए अब तो लोहे के
काम करें ना दंत ।
नेता अफसर और बिचौले
यही तीन हैं सबसे तगड़े
इनसे बचे-खुचे खा जाते
भारत में भाषा के झगड़े ;
साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।
2 टिप्पणियां:
निम्न पंक्तियों में ही देश के हालात का सटीक वर्णन है...
साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।
अच्छी रचना, शुभकामनाएँ.
सुन्दर चित्र खीन्चा है तिवारी जी ने इस वासन्ती कविता में । साठ बरस के लोक तंत्र में मंहगाई के सिवा और कोई उपलब्धि तो नज़र आती नही ।
कमल
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