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गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

रचना-प्रति रचना: राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल

रचना-प्रति रचना
राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल
*

यह अब हमको नहीं गवारा 

राकेश खंडेलवाल

*

जो पगडंडी ह्रदय कुंज से ,बन्द हुये द्वारे तक जाती
उस पर चिह्न पड़ें कदमों के यह अब हमको नहीं गवारा
अजनबियत की गहन धुंध ने ओढ़ लिया है जिन चेहरों ने
उनके अक्स नहीं अब मन के आईने में बनें दुबारा
सम्बन्धों के वटवृक्षों की जड़ें खोखली ही निकलीं वे
रहे सींचते निशा दिवस हम जिनको प्रीत-नीर दे देकर
सूख चुकीं शाखाओं को पुष्पित करने को कलमें रोपीं
व्यर्थ भटकना हुआ रहे ज्यों मरुथल में नौकायें खे कर
पता नहीं था हमें बाग यह उन सब को पी चुप रहता है
भावों के जिन ओस कणों से हमने इसका रूप संवारा
छिली हथेली दस्तक देते देते बन्द पड़े द्वारे पर
देहरी पर जाकर के बैठी रहीं भावनायें बंजारी
झोली का सूनापन बढ़ता निगल गया फ़ैली आंजुरिया
और अपेक्षा, ओढ़ उपेक्षा रही मारती मन बेचारी
चाहे थी अनुभूति चाँदनी बन आगे बढ़ कंठ लगाये
किन्तु असंगति हठी ही रही उसने बार बार दुत्कारा
उचित नहीं है हुये समाधिस्थों को छेड़े जा कोई स्वर
जिसने अंगीकार किया है एकाकीपन, हो एकाकी
अपनी सुधियों के प्याले से हम वह मदिरा रिक्त कर चुके
भर कर गई जिसे अहसासों की गगरी ले कर के साकी
वह अनामिका की दोशाला, जिस पर कोई पता नहीं है
पहुँच कहो कैसे सकता अब उस तक कोई भी हरकारा.
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मुक्तिका:
तार रहा जो...
संजीव 'सलिल'
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तार रहा जो सारी दुनिया, क्या उसको भी तिर-तरना है?
लुटा रहा जो मुक्त हस्त, क्या शेष अशेष उसे धरना है??
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जो पगडंडी हृदय कुञ्ज के रुद्ध द्वार तक पहुँच न पाती.
उस मग पर पग बार-बार रख, कदमों को मंजिल वरना है..
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ओढ़ अपरिचय का कोहरा जो अन्तर्यामी दूर दृष्टि से,
दूर दृष्टि रख काव्य कलश में, बिम्ब आस्था का भरना है..
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संबंधों के वट प्रतिबंधों की दीमक खोखला कर रही.
स्नेहिल अनुबंधों की औषधि, दे जग हरियाला करना है..
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जीवन जीने की चिंता में पल-पल मरना त्याग सकें हम.
मरणधर्मियों को हँस-हँसकर अजर-अमर हो जी-मरना है.
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अँजुरी में चाँदनी लिये हम, उषा-गाल पर मल आये हैं.
प्यास-हास का आस-दीप अब संध्या के द्वारे बरना है..
*
मिलन-निशा को नशा मिलन का, शरद पूर्णिमा कर देता है.
सुधियों को अमरत्व न दे, पल-पल नवजीवन वापरना है..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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