एक कविता:
शब्द-अर्थ के भाव सागर में...
संजीव 'सलिल'
*
शब्द-अर्थ के भवसागर में कलम-तरणि ले छंद तैरते.
शिल्प-घाट पर भाव-तरंगों के वर्तुल शत सिकुड़-फैलते.
कथ्यों की पतवार पकड़कर, पात्र न जाने क्या कुछ कहते.
नवरस कभी हँसा देते हैं, कभी नयन से आँसू बहते.
घटना चक्र नचाता सबको, समय न रहता कभी एक सा.
पर्वत नहीं सहारा देता, तिनका करता पार नेंक सा.
कवि शब्दों के अर्थ बदलकर, यमक-श्लेष से काव्य सजाते.
रसिकजनों को अलंकार बिन, काव्य-कथन ही नहीं सुहाते..
गया दवाखाना डॉक्टर पर, भूल दवाखाना जाता है.
बाला बाला के कानों में, सजता सबके मन भाता हैं..
'अश्वत्थामा मरा' द्रोण ने, सुना द्रोण भर अश्रु बहाये.
सर काटा सर किया युद्ध, हरि दाँव चलें तो कौन बचाये?
बीन बजाता काल सपेरा, काम कामिनी पर सवार है.
नहीं रही निष्काम कामना, बीन कर्मफल हुई हार है.
जड़कर जड़ पत्थर सोने में, सोने की औषधि खाते है.
जाग न पाते किन्तु जागकर, पानी-पानी हो जाते हैं.
नहीं आँख में पानी बाकी, नित पानी बर्बाद कर रहे.
वृक्षारोपण कहते हैं पर, पौधारोपण सतत कर रहे.
है 'दिवाल' हिन्दी भाषा की, अंग्रेजी में भी 'दि वाल' ही.
ढाल ढाल बचना चाहा पर, फिसल ढाल पर हैं निढाल ही.
शब्द-अर्थ का सागर गहरा, खाना खा ना हो छलता है.
अर्थ अर्थ बिन कर अनर्थ, संझा का सूरज बन ढलता है.
ताना ताना अगर अधिक तो, बाना सहज न रह पाता है.
बाना बाँटे मौन कबीरा, सुने कबीरा सह जाता है.
हो नि:शब्द हर शब्द बोलता, दिनकर दिन कर मुस्काता है.
शेष डोलता पल भर भी यदि, शेष न कुछ भी रह पाता है..
हर विधि से हर दिन ठगता जग, विधि-हरि-हर हो मौन देखते.
भोग चढ़ा कर स्वयं खा रहे, क्या निज करनी कभी लिखते?
अर्थ बदलते शब्दों के तब, जब प्रसंग परिवर्तित होते.
'सलिल'-धार से प्यास बुझाते, कभी फिसलकर खाते गोते.
***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
शब्द-अर्थ के भाव सागर में...
संजीव 'सलिल'
*
शब्द-अर्थ के भवसागर में कलम-तरणि ले छंद तैरते.
शिल्प-घाट पर भाव-तरंगों के वर्तुल शत सिकुड़-फैलते.
कथ्यों की पतवार पकड़कर, पात्र न जाने क्या कुछ कहते.
नवरस कभी हँसा देते हैं, कभी नयन से आँसू बहते.
घटना चक्र नचाता सबको, समय न रहता कभी एक सा.
पर्वत नहीं सहारा देता, तिनका करता पार नेंक सा.
कवि शब्दों के अर्थ बदलकर, यमक-श्लेष से काव्य सजाते.
रसिकजनों को अलंकार बिन, काव्य-कथन ही नहीं सुहाते..
गया दवाखाना डॉक्टर पर, भूल दवाखाना जाता है.
बाला बाला के कानों में, सजता सबके मन भाता हैं..
'अश्वत्थामा मरा' द्रोण ने, सुना द्रोण भर अश्रु बहाये.
सर काटा सर किया युद्ध, हरि दाँव चलें तो कौन बचाये?
बीन बजाता काल सपेरा, काम कामिनी पर सवार है.
नहीं रही निष्काम कामना, बीन कर्मफल हुई हार है.
जड़कर जड़ पत्थर सोने में, सोने की औषधि खाते है.
जाग न पाते किन्तु जागकर, पानी-पानी हो जाते हैं.
नहीं आँख में पानी बाकी, नित पानी बर्बाद कर रहे.
वृक्षारोपण कहते हैं पर, पौधारोपण सतत कर रहे.
है 'दिवाल' हिन्दी भाषा की, अंग्रेजी में भी 'दि वाल' ही.
ढाल ढाल बचना चाहा पर, फिसल ढाल पर हैं निढाल ही.
शब्द-अर्थ का सागर गहरा, खाना खा ना हो छलता है.
अर्थ अर्थ बिन कर अनर्थ, संझा का सूरज बन ढलता है.
ताना ताना अगर अधिक तो, बाना सहज न रह पाता है.
बाना बाँटे मौन कबीरा, सुने कबीरा सह जाता है.
हो नि:शब्द हर शब्द बोलता, दिनकर दिन कर मुस्काता है.
शेष डोलता पल भर भी यदि, शेष न कुछ भी रह पाता है..
हर विधि से हर दिन ठगता जग, विधि-हरि-हर हो मौन देखते.
भोग चढ़ा कर स्वयं खा रहे, क्या निज करनी कभी लिखते?
अर्थ बदलते शब्दों के तब, जब प्रसंग परिवर्तित होते.
'सलिल'-धार से प्यास बुझाते, कभी फिसलकर खाते गोते.
***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
13 टिप्पणियां:
vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० ‘सलिल’ जी,
नहीं आँख में पानी बाकी, नित पानी बर्बाद कर रहे.
वृक्षारोपण कहते हैं पर, पौधारोपण सतत कर रहे. .....बहुत खूब !
इस अच्छी रचना के लिए बधाई ।
विजय
- pranavabharti@gmail.com की छवियां हमेशा प्रदर्शित करें
आ. आचार्य जी ,
शब्द -अर्थ की रचना का यह संसार निराला है ,
बहुत खूब है रचना जिसको कि शब्दों में ढाला है |
सारगर्भित रचना हेतु साधुवाद स्वीकार करें |
कृपया अन्यथा न लीजिएगा ,
( भोग चढ़ा कर स्वयं खा रहे ,क्या निज करनी कभी लिखते ?)
कृपया इस बंद पर ध्यान दीजिएगा |
सादर क्षमा सहित
प्रणव भारती
क्षण करें 'लेखते' के स्थान पर 'लिखते' टंकित हो गया. त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित करने हेतु आभार.
फिर से गलती:
क्षमा के स्थान पर क्षण हो गया.
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० आचार्य जी,
अति सुन्दर यमक अलंकार युक्त रचना के लिये साधुवाद | प्रत्येक छन्द अपनी
अभिनव छटा लिये है | विशेष -
है 'दिवाल' हिन्दी भाषा की, अंग्रेजी में भी 'दि वाल' ही.
ढाल ढाल बचना चाहा पर, फिसल ढाल पर हैं निढाल ही.
सादर
कमल
dks poet ✆ dkspoet@yahoo.com
‘शब्दों के सब अर्थ बदलकर’ बहुत सुंदर रचना है, बधाई स्वीकारें।
mstsagar@gmail.com द्वारा yahoogroups.com ekavita
शब्दों का जादू ,छाया ,मन को बहुत ,भाया | बधाई ,
महिपाल
Rakesh Khandelwal ✆ ekavita
आदरणीय
आपकी रचनाओं पर कुछ कहना अस्म्भव ही प्रतीत होता है. केवल
अतुलनीय
सादर
राकेश
pratapsingh1971@gmail.com yahoogroups.com ekavita
आदरणीय आचार्य जी
अहा ! कितनी सुन्दर कविता है ! अनुपम ! बस आनंद आ गया.
कोटिश बधाई !
सादर
प्रताप
अति सुन्दर सलिल जी- विशेषतः प्रथम द्विपंक्ति. बधाई.
महेश चन्द्र द्विवेदी
shar_j_n ✆ ekavita
आदरणीय आचार्यजी,
शब्द-अर्थ के भवसागर में कलम-तरणि ले छंद तैरते.
शिल्प-घाट पर भाव-तरंगों के वर्तुल शत सिकुड़-फैलते.
--- ये अद्भुत सोच और अनूठी अभिव्यक्ति!
कथ्यों की पतवार पकड़कर, पात्र न जाने क्या कुछ कहते.
नवरस कभी हँसा देते हैं, कभी नयन से आँसू बहते.
--- बहुत सुन्दर!
ताना ताना अगर अधिक तो, बाना सहज न रह पाता है.
बाना बाँटे मौन कबीरा, सुने कबीरा सह जाता है. ------ ये अति सुन्दर! मन प्रसन्न हो गया!
हो नि:शब्द हर शब्द बोलता, दिनकर दिन कर मुस्काता है.
--- वाह! क्या बात है!
शेष डोलता पल भर भी यदि, शेष न कुछ भी रह पाता है..
सादर शार्दुला
शार्दुला जी!
आपकी गुणग्राहकता को नत शिर नमन. आप जैसी विदुषी को रचना रुचे तो लेखन करन सफल हो जाता है.
अद्वितीय सलिल जी.
भावविभोर करनेवाली सुसंस्कृत कविता हेतु हार्दिक बधाई.
महेश चन्द्र द्विवेदी
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