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एक गीत- मन वैरागी सोच रहा है
राकेश खंडेलवाल
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मन वैरागी सोच रहा है मंज़िल पथ पर कदम चल रहे
लेकिन आवारा कदमों ने राह और ही चुनी हुई है
राह निदेशक भी भटके हैं अपने धुंधले मान चित्र में
कहाँ दिखाये राह चन्द्रमा ,मावस की काली रातों में
कौन सँचारे उलझे केशों सी सर्पीली पग्डँडियों को
बाँटे कौन अनिश्चय अपना लगा किसे अपनी बातों में .
पल भर का मेजमान अँधेरा ? छोड़ो व्यर्थ दिलासे मत दो
महज कहानी हैं ये बातें, बहुत बार की सुनी हुई हैं
भटक रहे हैं हाँ इतना अहसास लगा है हमको होने
केन्द्रबिन्दु हैं कहाँ? लक्ष्य है कहाँ, नहीं कुछ नजर आरहा
वक्ता कैन,कौन है श्रोता,कहाँमंच है कहाँ सभा है
किसका नंबर आने वाला, कौन अभी है खड़ा गा रहा
जीवन की जिन गाथाओं को हम गीतों में ढाल रहे हैं
उनमें कोई नहीं क्रमश:. एक एक कर गुनी हुई हैं
बढ़ती प्यास अपेक्षाओं की लौटाती निर्झर से प्यासा
भटकन की डोरी ने अटके रहे चेतनाओं के खाते
पानी की हलचल ने लीले बिम्ब अधूरे टुटे फ़ूटे
फ़िर ज़िद्दी आवारा मन को बार बार यह कह समझाते
हाँ है अपनी मैली चादर, जिसे आज तक ओढ़ रहे हैं
नहीं जुलाहा था कबीर, यह किसी और की बुनी हुई है.
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