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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

नव गीत : ओढ़ कुहासे की चादर... --संजीव 'सलिल'

नव गीत : संजीव 'सलिल'




ओढ़ कुहासे की चादर,

धरती लगाती दादी.

ऊँघ रहा सतपुडा,

लपेटे मटमैली खादी...



सूर्य अँगारों की सिगडी है,

ठण्ड भगा ले भैया.

श्वास-आस संग उछल-कूदकर

नाचो ता-ता थैया.

तुहिन कणों को हरित दूब,

लगती कोमल गादी...



कुहरा छाया संबंधों पर,

रिश्तों की गरमी पर.

हुए कठोर आचरण अपने,

कुहरा है नरमी पर.

बेशरमी नेताओं ने,

पहनी-ओढी-लादी...



नैतिकता की गाय काँपती,

संयम छत टपके.

हार गया श्रम कोशिश कर,

कर बार-बार अबके.

मूल्यों की ठठरी मरघट तक,

ख़ुद ही पहुँचा दी...



भावनाओं को कामनाओं ने,

हरदम ही कुचला.

संयम-पंकज लालसाओं के

पंक-फँसा, फिसला.

अपने घर की अपने हाथों

कर दी बर्बादी...



बसते-बसते उजड़ी बस्ती,

फ़िर-फ़िर बसना है.

बस न रहा ख़ुद पर तो,

परबस 'सलिल' तरसना है.

रसना रस ना ले, लालच ने

लज्जा बिकवा दी...



हर 'मावस पश्चात्

पूर्णिमा लाती उजियारा.

मृतिका दीप काटता तम् की,

युग-युग से कारा.

तिमिर पिया, दीवाली ने

जीवन जय गुंजा दी...

*****

4 टिप्‍पणियां:

शार्दुला ने कहा…

shar_j_n ekavita

आदरणीय सलिल जी,

नयी सी दृष्टि! सुन्दर!

"ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी.
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...


तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी..."

सादर शार्दुला

अमित ने कहा…

amitabh.ald@gmail.com

आदरणीय आचार्यवर,

सुन्दर नवगीत!

नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके.
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके.
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...

अर्थपूर्ण पंक्तियाँ!

साधुवाद!

सादर

अमित

Krishna kanhaiya ने कहा…

kanhaiyakrishna@hotmail.com

Aachary Jee,

Kya kahane hai aapki kavita ke bare main.

Abhootpoorv aur anupam.

Dhanyawaad

-Krishna kanhaiya


Krishna Kanhaiya

कमल ने कहा…

ahutee@gmail.com

आ० आचार्य जी,

सुन्दर नवगीत |

बधाई !

कमल