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रविवार, 20 दिसंबर 2009

नव गीत: सारे जग को/जान रहे हम -संजीव 'सलिल'

नव गीत:

सारे जग को/जान रहे हम
*
संजीव 'सलिल'

सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...

जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.

एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.

माया ममता
मोह लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...

पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.

दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.

श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...

जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.

जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.

उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...

******************

3 टिप्‍पणियां:

KAVITA ने कहा…

Sundar bhavpurn navgeet.
Shubhkamnayne

Divya Narmada ने कहा…

कविता ने कविता पढी, कविता हुई प्रसन्न.
कविता को न सराहता, जो वह 'सलिल' विपन्न..

अवनीश एस तिवारी ने कहा…

सुन्दर भाव लिए सुन्दर रचना |

अवनीश तिवारी