गीतिका
आचार्य संजीव 'सलिल'
अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥
गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥
जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥
दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥
शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥
राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥
हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥
नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 26 नवंबर 2009
गीतिका: अपने मन से हार रहे हैं -संजीव 'सलिल'
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2 टिप्पणियां:
बहुत ही ज्ञानवर्धक सारगर्भित और भावपूर्ण सुन्दर रचना है. यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.
शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥
राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥
यह शब्द 'गौड़' है या 'गौण' है?
बहुत सार्थक गीत:
अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥
सुन्दर.
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